जा री एकाकी

15-08-2021

जा री एकाकी

नीलू चोपड़ा (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

फागुन का महीना था। मंद-मंद बयार बहने लगी थी। बाग़-बग़ीचों में रंग-बिरंगे फूलों की डालियाँ झूम-झूम कर प्रेम के संदेश दे रहीं थीं। ऐसी ही एक ख़ुशनुमा दोपहर को जब आशा कॉलेज से घर पहुँची तो पापा को घर पर पाकर कुछ हैरान सी हो गई। पापा तो रोज़ ऑफ़िस से ओवरटाइम करके शाम सात बजे से पहले कभी घर नहीं लौटते थे। उनकी सेहत और उम्र उन्हें इतना काम करने की इजाज़त नहीं देती थी परंतु कमर-तोड़ महँगाई के चलते घर के ख़र्च और बेटी को उच्च शिक्षा दिलवाने की ख़ातिर ओवरटाइम करने को मजबूर थे । आशा, पापा की लाड़ली बेटी थी। दीनानाथ जी की पहली पत्नी, दो साल की आशा को छोड़ कर चल बसी थी। बेचारे दीनानाथ जी ने एक साल तक तो बिना माँ की बच्ची को किसी तरह पाला पर जब नौकरी और छोटी बच्ची को सँभालना, दोनों ज़िम्मेदारियों में संतुलन बनाने में कठिनाई आने लगी तो कुछ शुभचिन्तकों और सम्बंधियों के कहने में आकर पुनर्विवाह कर बैठे, जिसकी सज़ा वह सारी उम्र भुगतते रहे। आशा के प्रति विमाता का व्यवहार बहुत ख़राब था। विमाता के कठोर व्यवहार को सहते-सहते आशा, नन्ही बच्ची से कब युवा हो गई, पता ही नहीं चला। इसी बीच आशा के एक भाई भी जन्म हुआ। अब विमाता का सारा दिन, बेटे के लाड़-प्यार, लालन-पालन में गुज़रने लगा। घर का सारा काम-काज, मासूम आशा के कन्धों पर आ गया। आशा ऐसे माहौल में पल कर बड़ी हुई थी इसलिए वह बहुत ज़िम्मेदार और समझदार हो गई थी। 

आशा को अपने पिता से भरपूर लाड़ प्यार  और स्नेह मिला था। इसलिए उसे विमाता के दुर्व्यवहार से कोई भी शिकायत नहीं थी। पिता और पुत्री दोनों का मित्रवत्‌ सम्बध था अतः दोनों मिल‍कर अपने दुःख-सुख आपस में साँझे कर लेते थे। आशा अपने पापा की तरह मितभाषी, सलीक़ेदार, गंभीर और मेधावी थी। ईश्वर उसके ऊपर रूप-रंग का ख़ज़ाना भी दिल खोल कर लुटाया था। गोरा गुलाबी रंग, हिरण सी आँखे, घने लम्बे बाल थे। आशा की एक बुआ भी थी जिसके दिल में आशा के प्रति बहुत स्नेह और प्यार था। उनका विवाह बरसों पहले एक धनी परिवार में हो गया था। बुआ, साल में एक बार अपने छोटे भाई से मिलने ज़रूर आती थी। आशा को भी अपनी बुआ से बहुत लगाव था। 
आशा, जल्दी से, पापा के लिए चाय बना लाई । पापा ने चाय की चुस्की लेते हुए आशा से पूछा बेटा, “तुम्हें, मेरे बचपन के दोस्त रामनाथ जी के बारे में कुछ स्मरण है? जिनका बहुत बड़ा बंगला था। बचपन में तुम मेरे साथ उनके घर भी जाया करती थी।”

आशा ने दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कहा, “हाँ याद आया। उन्होंने मुझे एक ड्रेस और गुड़िया भी दी थी।”

दीनानाथ जी बताया कि मेरे दोस्त अब इस दुनिया में नहीं रहे पर उनका परिवार आजकल इसी शहर में है। उनका बेटा आदित्य आज अचानक मुझे ऑफ़िस जाते हुए मिल गया। भाभी बेचारी तो अस्पताल में कैंसर से जूझ रही है। पिता की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए आदित्य आई ए एस की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। घर और पैसा सब माँ की बीमारी के भेंट चढ़ गए। बँगला भी बिक चुका है। आदित्य, आरंभ से ही बहुत ही होनहार और मेहनती लड़का था। आजकल वह चार-पाँच टयूशन करके अपना गुज़ारा कर रहा है परन्तु उसके रहने का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। मैं यह सोच रहा हूँ कि हमारी छत पर जो छोटा-सा कमरा है, क्यों न, वहाँ ही उसके रहने का इंतज़ाम करवा दूँ। उसके पिता के मुझ पर बहुत अहसान हैं। उन्हीं की कृपा से मुझे नौकरी मिली थी। आज उनका परिवार परेशानी में हैं तो मेरा भी उनके परिवार के प्रति कुछ दायित्व बनता है। तू अपनी माँ का स्वभाव जानती है; वह बिना किराया लिए उसे कमरा देने की इजाज़त नहीं देगी। अगर तेरी अम्मा पूछे तो कह देना कि एक किराएदार रखा है। यह सब बता कर उन्होंने आशा को कमरे की साफ़-सफ़ाई कर देने का आदेश दिया। आशा ने तुरंत ऊपर के कमरे की सफ़ाई करने चली गई। वहाँ पड़ी एक खाट पर बिस्तर बिछा कर, टेबल पर पानी का जग भी रख दिया। आदित्य बाहर ही खाना खाता था। दीनानाथ जी बताने लगे कि उनके परिवार को इस परेशानी से उबारने के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो बन पड़ेगा करने का प्रयास करेंगे। वो कहने लगे मैं, अकिंचन सा व्यक्ति उनकी आर्थिक सहायता तो कर नहीं सकता परन्तु उसके पिता द्वारा हम पर किए अनेक अहसानों के भार को कुछ कम तो कर ही सकता हूँ। जब मैंने उसके सामने यह यहाँ पर रहने का प्रस्ताव उसके सामने रखा तो उसका स्वाभिमान उसके आड़े आ रहा था। मैंने बड़ी कठिनाई से उसे यहाँ रहने के लिए राज़ी किया। वो आज शाम को ही आ जाएगा, इसलिए मैं आज आधे दिन का अवकाश लेकर घर जल्दी घर आ गया हूँ। 

