कबिरा खड़ा बाजार में

15-03-2021

कबिरा खड़ा बाजार में

दिलीप कुमार (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

इधर अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई उधर सिद्धवाणी का उद्घघोष शुरू हो गया। वैसे सिद्धवाणी जो ख़ुद को कबीरवाणी भी कहती रही हैं कि ख़ासियत ये है कि इसकी तुलना आप क्रिकेटर-कम-नेता नवजोत सिंह सिद्धू के स्वागत भाषणों से भी कर सकते हैं, जिसका कंटेंट वही रहता है; तारीफ़ चालीसा का, बस बन्दे या बन्दी का नाम बदल जाता है। उन्हें अपने कंटेंट पर इतना नाज़ है कि वो कभी-कभी दुश्मन देश के उन्हीं लोगों के क़सीदे गढ़ देते हैं जो हमसे हमेशा दुश्मनी निभाते आये हैं। लोग-बाग उनके भाषणों की तुलना तेरह नम्बर की रिंच से भी करते हैं जो कहीं भी फ़िट हो जाती है। 

साहित्य में ख़ुद को कबीर पंथी घोषित करने वाले महापुरुष ने क़सीदे गढ़ने शुरू कर दिए और तारीफ़ के गोले दनादन दागने शुरू कर दिए। अकादमी के पुरस्कार की ख़बर और महाकवि की फ़ेसबुक पोस्ट शाम को ही शाया हुई, उससे पहले वो सुबह ही अपनी एक वर्ष पुरानी पोस्ट को साझा कर चुके थे, जिसमें उन्होंने अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक के कवित्त को अपठनीय, नौकरी को जुगाड़ू, और हिंदी कविता में उनकी उपस्थिति को असहनीय बताया था। 

उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर उन्होंने बहुत ही व्यंग्य बाण चलाये थे। उनकी पोस्ट पर अभी परिचर्चा शुरू ही हुई थी कि अकादमी पुरस्कारों की ख़बर आ गयी, अकादमी के विजेताओं की घोषणा होते ही उनके सुर बदल गए और उन्होंने उनकी कविता को कालजयी, नरम और सर्दी की धूप क़रार दिया। नेटवीरों ने उनकी एक बरस की पहले वाली पोस्ट में उनको टैग किया। टैगियाने का ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा तो वो आजिज़ हो उठे और झल्लाकर उन्होंने अपनी सफ़ाई लिखी कि "मैं उनकी कविता का प्रशंसक हूँ, उनका नहीं"। 

नेटवीरों ने उनकी बात को साखी के तुल्य माना और उनके हालिया अपडेटेड स्टैटस – "ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर" का स्क्रीनशॉट लेकर उनकी पोस्ट में जोड़ दिया और उन्हें "ताज़ा-ताज़ा कबीर" क़रार दे दिया।

ये कबीर नाम का बड़ा गोरखधंधा है, अब जब चाहें तो परम सेक्युलर, प्रगतिशील बन जाएँ और जैसे ही काम निकल जाए वैसे ही कबीरदास की तरह सन्तुलित और तटस्थ हो जाएँ। जैसे कबीर टाइप के कविवर ने अकादमी पुरस्कार पाने पर तुरंत बधाई देने वालों में अपना नाम दे दिया और तब उन्हें अपनी अति सेक्युलर कविता बिरादरी के किसी फरीकैन के अवार्ड पाने पर गर्व हुआ, थोड़ी देर के लिये कबीर के चोले से बाहर आ गए, लेकिन जो लुत्फ़ कबीर होने का है वो किसी विचारधारा के साथ चलने पर कहाँ?

कबीरदास जिस तरह ख़ुद को कहा करते थे कि कबीरदास अल्लाह और राम दोनों की संतान हैं, उसी तरह कबीर नाम भी दोनों धर्मों के लोग बख़ूबी रखते हैं, मसलन कबीर खान नामक निर्देशक ने हनुमान की भक्ति में ओत-प्रोत "बजरंगी भाईजान" जैसी फ़िल्म बनायी दूसरी तरफ ख़ुद को  मॉडर्न कबीर घोषित कर चुके एक सज्जन दंगों में अपनी उपस्थिति दिखाकर मानवीय बनने क्या गए, कुछ ज़्यादा ही उन्होंने उत्साह दिखा दिया और फिर दंगों के पोस्टर बॉय बन गए। अब वो लोगों से कहते फिर रहे हैं कि वे तो तमाशाई नहीं रहे थे उस वक़्त, तमाशबीन थे अलबत्ता। 

