जब नहीं तुझको यक़ीं अपना समझता क्यूँ है
बृज कुमार अग्रवालजब नहीं तुझको यक़ीं अपना समझता क्यूँ है
रिश्ता रखता है तो फिर रोज़ परखता क्यूँ है?
हमसफ़र छूट गए मैं जो इसके साथ चला
भला ये वक़्त ऐसी चाल ही चलता क्यूँ है?
मैंने माना कि नहीं प्यार तो फिर इतना बता
कुछ नहीं दिल में तो आँखों से छलकता क्यूँ है?
कह तो दी बात तेरे दिल की तेरी आँखों ने
मुँह से कहने की निभा रस्म तू डरता क्यूँ है?
दाग़-ए-दिल जिसने दिया ज़िक्र जब आए उसका
दिल के कोने में कहीं दीप- सा जलता क्यूँ है?
रख के पलकों पे तू नज़रों से गिरा देता है
मैं वही हूँ तेरा अन्दाज़ बदलता क्यूँ है?