पिता के मुख से आदित्य और उसके परिवार के बारे में इतना सब कुछ जान कर न जाने क्यों आशा के मन में उस अनदेखे मेहमान के प्रति अनजाना सा अपनापन उमड़ने लगा था। माँ ने उसे सफ़ाई करते देख कर जब उससे पूछा तो उसने तुरन्त पिता द्वारा कही बात दोहरा दी। वहाँ छत पर एक नल भी लगा था। उसने सोचा, चलो अच्छा है आदित्य को नहाने की भी सुविधा मिल जाएगी। जब साफ़-सफ़ाई करने के बाद, आशा हाथ में बाल्टी जब वह नीचे उतर रही थी तो उसके गोरे गालों पर काले घनेरे केश उसके मुख पर बिखरे गए थे। धानी चुनरी कमर में में फेंटे की तरह बँधी थी। अचानक, उसकी नज़र, नीचे मुख्य द्वार पर खड़े एक सुदर्शन से युवक पर पड़ी जो सकुंचित सा खड़ा था। पापा शायद बरामदे में ही बैठे उसी की राह देख रहे थे। 

आशा की नज़र उस युवक की नज़रों से अनजाने ही जा मिली। एकाएक उसे ऐसा लगा मानो वह उसे जन्मों-जन्मों से उसे जानती हो। आशा, उसकी गहरी आँखों के सागर में डूबती चली जा रही थी। पिता जी ने उसका ध्यान भंग करते हुए उसका परिचय उस युवक से करवाया। बड़े उत्साह से वो बताने लगे, आशा यही है राम नाथ जी के के सुपुत्र आदित्य, जो हमारे साथ रहेंगे। आशा ने बड़ी शालीनता से, नज़र झुका कर आदित्य को अभिवादन किया आदित्य जो पहले ही आशा की सुन्दरता और को देख ठगा सा खड़ा था, तुरंत सँभल गया और दीनानाथ जी के पैरों पर प्रणाम करने के लिए झुक गया। उसके बाद बहुत विनम्रता से उसने आशा को भी नमस्कार किया। आशा ने जल्दी से कमर में बँधी अपनी चुनरी को कन्धों पर डाल लिया और रसोई में मेहमान के लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करने चली गई। अम्मा तो रोज़ की तरह अपने लाड़ले बेटे को लेकर पार्क मे घुमाने लेकर गई हुई थी। चाय पीकर रामनाथ जी आदित्य को ऊपर कमरे में ले गए। कमरे में सामान रख आदित्य चला गया। उसे ट्यूशन देने जाना था। 

आदित्य ने कार्तिकेय सा रूप रंग पाया था। लगभग छह फुट का क़द, गौर वर्ण प्रशस्त भाल, घने बाल और सागर सी गहरी आँखें थीं। आदित्य जाने के लिए जब बाहर निकल ही रहा था, अचानक, चाय के कप उठाने आई आशा पर उसकी उसकी नज़र पड़ गई। दोनों की आँखें आपस में मिलीं, आँखों के रास्ते दोनों एक दूसरे के दिल में उतर गए। पहली नज़र में प्यार, शायद इसी को कहते हैं। दोनों को ऐसा लग रहा था मानो बरसों से एक-दूसरे को जानते हैं। आदित्य ने आशा के मन उपवन में प्यार के बहुरंगी फूल खिला दिए थे। उसके मन में अनजानी सी हलचल हो रही थी। दिल किसीे पक्षी की तरह ऊँची उड़ान भरने को आतुर हो उठा। पूरे घर का काम सँभालना, अम्मा के ताने, पढ़ाई की चिंता इन सब को भूल कर उसका मन फूल-सा हल्का हो गया था। उधर आदित्य का हृदय भी आशा को लेकर सतरंगी सपनों के ताने-बाने बुनने लगा था। यद्यपि, आदित्य के जीवन में भी हज़ारों उलझनें थीं पर आशा के प्रति बढ़ते लगाव और उसके अपनेपन ने उसके जीवन की सारी उलझनों और समस्याओं को किसी जादूगर की भाँति लुप्त-सा कर दिया था। 

अब आशा पर हर वक़्त अपने पहले और नए नए प्यार के नशे में डूबी रहती थी। वह घर का सारा काम फ़ुर्ती से निबटा लेती। अम्मा खाना खा अपने कमरे में सुस्ताने लगती तो वह अवसर पाते ही दबे पाँव ऊपर वाले कमरे की साफ़-सफ़ाई कर आती। वहीं टेरेस पर लगे नल पर ही आदित्य के कपड़े धोकर डाल आती। पापा के घर लौटने से पहले ही रात का खाना बनाने जुट जाती। आदित्य रात को 9 तक घर लौटता था। आशा इसी बीच, भोजन की थाली भी चुपके से ऊपर रख आती थी। उसे यह सब करने में परम सुख और संतुष्टि मिलती। सीमित साधनों में, वो जो भी बन पड़ता, वो आदित्य के लिए करने का प्रयास करती। आशा, देर रात पढ़ाई करती थी क्योंकि दिन उसेें समय नहीं मिलता था। आदित्य देर रात तक, आशा के बारे में सोचता हुआ बड़ी बेचैनी से छत पर घूमता रहता। नीचे आशा उसकेे कदमों की आहट सुनती। आदित्य की माँ की हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती जा रही थी। अब तो अस्पताल के डॉक्टर भी निराश से होने लगे थे। दीनानाथ जी ऑफ़िस से आकर आदित्य से उसकी माँ और पढ़ाई की तैयारी के बारे में पूछते रहते। आशा के दिल में, आदित्य की माँ से मिलने और उनकी सेवा करने की इच्छा प्रबल लहरों की तरह उठती थी पर उसकी मजबूरियाँ आड़े आ जातीं। एक दिन, आदित्य के कपड़े धोते समय आशा ने पाया कि उसके कुर्ते और पेंट्स बहुत घिस के फटने की कागार पर आ चुके हैं। उसका दिल तड़प उठा। उसने तीज-त्योहार पर मिली अपनी छोटी सी, जमा रक़म से रुपये निकाले और किताबें ख़रीदने के बहाने बाज़ार जा कर आदित्य के लिये दो जोड़ी कपड़े ख़रीद लाई और चुपके से आदित्य के कमरे में रख आई। 

