फिर-फिर कवि मुझ को गाता है,
मैं जीवन हूँ।

विरला ही मुझ को पाता है
मैं जीवन हूँ।
हँस मैं बोला-तुम मुस्काये,
पलकों पर सपने सज आये,
आशा की दुल्हन पर वारे
तुमने विश्वासों के धागे,
मेरे भीतर ही ढूँढे थे
तुमने अपने अनगिन प्यारे।
मैं जीवन हूँ।।

मैं रूठा-तुम रो आये
दुर्दिन में कितना घबराये,
अपने बिछड़े, अपना बिछड़ा
मुझसे उखड़ कहाँ बस पाये?
इतने गहरे गिरे कि
खु़द से भी मुँह रहे छिपाये।
मैं जीवन हूँ ।।

थाह मेरी पाने को कविवर
भावों की गलियों में घूमे,
पूनम की अँगड़ाई देखें
तारों की अँगनाई झूमें,
अपना आपा भुला पीर के
काँटे, निज नयनों से चूमें।
मैं जीवन हूँ।।

कोई रहा उपेक्षा करता
कोई खड़ा अपेक्षा करता,
खंजन नयन बना कोई रागी
मानस हँस तिरा बैरागी,
हँस कर चाँद चढ़ा साहसी
रो भागा छिप रहा आलसी।
मैं जीवन हूँ।।

लहरों का आना-जाना है
कैसे गिनें, पहल की किसने,
सुख-दुख ने भी खूब नचाया
रस्सी पकड़ाई जिस-जिसने,
सागर सीप समाया जिसने
मोती गहरे पाया उसने।
मैं जीवन हूँ।।

।।। मैं जीवन हूँ।।।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
नज़्म
कहानी
कविता - हाइकु
कविता-मुक्तक
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो