कालमुखी

डॉ. रजनीकान्त शाह (अंक: 153, अप्रैल प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

(गुजराती कहानी का हिन्दी अनुवाद)
मूल लेखक: डॉ.शरद ठाकर
अनुवादक: डॉ.रजनीकान्त एस.शाह 


सेठ ज्वालाप्रसाद के बँगले में अभी नाटकीय दृश्य खेला जा रहा था। एकमेव जवान बेटे मन्वंतर ने मात्र इतना ही कहा, "पप्पा! मैंने एक लड़की पसंद कर ली है यदि आप आशीर्वाद दें तो...."

ज्वालाप्रसाद का ज्वालामुखी फटा, "पसंद कर ली है, अर्थात् क्या तुम्हारे माता-पिता मर गए हैं? अभी पाँच पैसे कमाना तो सीखे नहीं हो कि प्रेम की लत पर चढ़ गए? पहले धंधा करना सिखो। दो पैसे कमाना सीखो और फिर....और फिर लड़की तो हमारी पसंद की ही रहेगी।"

मन्वंतर ने दबी हुई आवाज़ में दलील की, "पप्पा,अब ज़माना बदल गया है। अब तो सब लवमैरिज ही करते हैं। आप एक बार हाँ कह दें तो मैं विश्वा को अपने घर ले आऊँ। आप और मम्मी उसे देखिये, उसके साथ बातचीत कीजिये। बाद में यदि आप ना कहेंगे तो मैं विचार करूँगा पर आप उसे देखे बिना ही...."

ज्वालामुखी और रोषपूर्वक धधक उठा। लावारिस जैसे शब्द निकले, "देखने के बाद क्यों ना कहूँ? अभी से ही ना कह देता हूँ। हमारी इकहतर पीढ़ी में किसी ने लफड़ा किया नहीं है। क्या तुम नयी लीक बनाना चाहते हो?"

“पप्पा,यह लफड़ा नहीं है। शादी की बात है।" 

“यह सब एक ही है। लड़की सीधे तुमसे संपर्क करे, उसमें ऐसे संस्कार होंगे यह समझ लो। यदि वह सच में संस्कारी लड़की होती तो पहले उसने अपने माता-पिता से बात की होती। बाद में उसके माता-पिता ने हमसे संपर्क किया होता। उसके बाद दोनों परिवारों की उपस्थिति में आप दोनों को सामने बैठाकर, हमारी प्रतिष्ठा के अनुरूप बात चलायी होती। ये कौन-सी रीति है? कोई ठिकाना नहीं और कुमारिका चली शादी करने!"

बाप-बेटे का संवाद जयाबहन भी सुन रही थीं पर जयाबहन की ख़स्ता हालत थी। तीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पति के सामने दलील करने का साहस उन्होंने एक बार भी किया नहीं था और यदि ऐसा साहस दिखाया होता तो अभी इस बँगले में बैठी नहीं होतीं।

मनवंतर तो तब चुप रह गया, पर अंतत: तो वह ज्वालामुखी का वारिस था। घर से निकलकर ऑडी कर में बैठकर सीधा कॉफ़ी कैफ़े में पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने फोन किया, "विश्वा, आई एम वेटिंग फ़ॉर यू। दस मिनट में यहाँ पहुँच जाओ।” 

यह उनके रोज़ मिलने की जगह थी। विश्वा दस मिनट में वहाँ पहुँच गई। उसकी आँखों में उत्सुकता झलक रही थी। 

"क्या कहा मम्मी-पप्पा ने?"

"मम्मी तो क्या कहेगी? और पप्पा ने वही कहा जिसकी मुझे आशंका थी।"

"तो उनको किस बात का एतराज है?"

“उनका सबसे बड़ा एतराज उनका इगो है। यदि उन्होंने तुम्हें पहले पसंद कर लिया होता कोई परेशानी वाली बात नहीं थी परंतु मैंने पहले पसंद किया, इसलिए उनके अहं को चोट पहुँची है।"

"तो अब क्या होगा?"