कुछ दिन बाद ही, आदित्य की प्रतियोगी परीक्षा की तारीख़ की सूचना मिली। अपनी माँ की देखभाल लिए एक नर्स का इंतज़ाम कर वह बहुत बेमन से ही परीक्षा देने के लिए जाने को तैयार हुआ। अपनी माँ के लिए वह बहुत चिंतित था। दीनानाथ जी उसका हौसला बढ़ाया। जाने से पहले उसकी उदास निगाहें आशा को खोज रहीं थीं। आशा भी कॉलेज जाने के लिए ही कमरे से बाहर निकल ही रही थी। सामने खड़े हुए आदिय्य को वो अपने तन-मन में छिपा लेने के लिए व्याकुल हो रही थी। आदित्य भी अपने मन की भावनाओं को आशा के सामने प्रकट करना चाहता था पर दोनों लोक-लाज और समाज की मर्यादाओं के बंधन तोड़ने में असमर्थ थे। दीनानाथ जी उसे शुभकामनाएँ दे रहे थे। एक पल के लिए दोनों की नज़रें मिलीं  और दोनों ने ही हज़ारों पैग़ाम एक दूसरे को दे डाले। आशा ने सिर झुका कर, आदित्य की सफलता के लिए मन ही मन हज़ारों दुआएँ माँग डालीं। 

आदित्य ने भी दीनानाथ जी के चरण स्पर्श किए और एक नज़र आशा पर डाल, चला गया। आदित्य के जाते ही आशा निष्प्राण सी हो गई उसे ऐसे लगा मानो उसके शरीर से आत्मा निकल कर आदित्य के साथ चली गई हो। वह बेजान सी रह गई। 

कुछ ही दिन बाद आशा की भी फ़ाइनल परीक्षाएँ थीं। आशा पूरी लगन से परीक्षा की तैयारी में जुट गई। परीक्षा समाप्ति के बाद कॉलेज के आख़िरी दिन, आशा लायब्रेरी से ली गई किताबें वापिस जमा कराने के लिए कॉलेज गई। कॉलेज की लाइब्रेरी के सामने पुस्तकें वापिस करने वाले छात्रों की लम्बी क़तार लगी थी; आशा भी क़तार में लग गई। उसकी बारी शाम के 4 बजे तक आई। वापिस लौटने पर उसने दीनानाथ जी को घर पर पाया। उनका उदास चेहरा देख आशा किसी अनहोनी आशंका में डूब गई। उन्होंने बताया कि आदित्य की अनुपस्थिति में ही कल उसकी माँ, परलोक सिधार गई। सूचना मिलते हीआदित्य, ट्रेनिंग से छुट्टी ले कर, माँ के पार्थिव शरीर को लेकर अपने पुश्तैनी गाँव चला गया। वहीं से अन्तिम संस्कार करने के बाद अपनी ट्रेंनिग पर लौट जायेगा। हम तो उसके लिए कुछ भी न कर पाए। बेचारा बहुत व्यथित था। कुछ समय पहले ही आदित्य, 5 मिनट के लिए, टैक्सी को बाहर खड़ी कर, ऊपर कमरे में अपना कुछ ज़रूरी सामान लेने आया था। तेरी अम्मा ने उसी के सामने घर में बवाल मचा दिया। तब से सारे घर को धो-धो कर गंगा जल छिड़क रही है। मैं भी स्नान करने जा रहा हूँ। यह सुन आशा का दिल पीड़ा से कराह उठा। वह समझ गई, यहाँ आदित्य उसी को देखने इस हालात में भी आया होगा, वरना ऊपर उसके कुछ पुराने कपड़ों के अलावा रखा ही क्या था? 

दो महीने बीत गए, आशा का रिज़ल्ट भी आ चुका था। अचानक एक दिन बिना कोई सूचना दिए आशा की बुआ जी आ गईं। आशा को बहुत अच्छा लगा। वह बुआ की लाड़ली भी थी। बुआ जी, आने के कुछ देर बाद जलपान करके, दीनानाथ जी को अलग कमरे में ले गई। अम्मा भी साथ ही चली गई। तीनों किसी गुप्त मन्त्रणा में व्यस्त थे। दो घण्टे बाद जब कमरे का दरवाज़ा खुला। सभी के चेहरे खिले हुए थे। बुआ अपने साथ सबके लिए लाए उपहार, सबको देने लगी । 

बुआ का ऐसे अचानक आना और पापा और अम्मा के साथ अकेले में मीटिंग करना देख आशा को कुछ दाल में कुछ काला नज़र आया। रात को डिनर के समय इस रहस्य से पर्दा उठ ही गया। बुआ ने प्यार से आशा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “आशा बेटा, तेरे लिए एक बड़े और लखपति परिवार का रिश्ता आया है। अब तो राज करेगी मेरी बन्नो।” 

यह सुन कर आशा मन ही मन तड़प उठी। हमेशा ही शांत और शालीन रहने वाली आशा भड़क उठी डिनर के बीच में ही उठ खड़ी हुई और ज़ोर से बोली, "मुझे नहीं करनी शादी-वादी,” यह कह तेज़ी से अपने कमरे में चली गई। आशा का यह नया रूप और व्यवहार सबको चकित कर गया। नम्रता की मूर्ति आशा का ऐसा रवैया देख सब सकते में आ गए। 