तो कबीरपंथी कविवर को पूँजीवाद से बहुत चिढ़ है; ये और बात है कि उन्होंने अपनी सारी कविताएँ एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी "मोंट ब्लेंक" के पेन से ही लिखी हैं। उन्हें पूँजीवाद से इतनी चिढ़ है कि वे सिर्फ़ रूस की वोदका शराब पीते हैं और पीने के बाद कहते हैं कि जब वो वोदका पीते हैं तो उन्हें रूस के मेहनतकश मज़दूरों के पसीने की ख़ुश्बू इसमें आती है। 

कबीरपंथी कविवर पूँजीवाद के इतने घनघोर विरोधी हैं कि वे सिर्फ़ चीन से आयातित पेपर पर कविताएँ लिखते हैं। उनके एक पुराने हमप्याला दोस्त हैं, उनकी रचनाधर्मिता की पचासवीं सालगिरह एक फ़ाइव स्टार होटल में मनायी गयी थी; तरल और गरल के साथ। ये उन दिनों की बात है जब राजस्थान सूखे की समस्या से जूझ रहा था मगर दिल्ली में कई करेट शराब पी गयी। राजस्थान के सूखे के मारे मर रहे लोगों के प्रति संवेदना ज़ाहिर करने के लिये ग़म ग़लत करने के लिये इससे बेहतर विकल्प क्या हो सकता था। 

"क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ 
रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ" 

वहीं पर उन दोनों का किसी मठाधीशी को लेकर झगड़ा हुआ जो आज तक बदस्तूर जारी है। 

कविवर ने काफ़ी सारे कवियों और कवयित्री पर इल्ज़ाम बहुत से लगाए हैं लेकिन अपने अनुकूल होते ही वो सारे इल्ज़ाम उन्होंने ऐसे ग़ायब कर लिये हैं जैसे सर्फ़ एक्सेल से धुलाई के बाद दाग़। तब अगर कोई कविवर को अतीत के शाब्दिक हमलों के दाग़ याद दिलाये तो कहते हैं कि कौन से शाब्दिक दाग़?

"ढूँढ़ते रह जाओगे"। 

कविवर तुरन्त तटस्थ होकर एक जुमला सुनाते हैं –

"मृगा बाण नहीं लगा, बधिक नहीं चूका 
पाहुन किये उपवास, ना सोए भूखा"

अर्थात शिकारी ने बाण तो सही चलाया, लेकिन मृग को बाण लगा नहीं और मेहमान ने उपवास रखने का निर्णय किया था, अतिथि भूखे नहीं सोए थे। 

यानी किसी के साहित्यिक चरित्र की छीछालेदर करना उनका साहित्यिक धर्म था, वरना किसी से उनकी ज़ाती अदावत थोड़े ही थी, लोग-बाग उनकी इस अदा पर बलि -बलि जाते हैं। आजकल कविवर अपने वैचारिक कनविक्शन पर ख़ुद कन्फ्यूज होकर अक़्सर एक शेर कोट करते रहते हैं –

"वो मरासिम थी या अदावत, हैरत में हूँ मैं 
अपनी अना को गंवाकर भी, बेग़ैरत नहीं हूँ मैं "

कविवर कबीरपंथी होने के साथ गाँधीवादी भी हैं। उनकी फ़ेसबुक वॉल की टैगलाइन ही महात्मा गाँधी के वाक्य से सजी है कि "एक आँख के बदले आँख माँगने से तो पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी"। सो अपने फ़ेसबुकिया जीवन में वे बेहद क्षमाशील हैं; लेकिन वास्तविक जीवन में यदि उनसे कोई ज़रा सा असहमत हो जाये तो बिल्कुल फ़िल्मस्टार धर्मेंद्र की तर्ज़ पर बर्ताव करते हैं कि "एक एक को चुन -चुन कर मारूँगा"। 

फिर वो चुन -चुन कर मारते हैं उस युवा कवि या कवियत्री को। यदि उनसे असहमत कोई लेखिका है तो उसके चरित्र पर लाँछन लगाने से ही उनका बदला पूरा हो जाता है क्योंकि शेष काम तो उनके नेट अनुयायी कर देते हैं। और यदि कोई युवा कवि है तो उसको तो नेस्तानाबूद ही कर देते हैं। मसलन उसका छप रहा संकलन रुकवा देते हैं; पुरस्कारों की दौड़ से उसका नाम कटवा देते हैं; उसकी फ़्री लांसिंग के सारे सौर्स बंद करवा देते हैं और यदि कहीं एडहॉक पर किसी कॉलेज में वो असहमत कवि पढ़ा रहा हो तो उसकी नौकरी का रिन्युल ही रुकवा देते हैं। 

और हाँ, अपनी फ़ेसबुक पोस्ट को वे कबीरवाणी कहते हैं। 

"कहो तो छोड़ दूँ यहीं इस अफ़साने को 
तेरा भी ज़िक्र आएगा आगे फ़साने में"

वैसे भी फ़ेसबुक के बाज़ार में खड़े इस मॉडर्न कबीर के क्या कहने?

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