भरी दोपहरी
मन के पाँखी ने,
पँख समेटे
चोंच गड़ाई सीने में
और बैठ गया।
पलकें मुँदती धीरे-धीरे
दाना-पानी
कुछ क्षण को
दूर कहीं पर
छूट गया।
बोली मीठी
चिपकी तालू से
कहने-गाने से
उलसा मन
अब ऊब गया।
थकी-थकी
कैसी बेला है
पँख - हवा के
सारे नाते हवा
हो गये।
भरी दोपहरी,
पेड़ तले,
टूटा राही
नींद में कुछ पल
डूब गया॥