अगले दिन लड़के वाले आशा को देखने आने वाले थे। ऐसे में आशा का यह एलान किसी बम विस्फोट से कम न था। बुआ जी, आशा के कमरे की ओर दौड़ीं, दीनानाथ उनके पीछे भागे। घण्टों तक समझाने पर भी जब आशा ने शादी के लिए सहमति नहींं दी तो बुआजी ने रौद्र रूप धारण कर लिया और वो ज़ोर से बोलीं मैं यहाँ तुम्हारी जिंदगी सुधारने के लिए प्रयत्न फिर रही हूँ और तुम्हारा इतना अहम्‌ और अभिमान? दीनानाथ जी भी रुआँसे होकर बोले, ''आशा, तुमने यह क्या तमाशा कर रखा है। में एक निर्धन आदमी हूँ। मैं लाख कोशिश के बाद भी तुझे मामूली क्लर्क से ब्याहने से अधिक औक़ात नहींं रखता। तेरेे रूप और गुण के कारण एक रईस ख़ानदान ने तुझे बहू बनाने का पैग़ाम दिया है, वो भी सिर्फ़ दो कपड़ों में बिना कोई दान-दहेज़ के। यहाँ तुम हठ कर इंकार कर रही है।”

अम्मा को भी मन की भड़ास निकालने का अच्छा मौक़ा मिला वो अपन हाथ नचाते हुए बोली, “यह लड़की माता-पिता की इज़्ज़त को नीलाम करवाएगी।” बात बढ़ते देख बुआ ने अम्मा को कमरे से बाहर किया। 

वो रात सबके ऊपर भारी थी। बुआ के वचन पर बनी थी। दीनानाथ जी आज्ञाकारी आशा के रुख़ से सकते में आ गए थे और आशा का दिल, आदित्य का स्थान किसी  और को देने को तैयार ही नहींं था। जब किसी तरह बात न बनी तो बुआ ने क्रोध में अपना सामान समेट अपने घर वापिस जाने का एलान कर दिया तो सबके होश उड़ गए। बुआ ही एकमात्र इस घर की शुभचिन्तक थी। दीनानाथ जी अपनी बड़ी बहन को माँ समान मान देते थे। बहन को ऐसे नाराज़ होकर जाते देख उनके होश उड़ गए। वो आशा के पैरों में गिर पड़े, रोते हुए बोले, “बेटा, ज़िद छोड़ दे।” 

अपने पिता को ऐसे करते देख आशा बुरी तरह आहत हो उठी  और पापा को उठा गले लगा कर फूट फूट कर रो पड़ी। अब आशा ने भी सोचा कि आदित्य ने उससे ऐसा कोई विवाह करने का वादा तो किया नहीं है, अगर वो वापिस लौट कर आया ही नहींं तो क्या होगा? उसका न तो कोई सन्देश ही आया था और न ही उसने, उसकी कोई खोज-ख़बर ली थी। ऐसी अनिश्चितता की हालत में वह क्या करे? उस के दिल में आदित्य के प्रति रोष सा उत्पन्न होने लगा था वह उसे बीच भँवर में, अकेला डूबने को छोड़ गया था उसी के लिए वो अपने देव-तुल्य पिता और माँ-तुल्य बुआ की इच्छा का उल्लंघन करने का दुःसाहस कर रही थी। उसका हृदय ग्लानि से विगलित हो उठा। अपने पिता की और बुआ के फ़ैसले पर अपनी भी मोहर लगा दी। 

आशा द्वारा विवाह के लिए हामी भरते ही पूरे घर में ख़ुशी की लहर-सी दौड़ गई। अगले ही दिन, सवेरे से ही अम्मा  और बुआ घर की काया पलटने के प्रयास में लग गईं। दीनानाथ जी बाक़ी इंतज़ामात करते घूम रहे थे। शाम होने से पहले ही, एक बड़ी सी गाड़ी घर के मुख्य द्वार पर आ खड़ी हुई। उनके स्वागत के लिए घर के सभी बड़े द्वार पर आ गए। सबसे आगे एक आधुनिक सज्जा में सँवरी, महिला थी जो लड़के की माँ थी वह पैनी नज़रों से घर का मुआयना करती आगे बढ़ी। उनके पीछे लड़के के पिता थे जो एक रईस सज्जन पुरुष लग रहे थे। सबसे पीछे था उनका पुत्र नवीन था जो अमीरी के मद में चूर, बड़े ठसके से अंदर आया मानों वहाँ आकर सबको कृतार्थ कर रहा हो। 

बुआ भी पूरे इंतज़ाम से आई थी। आशा के लिए गुलाबी बनारसी साड़ी साथ ही लाई थीं। गले में सुच्चे मोतियों की दोहरी लड़ी, कानों में उन्होंने अपने ही डायमण्ड टॉप्स पहना कर आशा को तैयार कर दिया। बेचारी आशा बलि के बकरे की तरह मेहमानों के सामने भेजी गई। उसके रूप, लावण्य और सादगी को देखते ही सब के चेहरों पर प्रशंसा के भाव झलकने लगे। अपने बेटे का परिचय, उन्होंने, एक सफल व्यवसायी के रूप में कराया। नवीन ने, आशा से कोई बात नहींं की, बस उकताया सा सारा तमाशा देखता रहा। दोनों पक्षों में रज़ामन्दी होने के बाद सब कुछ तय हो गया। बिना विलम्ब किए नवीन के माता और पिता ने आपस में कुछ मन्त्रणा की। उसके बाद नवीन की माँ ने जड़ाऊ कंगन आशा की नाज़ुक कलाइयों में पहना दिए। नवीन के पिता ने भी बिना गिने 500 के नोटों की एक गड्डी आशा की झोली में डाल दी। आशा एक कठपुतली की तरह अपने परिवार के आदेशों का पालन करती जा रही थी। अब दीनानाथ जी भी अपने होने वाले दामाद का शगुन करने खड़े हुए। संकोच से उन्होंने एक मामूली-सी सोने की अँगूठी नवीन को पहना दी। फलों की टोकरी और कुछ मिठाई के डिब्बे देकर शगुन कर दिया। देखते-देखते सभी कुछ तय हो गया। चूँकि विवाह बहुत सादगी से होना था, किसी भी तरह का कोई दिखावा नहींं करना था; दान दहेज की तो कोई माँग ही नहींं थी अतः अगले सप्ताह ही शादी का महूर्त निकलवा लिया गया। 

