जहाँ चाह वहाँ राह

01-10-2021

जहाँ चाह वहाँ राह

निर्मल कुमार दे (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

"बधाई हो कमल! आख़िर तुम्हारा सपना पूरा हो गया," अपने दोस्त को बधाई देते हुए रंजीत ने कहा।

"आओ रंजीत! काश पिताजी जीवित रहते; उनकी ही इच्छा थी मैं प्रशासनिक अधिकारी बनूँ," कमल की आँखें आँसुओं से भर गईं थीं।

"अब क्यों रोना। तुम्हारे संघर्ष की कहानी मैं ही जानता  हूँ। मैट्रिक परीक्षा पास करने के चार साल बाद तुमने कॉलेज में पढ़ाई शुरू की। कुछ लोगों  ने तुम्हारा मज़ाक भी उड़ाया था।"

"बिल्कुल दोस्त, पिताजी की अचानक मृत्यु से मैं टूट-सा गया था, लेकिन तुमने  बहुत सहारा दिया था। तुमने कभी हतोत्साह नहीं किया।"

"अरे यार। तुम तो कवि भी हो। याद है मेरे घर के पिछवाड़े में फेंकी हुई एक पुरानी गाड़ी  का कबाड़ और उसके बीच एक लहलहाते पेड़ को देख तुमने कितनी अच्छी कविता लिखी थी।"

"बिल्कुल याद है, किताबों में पढ़ा था, जहाँ चाह वहाँ राह। सच तो यह है कि इस पेड़ की जिजीविषा देखकर ही हमें आगे पढ़ने की हिम्मत हुई थी।"

"अरे, वह पेड़ तो अब फल भी देने लगा है। परित्यक्त गाड़ी को कबाड़े वाला बहुत पहले उठाकर ले गया है।"

"काश! उस पुरानी गाड़ी और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच लहलहाते पेड़ की एक तस्वीर मेरे पास होती! मेरे भीतर संघर्ष करने का जज़्बा पैदा करने वाले उस दृश्य को मैं कभी भूल नहीं सकता," कमल ने कहा।

दोनों मित्रों के चेहरे में ख़ुशी और संतोष के भाव थे।

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