जीवन-यात्रा का पाथेय

23-05-2017

जीवन-यात्रा का पाथेय

डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’

मेरे मित्र! मेरे मनमीत!
मैंने चाहा हर क्षण निकालना तुम्हें,
तुम्हारे मन के अंधे कुँए से ;
जिसे,
तुम मान बैठे हो सब कुछ!
         मैंने चाहा, तुम सहज रहो;
         हो सके तो सरल बनो
         लेकिन नहीं हो सका ऐसा!
मन के अंधे कुँए में रहते-रहते,
तुम प्रकाश का स्वरूप ही भूल गए;
बल्कि प्रकाश के अस्तित्व को ही,
नकारने लगे हो तुम!
         असहज होकर रहने के अभ्यस्त तुम,
         असहजता को ही सहजता मान बैठे!
मेरी स्थिति विचित्र हो गई–
         बहुत चाहा, समझा सकूँ तुम्हें;
         लेकिन आदत के घेरे को तोड़ना कठिन है!
मेरे सहज अपनत्व को आदत मान,
सदा नकारते रहे हो तुम;
इसीलिए ख़ुद से हारते रहे हो तुम!
         तुम मेरे अन्तरंग हो, अभिन्न हो तुम–
         इसीलिए बार-बार,
         लग जाता हूँ मैं उसी काम में!
         तुम्हें मन के अंधे कुँए से बाहर लाने
और
           सहज- सरल बनाने के काम में!
         कई बार तो झुँझला उठाता हूँ मैं,
         तुम्हारा जिद्दीपन अखरता है मुझे;
         लेकिन सच मानो मित्र!
         तुम से सहज ही हो गई अभिन्नता,
         मुझे दूसरे ही पल–
         सहज बना देती है!
और मैं,
            फिर से जुट जाता हूँ
            मन के अँधे कुँए से बाहर खींच कर,
            तुम्हें सहज-सरल बनाने में!
         तुम अब तक भी मुझे,
         अभिन्न, आत्मीय नहीं मान पाए शायद,
         क्योंकि तुमने देखे हैं
         अलगाव, भिन्नता और टूटन जीवन में;
फिर भी,
कई बार तुम्हारी आँखों की गहराई में
मुझे आशा का सागर हिलोंरे लेता देखा है;
            तब मुझे लगा है बार-बार
            कि हज़ार बार हार कर भी–
            नहीं माननी है मुझे हार!
         तुम्हें मन के अँधे कुँए से
         जब बाहर ले आऊँगा, दोस्त!
         तब, सहज भाव से तुम–
         अपनी कैद से मुक्त हो कर
         मुझे मेरी विजय पर बधाइयाँ दोगे
         और वह सुबह बेहद उजली होगी!
मेरे मित्र! मेरे मनमीत!
            उसी उजली सुबह के लिए जागूँगा मैं,
            सारी ऊम्र लड़ता रहूँगा –
            तुम्हारे मन के गहरे अन्धकार से–
            जो तुम्हें सहज नहीं होने देता!
और–
            उजली सुबह होते ही,
            तुम्हें सौँप कर प्रकाश की दैवी सौगात,
            मैं फिर से चल पडूँगा–
            किसी दूसरी ऐसी ही यात्रा पर!
            तुम्हारी सहज सी मुस्कान;
            और सरलता से परिपूर्ण आत्मीयता–
            मेरी जीवन-यात्रा का पाथेय होगी!

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