आशा को छोड़, इस विवाह से सब लोग ख़ुश थे। आनन-फ़ानन में जितनी तैयारी हो सकती थी कर ली गई। आशा के दिल में हाहाकार मचा था। मन ही मन सोचती रही, आदित्य ने भी तो उसकी कोई खोज-ख़बर नहींं ली। उसने न तो उसे कोई पुख़्ता वचन ही दिया था न ही शादी करने का कोई ज़िक्र किया था तो वह किस उम्मीद से अपने परिवार से इस शादी का विरोध कर सकती थी। वह आदित्य के पत्र या फोन का इंतज़ार ही करती रह गई पर साक्ष्य न होने के कारण वह अपने प्रेम का मुक़दमा हार गई थी। जिस दिन से आदित्य यहाँ से गया था, उस दिन से उसने ऊपर वाले कमरे में क़दम ही नहींं रखा था। उसे आदित्य की हज़ारों यादें वहाँ फन फैलाए डसने को दौड़तीं थीं। आदित्य की हज़ारों यादें वहाँ बिखरी पड़ीं थीं। 

आशा का विवाह बहुत सादगी से सम्पन्न हो रहा था। एक कठपुतली की तरह जो जैसे कहता वह करती जा रही थी। दूल्हा भी विवाह के लिए कुछ ख़ास उत्सुक दिखाई नहींं दे रहा था। विदाई का समय नज़दीक आ रहा था। इस समय आशा बहुत व्याकुल हो उठी। बारात में आए लोग हॉल में नाश्ता कर रहे थे। आशा को न जाने क्या सूझी, वह अपने पहले और आख़िरी प्रेम की चिता जलाने, ऊपर वाले कमरे में जा पहुँची। कमरे में सब कुछ पहले जैसा ही था, पर अचानक आशा की नज़र पानी के जग के नीचे पड़े एक काग़ज़ पर पड़ी तो देखा वह लिखावट तो आदित्य की ही थी। दरअसल वह आदित्य का लिखा एक पत्र था। उसमें लिखा था, ’आशा, मैं अपनी, मृत माँ को बाहर टैक्सी में छोड़ तुमसे मिलने यहाँ आया था पर तक़दीर ने मेरा साथ ही नहीं दिया। तुम घर पर ही नहीं मिली। मैं तुम्हारी एक झलक भी न देख पाया। आशा, तुम मेरे लौटने की प्रतीक्षा करना। मैं तुम्हें जल्दी ही लेने आऊँगा। माँ को मैंने हम दोनों के इस सम्बध के विषय में बहुत पहले ही बता दिया था। तुम्हारे बारे में सुन कर वो बहुत ख़ुश हुई थी। दीनानाथ चाचा जी भी कभी इस रिश्ते से इंकार नहींं करेंगे’। पत्र पढ़ कर आशा को चक्कर-सा आ गया। हाय, वह भी यह क्या अनर्थ कर बैठी। आदित्य की यादों से दूर भागते-भागते उसने उसे हमेशा के लिए ही खो दिया। यह अन्याय उसने आदित्य के साथ किया था। आदित्य तो सब कुछ स्पष्ट करके गया था। विदाई का समय हो चला था। इधर, नीचे आशा को खोजा जा रहा था। पत्थर की मूर्ति के सदृश्य आशा नीचे उतरी। हताशा और निराशा से वो अपनी सुध-बुध गँवा बैठी थी। विदाई के समय उसकी आँखों से, अपने प्रियजनों से बिछड़ने पर एक आँसू भी न टपका। दिल पत्थर बन गया था; यह सब देख वर पक्ष भी चकित था। 

विदा होकर, वह ससुराल के आलीशान बँगले में आ पहुँची। वहाँ भी पूरे दिन, मुँह दिखाई और अन्य रीति-रिवाज़ों का नाटक चलता रहा। आशा एक यन्त्र-चालित गुड़िया की भाँति दिए गए निर्देशों का पालन करती जा रही थी। आशा को एक बात तो भली प्रकार समझ में आ गई थी कि उसका तथाकथित पति नवीन भी इस विवाह से उतना ही बेज़ार था जितना की वो थी। नवीन भी निर्विकार बैठा था। वह अपनी नई-नवेली दुल्हन के प्रति उदासीन था। रात को आशा को एक सजे हुए कमरे में बैठा दिया गया। उसी समय उसकी सास ने आकर कुछ रहस्यों से पर्दा उठाया। उन्होंने बताया कि, आशा, वास्तविकता तो यह है कि, हमारा नवीन तो अभी शादी के लिए बिल्कुल तैयार न था परन्तु इसके पापा को अभी तक दो बार हार्ट अटैक हो चुके हैं, इसलिए हम चाहते थे कि नवीन विवाह करके अपनी  और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी सँभालने लगे। तुम्हारे जैसी रूप-गुण से सम्पन्न लड़की से विवाह कर के शायद वो अपने पिता के कारोबार और परिवार की दिलचस्पी लेने लगे। अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम उसके जीवन की दिशा को किस तरीक़े से बदलती हो। इतना कह कर वो अपनी चिन्ता और तनाव की गठरी आशा के सिर पर लाद कर कमरे से बाहर चली गई। 

सुहागरात को ही नवीन रात के तीन बजे के लगभग, एक नौकर का सहारा लेकर अपने कमरे में आया। वो नशे में चूर था और लड़खड़ाते क़दमों से आशा के पास आ बैठा। नशे में उसने अपने जीवन के सारे रहस्यों से स्वयं ही पर्दा उठा दिया। अपनी प्रेमिका किट्टी जो शहर की प्रसिद्ध कॉल गर्ल थी, उसे तन मन धन से अपना बनाना चाहता था। परन्तु उसके परिवार को इस सम्बंध से सख्त एतराज़ था। यह देख, उसने किट्टी के साथ मिल कर एक योजना के तहत, बहुत चालाकी से आशा से विवाह करने के लिए हामी भर दी थी क्योंकि ऐसा न करने पर उसे पैतृक सम्पति और व्यवसाय में अपनी हिस्सेदारी से हाथ धोना पड़ता। 