"और क्या होगा? शादी होगी, तुम्हारी और मेरी। हमने लव किया है, लफड़ा थोड़े ही किया है? मैंने तुम्हें कॉमिटमेंट दिया है और मैं उसे निबाहूँगा ही।"

विश्वा की आँखों में ऐसे भाव उभरे मानो उसे कुछ समझ नहीं आया हो, "मन्वंतर, तुम ऐसा नहीं कर सकते। तुम तुम्हारे माता-पिता के एकमात्र पुत्र हो। करोड़ों के बिजनेस के वारिस हो। तुम्हारे पप्पा ने तुम्हें अमरीका भेजकर एम.बी.ए. करवाया है। तुम्हारे भविष्य को लेकर उनके कितने अरमान होंगे। एकमात्र मेरे कारण पिता-पुत्र के बीच कलह हो, ऐसा मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मैं तुम्हें कमिटमेंट से मुक्त करती हूँ। हर प्रेम-संबंध का अंजाम शादी में ही हो, ऐसा ज़रूरी नहीं है।”

मन्वंतर ने विश्वा का हाथ पकड़ लिया। उसकी आँखों से आँख मिलाकर पूछा, "क्या तुमने मुझे सच्चा प्यार किया है? मैं जो कहूँगा मानोगी?” 

विश्वा ने कहा, "हाँ, मेरा सर माँग लो, अभी क़लम करके दे दूँगी।"

"मुझे मस्तक नहीं चाहिए। मस्तक सहित मानिनी चाहिए। कल 11 बजे मैरिज रजिस्ट्रार के ऑफ़िस में पहुँच जाना। मैं तुम्हें वहाँ हाज़िर मिलूँगा। यह मेरा प्रेमादेश है। मुझे विश्वास है कि मेरी विश्वा मेरा विश्वास भंग नहीं करेगी।"

उस दिन की मुलाक़ात पूरी हुई, जो दूसरे दिन पुन: सम्पन्न हुई। चार साक्षियों की उपस्थिति में विश्वा और मन्वंतर विवाहसूत्र में बँध गए। शादी करके सीधे ऑडी कार में बैठकर मन्वंतर अपनी विवाहिता को लेकर मम्मी-पप्पा से आशीर्वाद लेने के लिए घर पहुँच गया। दोनों के गले में फूलमालाएँ थीं। यह देखकर चौकीदार रामू दौड़कर बँगले में दौड़ गया।

सेठ ज्वालप्रसाद इज़ीचेयर में शरीर को लंबायमान बैठे हुए थे। चौकीदार ने बधाई दी, "सेठजी, सेठजी! छोटे सेठ ने शादी कर ली। छोटी सेठानी को लेकर आए हैं। उनके स्वागत की तैयारी कीजिये।"

सेठजी ने तैयारी शुरू की। पेट में से आक्रोश की आग और छाती से रोष की राख गले तक लाकर लावे के रूप में बाहर उंडेलकर रख दिया। दरवाज़े से ही दहाड़े, "वहीं खड़े रहना नालायक़! मैंने ना कहा था, फिर भी तुमने मनमानी ही की। आज से तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े बंद हैं। जैसे आए हो वैसे ही उल्टे पाँव लौट जाओ।"

दहाड़ सुनकर दौड़ आई जयाबहन ने पहली बार मुँह खोलने का साहस जताया, "ऐसा क्यों कर रहे हो भला! बेटे को आशीर्वाद तो देने दीजिये, बहू का मुँह तो देख लेने दीजिये। बाद में यदि ठीक नहीं लगे तो उन दोनों को अलग बँगला दिला देना।"

