इस महामारी में

15-05-2021

इस महामारी में

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

इस महामारी में
घर की चार दिवारी में क़ैद होकर
जीने की अदम्य लालसा के साथ
मैं अभी तक ज़िंदा हूँ 
और देख रहा हूँ
मौत के आँकड़ों का सच 
सबसे तेज़
सबसे पहले की गारंटी के साथ।
 
इस महामारी में
व्यवस्था का रंग 
एकदम कच्चा निकला 
प्रशासनिक वादों के फंदे से
रोज़ ही 
हज़ारों क़त्ल हो रहे हैं।
 
इस महामारी में
मृत्यु का सपना 
धड़कनों को बढ़ा देता है
जलती चिताओं के दृश्य
डर को 
और गाढ़ा कर देता है।
 
इस महामारी में
हवाओं में घुला हुआ उदासी का रंग
कितना कचोटता है?
संवेदनाओं की सिमटती परिधि में
ऑक्सीजन / दवाइयों की कमी से
हम सब पर
अतिरिक्त दबाव है।
 
इस महामारी में
सिकुड़े और उखड़े हुए लोग 
गहरी, गंभीर शिकायतों के साथ
क़तार में खड़े हैं
बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, अस्पताल से लेकर
श्मशान घाट तक।
 
इस महामारी में
हम सब एक-साथ अकेले हैं
होने न होने के बीच में
साँसों का गणित सीख रहे हैं
इधर वो रोज़ फ़ोन कर पूछती है
कैसे हो?
जिसका मतलब होता है
ज़िंदा हो न?

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