आशा को, बिना दान-दहेज़, सादा और जल्दी ही विवाह करने का रहस्य समझ में आ गया। वो अपने साथ हुए इस छल को जान कर सन्न रह गई। नवीन, प्रतिदिन ही किट्टी के घर से रात के दो या तीन बजे, नशे में चूर लौटता और बिस्तर पर गिर जाता। सवेरे देर तक सोया रहता था। उसे घर-परिवार से कोई दिलचस्पी नहींं थी। दोपहर को तैयार हो, कार में बैठ किट्टी के घर पहुँच जाता जहाँ देर रात तक दोनों भोग-विलास में डूबे रहते। नवीन की यही दिनचर्या थी। अपने पुश्तैनी कारोबार से उसे कोई लेना-देना नहींं था। जितने रुपए चाहता कैशियर से, बड़े अधिकार से ले लेता। 

आशा की सास, भी बड़ी सोसायटी में उठने-बैठने वाली, आधुनिकता के रंग में रँगी महिला थी। घर को नौकरों के भरोसे छोड़ अपना अधिकांश समय क्लब और किटी पार्टीज़ में गुज़ारती थी। समाज सेवा का ढोंग कर अख़बारों में आए दिन, पैसे के बल पर अपना फोटो छपवा कर, वाह-वाही लूटती थी। पूरे परिवार में केवल नवीन के पिता ही ऐसे शख़्स थे जिनके बलबूते पर परिवार की गाड़ी चल रही थी। परिवार के लिए, उन्होंने, जी-तोड़ मेहनत करके इतना धन-वैभव जुटाया था पर आज उन्हें लग रहा था कि उनके सारे अरमान और सपने, सारी मेहनत पर नवीन  और उसकी माँ ने पानी फेर दिया था। नवीन का विवाह करके उन्होंने क़िस्मत का अंतिम दाँव खेला था पर इस बाज़ी में भी उन्हें अपनी हार ही दिखाई दे रही थी। 

आशा के सामने अब अन्य कोई विकल्प न बचा था। मायके से उसे अजीब सी वितृष्णा हो गई थी। पग फेरे के लिए जब उसके पिता और छोटा भाई लेने आने तो उसने तेज़ बुख़ार का बहाना बना उन्हें लौटा दिया था। उसके इस निर्णय से ससुराल वाले भी आश्चर्यचकित रह गए थे, पर अब उसे किसी की परवाह नहींं थी। उसके भीतर एक अजीब से आक्रोश का ज्वालामुखी हर समय धधकता रहता था।

नवीन की दिनचर्या की अब उसे आदत सी पड़ गई थी। वो घर में रहे या बाहर रहे, उसे कोई अंतर नहींं पड़ता था। आशा, समझ गई थी कि वह अमीरों के बाज़ार में बुरी तरह ठगी गई। बुआ जी उसे धनवानों की नगरी में बसा कर अपने को धन्य मान रहीं थीं। आशा को, जीवन में चारों ओर से हार, निराशा  और अपमान ने अपने जाल में बुरी तरह जकड़ लिया था। 

उसके मन मे किसी के लिए कोई संवेदना नहीं बची थी। वह सारी दुनिया से बेगानी हो गई थी। समय अपनी गति से चल रहा था। हालात बद से बदतर होते जा गए थे। नवीन की गैर ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती ही जा रहीं थीं। घर में रुपए-पैसे की कमी नहींं थी पर सब अपने पिंजरों में क़ैद थे। सास अक़्सर परोक्ष रूप से उसके ग़रीब घर से आने, आधुनिक समाज के तौर-तरीक़ों के अनुसार न रहने पर तंज़ कसती रहती। आशा के ससुर अमरनाथ जी, बहुत ही सज्जन पुरुष थे। वो आशा की व्यथा भली-भाँति समझ रहे थे पर अपने बिगड़े पुत्र और अति आधुनिकता के रंग में रँगी पत्नी से हार चुके थे। दिन–रात वो बिज़नेस के चक्रव्यूह में फँसे रहते। कोई ऐसा विश्वासपात्र भी न था जिसे अपनी ज़िम्मेदारी सौंप कर दो घड़ी विश्राम कर लेते। 

शादी के बाद भी नवीन में कोई भी सकारात्मक बदलाव न देख कर अमरनाथ जी चिंता गहरे सागर में डूबने लगे। वह स्वयं को आशा के साथ हुए धोखे और अन्याय का कारण समझने लगे। अपने द्वारा हुई इस भूल ने उन्हें बहुत आहत कर दिया था। जो कुछ भी हुआ उसमें वो ही मुख्य अपराधी थे। आशा से अपने द्वारा किए इस अपराध के लिए वो क्षमा याचना भी माँग चुके थे। आशा यह भली प्रकार जान चुकी थी कि उसके ससुर बुरे व्यक्ति नहींं हैं, बस पुत्र मोह और उसे सही रास्ते पर लाने की उम्मीद से यह क़दम उठा बैठे थे। अमरनाथ जी आशा को ख़ुश रखने के लिए नाना प्रयास करते, आशा के लिए एक छोटी सी लाइब्रेरी भी बनवा दी। वह बाग़बानी की बहुत शौक़ीन थी इसलिए उन्होंने नाना प्रकार के फूल-पौधेे बग़ीचे में लगवा दिए, जिनकी देखभाल में आशा का मन लगा रहे। 

ससुर के यह प्रयास देख कर, कोमल-हृदया आशा को बहुत दया आती। उसने नवीन को सुधारने का संकल्प किया जिससे ससुर के मन को कुछ शांति मिले। अपने क्रोध  और स्वाभिमान को भुला कर उसने नवीन के समक्ष दोस्ती  और प्यार का हाथ बढ़ाया। उसकी हर पसन्द और नापसन्द का ध्यान रखना शुरू किया। दोपहर को एक साथ लंच करने का आग्रह करती परन्तु उसके सारे प्रयास व्यर्थ हो गए। एक दिन जब नवीन बिना लंच किए, किट्टी के घर जाने को निकलने लगा तो आशा ने अपने पत्नी अधिकार को जताते हुए उसे वहाँ जाने से रोकने का प्रयास किया। नवीन ने क्रोध में आकर आशा को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई और उसे बलपूर्वक धक्का देकर बाहर निकल गया। उस समय अमरनाथ जी घर पर ही थे। यह दृश्य देख वो आग बबूला हो उठे। आशा की बेबसी और नवीन की हठधर्मिता ने उनके हृदय को चूर-चूर कर दिया। इस घटना ने उन्हें एक कठोर क़दम उठाने को मजबूर कर दिया। कुछ ही दिन बाद, उन्होंने गुप्त रूप से अपने वकील को बुला अपनी सारी सम्पत्ति आशा के नाम कर दी। अब उनका मन कुछ शांत हुआ कि उनकी मेहनत से सम्पत्ति  और कमाई अब ग़लत हाथों में तो नहींं पड़ेगी। वसीयत बनवाने के बाद उनके मन को कुछ शांति मिली परन्तु आशा उनके इस निर्णय से अनजान थी। एक दिन अचानक, अमरनाथ जी को नींद में ही दिल का दौरा पड़ा। आघात इतना तीव्र था जिससे उनकी जीवन लीला तत्काल ही समाप्त हो गई। 

