इश्क़ का रंग

01-09-2021

इश्क़ का रंग

कविता झा (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मुसाफ़िर सा दर-बदर
तन्हा भटकता दिल मेरा
थम गया, जो तू मिला
सुकून सा था ढूँढ़ रहा
तेरे आग़ोश से यूँ लिपटा
जैसे तुझ में ही गुम हुआ
मेहरबान जो तुम हुए
गुमसुम दिल बहल गया
ग़मों में खोए ख़्वाब
जी उठे, मचल गए
उन्स में तेरे आने से
महक उठी साँसें मेरी
रूह को चैन मिला
धुआँ धुआँ ख़्वाब मेरे
पलकों पर थे सज रहे
जगा कर उन ख़्वाबों को
तसल्ली से तुम सेंक रहे
हर मुराद पूरी हुई
दस्तक जो रूह पे तूने दिया
दिल के शहरयार बन गए
साँसों पे हुक्म तेरा चला
इश्क़ मेरा रवाँ रवाँ
बेशुमार बह निकला
शम्स सा हर तरफ़ पसरा
दबे दबे एहसास मेरे
तेरे छूअन से जी उठे
तलब यूँ बहका गए
भटक रहा रूह मेरा
तुम साहिल बन गए
पहले सा ना रहा कुछ भी
ना अब मैं मैं ही रही
ना बेचैनी, ना तन्हाई
लगूँ मैं ख़ुद को ही अजनबी
तेरे कुर्बत में जो हूँ
नसीब पे अपने यक़ीन नहीं
फ़रमान हुआ तेरा जो
अश्क बन ढल गया
ख़ामोश आँखों से बह गया
ये दर्द नहीं, इश्क़ का रंग चढ़ा
इश्क़ का रंग मुझपे चढ़ गया।

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