जीवन मूल्य

15-08-2020

जीवन मूल्य

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 162, अगस्त द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

"क्या आपको नहीं लगता कि हम अपने आदर्शों को भूल गए; हम उन जीवन मूल्यों को भूल गए जो हज़ारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने गहराई से सोच-विचार करने के बाद हमारे लिए तय किये थे?" इतना कहने के बाद उस अधेड़ इंसान ने अपने गले में लटकाए साफे के दाएँ छोर से अपना मुँह पोंछा। उससे मेरा परिचय आधा घंटे पहले तब हुआ था जब वह दिल्ली से देहरादून जाने वाली उस शताब्दी एक्सप्रेस में सहारनपुर से सवार हुआ था।

ग़लती मेरी थी। समय काटने के लिए मैंने ही उससे पूछा था कि क्या वह भी देहरादून जा रहा है। ख़ैर, हाँ कहने के बाद वह सीधे सनातन धर्म पर चर्चा करने लगा। उसका मानना था कि स्कूलों में शुरुआत से ही बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए। जब मैंने इस बारे में अपनी असहमति जताई तो वह आवेश में आ गया और उसने सीधे मुझसे ये सवाल किए जिन्हें उस जैसे लोग अक्सर किया करते हैं।

उसके इन सवालों का जवाब देने के बजाय मैंने मुस्कराते हुए उससे पूछा, "क्या आप अपने पिता जी के दादा-दादी का नाम जानते हैं?"

उसने सर खुजाते हुए तपाक से कहा, "नहीं तो।"

उसके बाद वह चुपचाप थैले से अख़बार निकाल कर पढ़ने लगा और मैं आँखें बंद कर अपनी बूढ़ी दादी के बारे में सोचने लगा। मैं भी नहीं जानता कि उनका नाम क्या था?

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