अमरनाथ जी की मृत्यु ने परिवार की नींव को हिला दिया। पिता के बिज़नेस से अनजान, नवीन केवल ख़र्च करना जानता था कमाना नहींं। अब कैशियर ने भी हाथ खींच लिए। उधर नवीन की माँ अनीता भी परेशानियों में घिर गई। क्लब  और पार्टियों में खुले हाथों से धन लुटाने वाली को अब छोटे-छोटे ख़र्च के लिए दस बार सोचना पड़ता था। पति की मृत्यु के बाद सोसायटी में अब उसका पहले जैसा रुतबा नहींं रहा था । अब वह क्लब भी कम ही जाती थी। सारा दिन कमरा बन्द किए लेटी रहती। नवीन के शाही ख़र्चे उठाने, घर ख़र्च, नौकरों का वेतन देने में मुश्किल आने लगी। कोई चारा न देख, अनीता ने अपना बंगला तक गिरवी तक रख, लोन लेने की योजना बना डाली। 

इससे पहले वह यह क़दम उठाती, तभी अमरनाथ जी के वकील उनकी नई  और आखिरी वसीयत लेकर उपस्थित हो गए। उन्हें देख नवीन और उसकी माँ दोनों के चेहरे खिल गए। दोनों ही उत्सुकता से वकील साहब को घेर के बैठ गए। अनीता ने तुरंत आशा को कमरे से बाहर जाने की आज्ञा दी। ऐसा देख वकील साहब ने यह स्पष्ट किया कि अमरनाथ जी की आज्ञा थी कि उनका वसीयत नामा आप तीनों के सामने ही सुनाया जाए। नई वसीयत के अनुसार उनकी सारी चल और अचल संपत्ति आशा के नाम कर दी गई थी। जिसे सुन कर नवीन और उसकी माँ, दोंनों के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। वो क्रोध में आपे से बाहर हो उठे। उन दोनों के अनुसार यह नई वसीयत, आशा द्वारा रची एक सोची समझी गहरी साज़िश थी। वकील ने उनकी इस ग़लतफ़हमी को भी तुरन्त दूर करते हुए उन्होंने बताया कि आप दोनों की ख़र्चीली आदतों  और ग़ैर ज़िम्मेदारी  और अनुचित व्यवहार के कारण ही अमरनाथ जी को यह क़दम उठाना पड़ा। यह बात भी वसीयत में लिखी गई थी। उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले ही यह नई वसीयत बनवा के रखी थी। आशा को भी इस नई वसीयत के बारे में कोई जानकारी नहींं थी। 

अमरनाथ जी की इस वसीयत ने नवीन को आसमान से ज़मीन पर ला पटका था। किट्टी को भी जब इस बात की सूचना मिली तो वह नवीन से पीछा छुड़ाने की कोशिश में, लग गई। किट्टी की बेरुख़ी और बदलाव नवीन के दिल में अब एक तीर की तरह चुभने लगा। नवीन की माँ अनीता भी, अमरनाथ जी की वसीयत को सुन कर क्षुब्ध थी। वह स्वयं को अभी तक पूरे घर की एकछत्र महारानी समझती थी। आज अपने कुकृत्य, अपने अहम्‌ और झूठी शान के कारण पति का विश्वास खो कर आज अपने अधिकारों से वंचित हो चुकी थी। वह, आशा से नफ़रत करने लगी। उसके ऐसे व्यवहार का आशा ने बड़े धैर्य से सामना किया। आशा बहुत संस्कारी और समझदार लड़की थी। वह अपने ससुर, अमरनाथ जी की इज़्ज़त, मान  और सम्मान को बनाए रखने के किए कटिबद्ध थी। 

उसने, अपनी सास को पूरा आदर-सम्मान देते हुए, परिवार की बागडोर अपने हाथ में ले ली। सबसे पहले उसने ससुर के विश्वस्त और वरिष्ठ कर्मचारियों की सलाह से बिज़नेस की ज़िम्मेवारी वहन की। अपने पति नवीन को अवसाद और नशे की आदत से छुटकारा दिलवाना, उसके सामने दूसरी बड़ी चुनौती थी। बड़ी कठिनाई से उसने, अपने कुछ शुभचिंतकों की मदद और सलाह से नवीन को नशा मुक्ति केंद्र मे भर्ती करवाया। 

आशा, को पूरी उम्मीद थी कि नवीन नशे के इस चक्रव्यूह से बाहर निकल आएगा। बहुत जल्दी ही आशा की यह उम्मीद निराशा में तब्दील हो गई। अचानक एक दिन नशा मुक्ति केंद्र से उसे सूचना मिली कि नवीन की तबीयत बहुत ख़राब हो गई है। उसे अस्पताल में ले जाया जा रहा है। यह ख़बर सुनते ही आशा अस्पताल भागी, अनीता का मातृ हृदय ममता से व्याकुल हो उठा; वो भी आशा के साथ गई। 

अस्पताल में नवीन के मेडिकल टेस्ट चल रहे थे। दोनों चिंतित-सी इंतज़ार में बैठीं थीं। अनीता का मन जहाँ एक ओर पश्चताप की अग्नि में जल रहा था वहीं दूसरी ओर आशा किसी अनहोनी के भय से काँप रही थी। उसी समय डॉक्टर ने आकर बताया कि बहुत साल तक मदिरा के सेवन और कुछ अन्य कारणों से नवीन के बचने की बहुत तो कम उम्मीद है। यह सुन कर वह दोनोंं घोर निराशा में डूब गईं। 

