जब पुराने रास्तों पर से कभी गुज़रे हैं हम
चाँद शुक्ला 'हदियाबादी'जब पुराने रास्तों पर से कभी गुज़रे हैं हम
क़तरा क़तरा अश्क बन कर आँख से टपके हैं हम
वक्त के हाथों रहे हम उमर भर यूँ मुन्त्शर
दर ब दर रोज़ी की खातिर चार सू भटके हैं हम
हमको शिकवा है ज़माने से मगर अब क्या कहें
ज़िन्दगी के आखिरी अब मोड़ पर ठहरे हैं हम
याद मैं जिसकी हमेशा जाम छ्लकाते रहे
आज जो देखा उसे खुद जाम बन छलके हैं हम
एक ज़माना था हमारा नाम था पहचान थी
आज इस परदेस मैं गुमनाम से बैठें हैं हम
"चाँद" तारे थे गगन था पंख थे परवाज़ थी
आज सूखे पेड़ की एक डाल पे लटके हैं हम
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