"कैसा बँगला और कैसी बातें? युवराज को शादी करना आया है तो कमाना भी आएगा ना? और तुझे क्यों बहू का मुँह देखने की इच्छा जगी है? जिस कालमुखी ने हम से हमारा बेटा छीन लिया हो उसके थोबड़े में क्या रखा होगा? चले जाओ दोनों। फिर कभी अपना मुख नहीं दिखाना।"

मन्वंतर इस अपमान को सह नहीं सका। वह मन ही मन जल उठा। विश्वा का हाथ पकड़कर दरवाज़े की ओर जाने लगा। नवोढ़ा द्वारा पहनी हुई क़ीमती साड़ी का घूँघट तनिक चंचल हुआ। आगे बढ़ने से पूर्व एक बार सास-ससुर के आशीर्वाद के लिए उसके पैर उठे पर पति के हाथ की पकड़ मज़बूत थी। उसे खिंचे चले जाना पड़ा। पीछे से आवाज़ सुनायी दी, "रामू, तुम तुम्हारे छोटे सेठ के पास से गाड़ी की चाभी ले लो। दुल्हे-राजा अब अपनी रोल्सरोइस कार में बैठकर अपने बँगले में जाएँगे।"

मन्वंतर ने चाभी चौकीदार के हाथ में रख दी। हाथ से घड़ी, उँगली में से सोने की अँगूठी, गले से चेन भी उतारकर दे दी। पेंट की जेब में नोटों से भरा पर्स निकाला तो सही पर बाद में विचार बदला, "रामूकाका! आप अपने बड़े सेठ से कह देना कि ये बीस हज़ार रुपये, मैंने उनके ऑफ़िस मैंने जो नौकरी की, उसकी तनख्वाह समझकर ले जा रहा हूँ।" 

और मन्वंतर ने ख़ुमारी के साथ अपनी विवाहिता का हाथ पकड़कर पैतृक बंगला छोड़ दिया। सोसायटी की नुक्कड़ से उसे रिक्शा मिल गई।

एक दिन और एक रात एक मित्र के यहाँ बिताकर दूसरे दिन से किराए पर मकान लेकर उसने अपना संसार शुरू कर दिया। सालना तीन सौ करोड़ के टर्नओवरवाली कंपनी का वारिस 50 हज़ार रुपये मासिक की नौकरी करने लगा। विश्वा उसे विनती करती रही, ’मुझे भी नौकरी करने दीजिये’ पर मन्वंतर का मन मान नहीं रहा था।
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जयाबहन पुत्र-विरह का आघात सह नहीं पायीं। दो दिन गुमसुम रहने के बाद तीसरे दिन मासिव हार्टएटेक में मृत्यु को प्राप्त हो गईं। उनके अग्निदाह के लिए ज़्यादा लकड़ियों की ज़रूरत पड़ी नहीं। पति के ग़ुस्से की आग में वह पौना भाग तो जल ही चुकी थी। पत्नी की विदाई के बाद भी ज्वालाप्रसाद की ज्वालाएँ शांत हुई नहीं। उनका स्वास्थ्य भी जवाब देने लगा पर स्वभावजनित अकड़ूपन जस का तस था। ऑफ़िस जाना बहुत कम हो गया था। बरसों पुरानी बी.पी. की तक़लीफ़ अब दवाइयों के अंकुश से बाहर हो गई थी। ब्लडशुगर भी बढ़ गई थी। जब तक जयाबहन जीवित थीं तब तक तो ख़ुद रसोई बनाकर सेठ को खिलाती थीं। ज़िंदगी में पहली बार बाहर से टिफ़िन मँगवाकर खाना पड़ा। रामूकाका ने एकबार करबद्ध होकर विनती की, "सेठजी, मेरी बात मानो। बाहर का खाने से आपकी डायबिटीस और बढ़ जाएगी। इससे अच्छा तो आप रसोइया या बाई रख लीजिये।"

सेठजी ने जवाब दिया, "मैं अपने अकेले के खाने के लिए नौकर रखूँ? दो रोटी बनाकर रसोईवाला पाँच हज़ार रुपए ले जाएगा!"