यह ख़बर सुन, दीनानाथ जी भी दामाद को देखने अस्पताल आ पहुँचे। उनके साथ एक अजनबी व्यक्ति भी थे। अपने पिता को एक लम्बे अरसे के बाद सामने देख कर आशा अपने मन में दबे सारे गिले-शिकवे भूल पिता के सीने से लग, टूट कर रो पड़ी। पिता भी अपनी लाड़ली बेटी को इस हालात में देख, तड़प के रोने लगे। उन दोनों के इस रूदन को देख अस्पताल के कर्मचारियों ने उन्हें बड़ी कठिनाई से कमरे से बाहर भेजा। जब वातावरण कुछ सामान्य हुआ तो दीनानाथ जी के साथ आए भद्र पुरुष आशा की ओर मुख़ातिब होकर बोले, “आप ही आशा जी हैं न?”

आशा के हामी भरने पर, आश्वस्त हो कर उन्होंने अपने साथ लाए बैग से एक फ़ाइल निकाली और आशा को सौंपते हुए कहा, “मैं आदित्य जी का वकील हूँ, वह अब इस दुनियाँ में नहींं रहे। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही उन्होंने यह फ़ाइल आपको सुपुर्द करने कहा था। इस फ़ाइल में आपके नाम 50 लाख की एक एफ़ डी के अतिरिक्त कुछ काग़ज़ात हैं उन्हें आप बाद में देख सकती हैं। इस मामले में कभी भी मेरी ज़रूरत पड़े तो मुझे बुला सकती हैं।”

यह सब सुन कर आशा विस्मय से आवाक्‌-सी खड़ी रह गई। सोचने लगी मेरे साथ मेरे भाग्य ने यह कैसा खेल खेला? मेरे जीवन में दो पुरुष आए परन्तु, एक पहले ही उससे दूर हो चुका है और दूसरा अब जाने को तैयारी में बैठा था। यह दोनों पुरुष उसके साथ रह कर भी उसके हो न सके। वह सागर की ऊँची लहरों के पास खड़ी होते हुए भी सूखी और प्यासी ही रही। सुंदर तन और मन होते हुए भी अनछुई ही रही जैसे श्मशान में लगा कोई सुंदर फूल। आदित्य ने संस्कार-वश कभी अपनी मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार नहींं किया। उधर दूसरी ओर नवीन ने, अनाचार और अनैतिकता के चँगुल में फँसे होने के कारण उसकी ओर प्यार की दृष्टि से देखा ही नहींं। उसके तन-मन से हमेशा दूर ही रहा। 

आशा अपने भाग्य के इस क्रूर उपहास के बारे में सोच ही रही थी कि घबराई हुई नर्स ने उन्हें शीघ्र अंदर, नवीन के पास पहुँचने का आदेश दिया। नवीन का अंतिम समय आ गया था। साँसे उखड़ने वाली थीं। आशा उसके नज़दीक जाकर, मृत्युंजय का जाप करने लगी, नवीन अपने अंतिम समय अपने हाथ जोड़कर आशा से कुछ कहने की कोशिश कर रहा था परन्तु उसकी आवाज़ साथ नहींं दे रही थी। वो अपने हाथों को अपने मुँह तक ले जाकर वह आशा को क्या कहना चाह रहा था? वह समझ नहींं पा रही थी। यह देख पास ही खड़े डॉक्टर ने स्पष्ट किया कि यह अंतिम समय भी शराब के कुछ क़तरे पीना चाह रहे हैं। इलाज के दौरान वह उनसे अक़्सर थोड़ी-सी शराब पीने के लिए मिन्नत किया करते थे। यह बात सुनकर आशा का मन करुणा और दर्द से फट गया। बेबस हो कर उसने अपना मुँह फेर लिया। उसी समय नवीन ने भी हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। एक कोने में बैठी हुई नवीन की माँ भी यह सब देख कर बेहोश हो कर गिर पड़ी। चारों ओर गहरी उदासी ने अपना जाल बुन दिया था। 

दो महीने बाद ही आशा ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। उसने अपने सारे क़ीमती ज़ेवर बेच दिए और आदित्य की दी हुई उस एफ डी को तुड़वा कर असहाय सीनियर सिटीज़न के लिए एक बड़े आश्रम का निर्माण करवाया। इस आश्रम में, अपने परिवारों द्वारा सताए या बेसहारा बुज़ुर्गों के रहने की समुचित व्यवस्था की गई थी। उसने इस आश्रम का नाम अपने ससुर और आदित्य का माँ के नाम पर "दुर्गा अमर वृद्ध आश्रम” रखा। उसके इस काम में आशा की सास अनीता ने भी पूरा सहयोग दिया। अब आशा अपना अधिकांश समय उस आश्रम में बुज़ुर्गों की सेवा में ही बिताती। इस आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। इस कार्य में आशा का सहयोग करने के लिए देश के बहुत से अनेक लोग धन और सेवा के इरादे से आगे आने लगे। बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं ने भी भरपूर सहयोग दिया। आशा, अब अपना कुछ समय लेखन कार्य को भी देने लगी थी। लेखन उसका पुराना शौक़ था। एक दिन वह एक कहानी लिख रही थी। अनजाने ही उसकी क़लम उसकी आपबीती लिखने को मचलने लगी। उसने बड़ी ईमानदारी और निष्पक्षता से अपने जीवन कथा को क़लमबद्ध कर कहानी का रूप दे दिया। कहानी के अंत में लिखा "हमारे बाद किसी को यह जिंदगी न मिले”। 

आशा ने उस कहानी को नाम दिया ’जा री एकाकी’। 

2 टिप्पणियाँ

  • 19 Aug, 2021 05:02 PM

    मार्मिक कहानी। आशा की निराशा भरी ज़िंदगी...लेकिन ऐसी लड़कियाँ फिर भी दूसरों का जीवन आशाओं से भरने के प्रयास में जुट जाती हैं।

  • गहन संवेदनशील कहानी

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