कछुआ और खरगोश
अर्चना सिंह 'जया'चपल खरगोश वन में दौड़ता भागता,
कछुए को रह-रह छेड़ा करता।
दोनों खेल खेला करते ,
कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भागते।
एक दिन होड़ लग गई दोनों में,
दौड़ प्रतियोगिता ठन गई पल में।
मीलों दूर पीपल को माना गंतव्य,
सूर्य उदय से हुआ खेल प्रारंभ।
कछुआ धीमी गति से बढ़ता,
खरगोश उछल-उछल कर चलता।
खरहे की उत्सुकता उसे तीव्र बनाती,
कछुआ बेचारा धैर्य न खोता।
मंद गति से आगे ही बढ़ता,
पलभर भी विश्राम न करता।
खरहे को सूझी होशियारी,
सोचा विश्राम ज़रा कर लूँ भाई।
अभी तो मंज़िल दूर कहीं है,
कछुआ की गति अति धीमी है।
वृक्ष तले विश्राम मैं कर लूँ,
पलभर में ही गंतव्य को पा लूँ।
अति विश्वास होता नहीं अच्छा,
खरगोश अक़्ल का थोड़ा कच्चा।
कछुए को तनिक आराम न भाया,
धीमी गति से ही मंज़िल को पाया।
खरगोश को ठंडी छाँव आराम था भाया,
‘आराम हराम होता है’ काक ने समझाया।
स्वर काक के सुनकर जागा,
सरपट वो मंज़िल को भागा।
देख कछुए को हुआ अचंभित,
गंतव्य पर पहुँचा, बिना विलंब के।
खरगोश का घमंड था टूटा,
कछुए ने धैर्य से रेस को था जीता।
अधीर न होना तुम पलभर में,
धैर्य रखना सदा जीवन में।