रामूकाका ने जवाब दिया, "सेठजी,आपको कहाँ पैसों की कमी है? ये डॉक्टर हर महीने पचास हज़ार रुपए ले ही जाते हैं ना? उससे अच्छा तो किसी ज़रूरतमन्द के हाथ में पाँच हजार रुपये यदि जाते हैं तो......"    

सेठ मान तो गए पर कड़ी चेतावनी देना भूले नहीं।

“तुम ही किसीको खोज निकालना; पर एक बात का ध्यान रहे कि जिसे भी तुम लेकर आते हो उसके हाथ स्वच्छ होने चाहिएँ, नाखून कटे हुए होने चाहिएँ, कपड़े गंदे नहीं होने चाहिएँ; भले ही दो हज़ार ज़्यादा देने पड़ जाएँ।"

रामूकाका खोज लाये। कोई महाराज तो मिला नहीं पर एक बाई मिल गई। स्वच्छ और विवेकी थी और कम बोलती थी। सेठजी तो अपने बिछौने में पड़े होते। बाई सुबह-शाम एक्टिवा पर आ जाती थी। धीरे-धीरे उसकी हिम्मत खुलती गई। शयनकक्ष के  दरवाज़े पर जाकर पूछने लगी कि "सेठजी, आज खाने में क्या बनाऊँ?" 

"जो भी बनाऊँगी उसमें नमक तो कम रहेगा ही और मीठा तो मैं बनाती ही नहीं। रामूकाका ने मुझे कहा है कि आपको ब्लडप्रेशर और डायाबिटीस है।"

बाई के हाथ से बने स्वादिष्ट व्यंजनों से सेठ का स्वास्थ्य ठीक होने लगा। कुछ चलने-फिरने लगे। पूरे एक वर्ष की सेवा-शुश्रूषा के बाद सेठ रसोईवाली बाई पर प्रसन्न हुए।

रामूकाका को बुलाया, सूचना दी, "मेरे वकील को बुलाओ ना। मुझे अपनी विल तैयार करनी है। मेरी सारी संपत्ति इस रसोईवाली बाई के नाम पर कर देनी है। मेरा बेटा तो कपूत पैदा हुआ है। जो सुख उसकी कालमुखी पत्नी ने मुझे दिया नहीं है, वह सुख इस बाई ने मुझे दिया है। बुलाओ वकील को....”

रामूकाका का चेहरा खिल उठा। रसोई में सेठ के लिए उपमा बना रही बाई ने बाहर आकर कहा, "सेठ, विल नहीं बनाना। मैं बाई नहीं हूँ। मैं तो कालमुखी हूँ। रामूकाका ने मुझे आपकी तबियत के समाचार मुझे दिये थे। यह जानने के बाद मुझसे रहा नहीं गया। आपके बेटे की मनाही होते हुए भी मैं यहाँ दौड़ी चली आयी हूँ। मेरा अधिकार तो मेरी पगार जितना ही है। आपकी दौलत पर एक कुपात्र और एक कालमुखी का अधिकार कितना हो सकता है?"

सेठजी अवाक् होकर विश्वा को देखते रह गए। दुपट्टे से ढँका विश्वमोहिनी जैसा रूप देखकर बड़बड़ाते रहे, "ऐसी कन्या तो मैं भी खोज नहीं पाया होता। जैसा रूप वैसे ही गुण!" 

अश्रुपूरित आँखों से और काँपती हुई आवाज़ में ठंडा पड़ा हुआ ज्वालामुखी मीठी आवाज़ में बोलने लगा, "रामूकाका,अब तो वकील को अभी ही बुला लो। मेरी जायदाद में से एक भी फूटी कौड़ी उस कपूत के हिस्से में जानी नहीं चाहिए। सारी संपत्ति इस चन्द्रमुखी के नाम पर।”

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