इतिहास गौरव शेरशाह सूरी: शाने-तारीख़

21-02-2019

इतिहास गौरव शेरशाह सूरी: शाने-तारीख़

डॉ. रश्मिशील

पुस्तक का नाम - शाने तारीख़,
लेखक का नाम - डॉ. सुधाकर अदीब,
प्रकाशन - लोकभारती प्रकाशन,
लखनऊ-226017
मूल्य - रु0 300/-
पृष्ठ सं. – 328

फ़र्श से उठकर अर्श को रौशन करने वाले आफ़ताब की क़िस्सागोई है- डॉ. सुधाकर अदीब का नवीनतम उपन्यास "शाने तारीख़" अर्थात इतिहास निर्माता। भारतीय इतिहास के मध्यकाल का अभूतपूर्व ऐसा रहमदिल इंसान जिसके भीतर बर्फ़ जैसी शीतलता थी, किन्तु जब उसका वाह्य व्यक्तित्व एक फौजी बाना ओढ़ लेता था तो फिर उसमें अंगारे ही अंगारे नज़र आते थे। उपन्यासकार ने इतिहास गौरव शेरशाह सूरी को केन्द्र में रखकर इतिहास के जो सूत्र संयोजित किए हैं, उनमें तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक यथार्थ की गहरी तस्वीर उभर कर सामने आती है। प्रस्तुत उपन्यास नायक एवं पात्रों के जीवन, उनके परिवेश संघर्ष और मानसिक बनावट के गहरे अध्ययन मनन और चिन्तन का परिणाम है। उपन्यासकार ने शाने तारीख़ के बारह उपशीर्षकों में फ़रीद के फ़र्जन्द और फिर शेर खाँ से शेरशाह सूरी बनने तक के दिलचस्प एवं बुलन्द हौसले को बयां किया है। वे कथानायक की जीवनयात्रा को सजीव व रोचक तो बनाते ही हैं उसके चरित्र को विश्वसनीयता व इतिहास सम्मति भी प्रदान करते हैं।

फ़रीद नाम का एक बालक, जो अपने पिता हसन खाँ सूर वल्द इब्राहिम खाँ सूर एवं विमाता हुस्ना ्बेगम के दुर्व्यवहार से घायल मन सहसाराम से चला तो फिर आजीवन चलता ही रहा और जब थककर सोया तो कलिंजर विजय के साथ युद्ध के मैदान में ही चिरनिद्रा में लीन हो गया।

सहसाराम से निकलकर अपनों की तलाश में फ़रीद जब जौनपुर पहुँचा और वहाँ के हाक़िम अमीर जमाल खाँ की बदौलत जौनपुर के सबसे आला शैक्षिक संस्थान "मदर्सतुल उलूम" में प्रवेशकर इल्मो-अदब की रौशन दुनिया में क़दम रखा तो फिर उसके नूर के आगे हसन खाँ को भी झुकना ही पड़ा। उन्होंने अपने फ़र्जन्द को गले लगा लिया।

फ़र्जन्द वक़्त की नज़ाकत देखकर फ़ैसला करने वाला कुशाग्र बुद्धि का समझदार अफग़ान था। बहार खाँ उर्फ़ सुल्तान मोहम्मद शाह की मातहती में नौकरी करते हुए शिकार के दौरान अपने मातहत की रक्षा में निहत्थे ही शेर से भिड़ जाने वाले फ़र्जन्द को इनाम में मिला शेर खाँ का ख़िताब। जुझारू और कभी हार न स्वीकार करने वाले "शेर खाँ" में आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था। वह कड़ा मानिकपुर के मनसबहार सुल्तान जुनैद विरलास के माध्यम से मुग़ल बादशाह बाबर की फौज में शामिल हुआ और बाबर से अपनी जान के लिए ख़तरे का आभास होते ही रातों-रात मुग़ल छावनी से कूचकर गया। किसी को कानों-कान ख़बर न हो सकी। कूटनीतिक और राजनीतिक चाल चलते हुए शेर खाँ ने सूरजगढ़ जीता तथा बिहार व बंगाल के इलाक़े जीतकर बेताज़ बादशाह बन गया। अपनी कूटनीतिक चाल को सफल बनाने के लिए उसने चुनार गढ़ के प्रबन्धक ताज़ खाँ की बेवा लाड मलिका से निक़ाह कर लिया और चुनार के गढ़ एवं ख़ज़ाने की मिल्कियत हासिल की। बाबर की मृत्यु के बाद मुग़ल बादशाह हुमायूँ को चौसा के युद्ध में हराकर शाह-ए-आलम, सुल्ताना-उल-आदिल, शाने-तारीख़ शेरशाह सूरी के नाम से सारी दुनिया में मशहूर हुआ।

