चश्म नम और दामन तर होने लगा
ज़िन्दगी सादगी से बसर होने लगा
जो निचोड़ के रखा है अपना आस्तीन
अब पसीने से नम कालर होने लगा
दाउदों के पते पूछो तो हम कहें
पाक-दोहा कभी तो कतर होने लगा
बाज आऊँ बुरी हरकत से मैं कभी
मय नशी में इधर-ऊधर होने लगा
अब मेरी मंज़िलों के मिलते हैं निशान
पाँव के छालों का असर होने लगा
बेज़बां बुत जिसे सिखलाया बोलना
पलटते ही मेरे पत्थर होने लगा