शेरशाह सूरी, जिसकी 68 वर्ष की अवस्था में ताज़पोशी हुई। अपनी बादशाहत के पाँच वर्ष उसने युद्ध की विभीषिकाओं से गुजरते हुए सुशासन, न्याय, कानून व्यवस्था, जन-कल्याण के कार्य करते हुए गुज़ारे। उसके द्वारा कराये गये कार्यों का अनुगमन कर उसका परवर्ती शासक जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर इतिहास में महान बना। "ताँबे" का "दाम", "चाँदी" का "रुपया", "सोने" की "मोहर" गढ़वाकर मुद्रा को नई पहचान देने वाले शेरशाह सूरी ने शाहराह-ए-आजम की तामीर करवाई, जो आज ग्रैंड ट्रंक रोड के नाम से जानी जाती है। हिन्द के विकास की दिशा में उठाया गया यह एक सुदृढ़ क़दम था।

कृति में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ कल्पनाओं का समावेश इतनी ख़ूबी के साथ किया गया है कि कल्पनायें सत्य के रूप में उद्भासित होती है और ऐतिहासिक तथ्यों के साथ दूध में मिसरी की भाँति घुल-मिल गयी हैं।

लेखक ने शाने तारीख़ के चारित्रिक गुणों का उद्घाटन करते समय उसके रीति-नीति दृष्टिकोण, जीवन संघर्ष, विचार धारा, समदर्शी उदात्तता को पीढ़ी दर पीढ़ी से परिचित कराने के गुरुतर दायित्व का सफल निर्वाह ही नहीं किया है, उसके चरित्र के कमज़ोर को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल मानकर अपने भाई निज़ाम खाँ के समक्ष यह स्वीकार किया- "मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई मेरे भाई। अब हिन्द की रियाया मुझ पर हरगिज़ यक़ीन न करेगी।" परन्तु बादशाह होने के कारण वह इस ग़लती को सरेआम क़ुबूल न कर सका। अपनी इस भूल की सज़ा उसे कलिंजर के युद्ध में अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी। वहाँ के नरेश कीरत सिंह ने उन पर विश्वास न किया और किला तोड़ने की जुगत में स्वतः हुए विस्फोट में उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

अपने समय की समझ सबको नहीं होती है और कर्मठ जन ही समकाल में जी पाते हैं। जीने के लिए सूझ-बूझ और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत उपन्यास वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को विपरीत परिस्थितियों में भी चुनौतियों का सामना करते हुए सफल होने की प्रेरणा देता है।

भारतीय चेतना एवं वैचारिकता के वर्तमान संघर्ष की गंभीरता को लेखक ने स्थान-स्थान पर चित्रित कर कृति को सम-सामयिक बना दिया है। शेरशाह के शासन प्रबन्ध में हमें प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण के बीज मिलते हैं। किसानों के प्रति उसके मन में श्रद्धा के भाव थे। अपने जीवन के सफर में आने वाली दुश्वारियों को उसने शिद्दत से महसूस किया था इसलिए उसने आम राहगीरों के लिए जगह-जगह सरायों, कुओं का निर्माण कराया। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाये। उसके द्वारा कराये गये कार्य एवं विचार आज भी देश के सरपरस्तों के लिए प्रेरणाप्रद हैं। जल संरक्षण के लिए तालाबों की उपयोगिता के विषय में वह कहता है- "तालाब फालतू पानी निकासी के लिए भी ज़रूरी हैं और बरसाती पानी को सोखने के लिए भी। मछली पालने और सिंघाड़ा लगाने, मवेशियों की पानी के ज़रूरतों को पूरा करने और कई तरह से तालाब फायदेमंद होते हैं।" शाने-तारीख़ का यह कथन तालाब को पाटकर प्लाटिंग करने वाले सियासी खिलाड़ियों के लिए एक सबक है।

उपन्यास को पढ़ते समय पाठकों को यह आभास होता है कि उपन्यास का नायक लेखक के भीतर ही कहीं साकार सा हो उठा है। पात्रों के मनोनुकूल संवाद-योजना के सहारे कथा रोचक ढंग से आगे बढ़ती है। लेखक ने वातावरण घटनाओं के वर्णन एवं भावों के उद्घाटन में जो कलात्मक कौशल दिखाया है वह इस कृति को औपन्यासिक तत्वों के साथ ही नाट्य तत्वों से भी पूर्ण करती है और पाठक को दृश्य विधा सा आनंद प्राप्त होता है। वर्णनात्मक शैली में लिखे गये प्रस्तुत उपन्यास में तत्कालीन समय की नब्ज़ पकड़कर लेखक ने प्रचलित अरबी, फ़ारसी, उर्दू, के शब्दों से युक्त भाषा का प्रयोगकर संवेदनाओं और भावों को संप्रेषणीय बना दिया है।

किसी सार्थक कृति की रचना के लिए विषयवस्तु का प्रामाणिक अध्ययन ही प्राप्त नहीं होता है वरन् उससे भी अधिक विषयवस्तु के प्रति कृति की भाव प्रवणता एवं एकाग्रता वांछित होती है। यह औपन्यासिक कृति निश्चित रूप से उपन्यासकार की दीर्घकालीन गहन अध्ययन एवं निरीक्षण की फलश्रुति है। मानव मूल्यों से परिपूर्ण कृति साहित्यप्रेमियों के मध्य अद्वितीय रूप से समादृत होगी।

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