इंतज़ार

08-01-2019

इंतज़ार

प्रमोद यादव

मैडम को देखते ही न जाने क्यों ऐसा लगा कि शायद पहले भी कभी इस ख़ूबसूरत चेहरे को कहीं देखा है। उन्हें नमस्ते की तो उन्होंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर अभिवादन का जवाब दिया फिर रिया की फ़ाईल देखते बोलीं, “महाराष्ट्र के किस शहर से बिलोंग करते हैं आप?”

“जी.. नागपुर से.. मेरी बिटिया नागपुर यूनिवर्सिटी से एम.एससी.कर रही है। इनके सर ने प्रोजेक्ट के लिए आपके यहाँ का एड्रेस दिया है– चंडीगढ़ का। शायद चार महीने लगेंगे यहाँ.. क्या आसपास बोर्डिंग की कोई व्यवस्था है मैडम?" मैंने जवाब के साथ सवाल भी किया।

“हाँ.. उसकी चिंता न करें। एकदम पास ही एक बिल्डिंग है। वहाँ बतौर पेईंग गेस्ट रहना होगा.. बहुत सारी लड़कियाँ रहती हैं वहाँ.. किसी को आपके साथ भेज दूँगी। वैसे नागपुर के किस इलाक़े से हैं आप?"

“जी.. गोकुल पेठ से।”

"गोकुल पेठ?" वह एकदम से चौंकते हुए बोली।

"आप जानती हैं मैडम?" मैंने धीरे से पूछा।

"हाँ.… लगभग बीस-बाईस साल पहले नागपुर में चार-पाँच महीने रही थी। अपने बड़े पापा के पास अभ्यंकर नगर में रहती थी पर नागपुर के पुराने इलाक़ों में भी अक्सर आना–जाना होता था। कभी बर्डी तो कभी गोकुल पेठ.. कभी रामदास पेठ तो कभी तिलक नगर। गोकुल पेठ तो प्रायः जाती ही थी।"

"क्या कोई रिश्तेदार रहता था वहाँ?"

"रिश्तेदार तो नहीं.. पर कुछ फ्रेंड्स थे.. इसलिए।"

"मुझे तो आपको देखते ही लगा था कि कहीं देखा है। इन बीस-बाईस सालों में आप ज़्यादा कुछ नहीं बदली.. अब याद आ गया कि कहाँ और किसके साथ देखा। जब भी आपको देखा, बाईक पर ही देखा है।" कहना भर था कि उसके चहरे पर एक विचित्र भाव तैरने लगा। वह अकचका सी गई और तुरंत ही बात को बदलते हुए बोली, “चलिए.. बातें तो होती ही रहेंगी.. पहले यहाँ फ़ीस जमा कर रिया को सेटल कर आईये। वैसे अभी तो आप यहाँ रुकेंगे न?"

“बस.. कल भर ही मैम.. परसों निकल जाऊँगा। रिया के रहने-खाने का सेट हो जाए तो काम ख़त्म।"

"ठीक है जोशीजी.. ये मेरा कार्ड रखिये। आज रात का डिनर मेरे घर रहेगा, रिया आना चाहे तो उसे भी ले आईयेगा.. मैं आपका इन्तजार करूँगी।"

उसने “रिया आना चाहे तो..” वाले वाक्य को कुछ इस अंदाज़ में बोला कि मैं समझ गया।

टैक्सी वाले ने सेक्टर-22 के पते पर उतारा तो सामने एक छोटे से सुन्दर कॉटेज के बाहर बने हरे-भरे लान पर वह पीले रंग का गाऊन पहने टहल रही थी। शायद मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। देखते ही गर्मजोशी के साथ वह लपकी और स्वागत करती बोली, “रिया नहीं आई?”

“आपने तो उसके बग़ैर आने को कहा था मैडम। अब इस उम्र में भी इतना न समझ सकूँ तो लानत है ऐसी उम्र को.. चलिए छोड़िये इन बातों को। आप बताइये और कौन-कौन है आपके घर में?” मैंने कॉटेज में घुसते हुए पूछा।

“कोई भी नहीं.. अकेली रहती हूँ.. बस.. एक लेडी सर्वेन्ट है जो सुबह-शाम, नाश्ता-खाना आदि बना देती है.. कपड़े धो देती है.. घर की साफ़–सफाई कर देती है.. और रात नौ बजे अपने घर चली जाती है। आईये.. डायनिंग टेबल पर बैठते हैं.. खाना लगा हुआ है।”

शुद्ध पंजाबी खाने की ख़ुशबू से महक रहा था डायनिंग हाल। एक तंदूरी रोटी उठा राजमाँ की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि वह बोली, “हाँ.. जोशीजी.. आपने किसके साथ मुझे देखा था।”

“शायद रजत के साथ.. ग़लत भी हो सकता हूँ," मैंने आहिस्ता से कहा।

“नहीं.. बिलकुल ग़लत नहीं। लेकिन आप उसे कैसे जानते हैं?” वह पूछ बैठी।

“अरे.. अपने लंगोटिया यार को मैं नहीं जानूँगा तो भला और कौन जानेगा? वो.. मेरे साथ पढ़ा-लिखा.. खेला-कूदा..। हम दो जिस्म एक जान थे। हममें इतनी अंतरंगता थी कि एक दूसरे के सारे राज़ जानते थे। हमारे बीच कोई दुराव-छिपाव न था।”

“लेकिन उसने तो कभी मुझसे आपके बारे में कुछ नहीं बताया,” वह हैरत से बोली।

“हाँ.. और उसने भी कभी मुझे आपके बारे में नहीं बताया। इस बात का तो मुझे भी आश्चर्य हुआ, वैसे जिन दिनों आप उसके साथ थीं, मैं शहर से बाहर था। लेकिन कभी–कभार, एकाध दिन के लिए आता तो उसे आपके साथ इधर-उधर सरपट बाईक में भागते-दौड़ते देखता, सोचता कि इस बारे में पूछूँगा; किन्तु कभी वह पकड़ा ही नहीं गया।"

“हाँ.. उसे पकड़ना आसान न था। वह बहुत तेज़ भागता था, और एक दिन मेरी ज़िंदगी से वह ऐसे भागा कि बस.. उसे ढूँढ़ती रह गई। एकाएक ही लापता हो गया। तीन महीने का ही उसका साथ था.. और इस तीन महीनों में मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं कि कौन है उसके परिवार में? कौन उसके दोस्त हैं? और कहाँ रहता है वो? बस हर दिन वह गोकुल पेठ में लक्ष्मी बाई गर्ल्स हाईस्कूल के पास बाईक लिए मिलता और मैं उसके साथ हो एक नई दुनिया में खो जाती। मैं तो सीधे-सीधे उसे शादी के लिए कहती थी, लेकिन हर बार उसका जवाब होता. “एक प्रॉब्लम है.. वो सॉल्व हो जाए तो देखेंगे।” कभी नहीं बताया कि आख़िर प्रॉब्लम क्या है? और एक दिन मेरी ज़िंदगी में प्रॉब्लम खड़ी कर वह ग़ायब हो गया। मेरे पापा ने इस बीच मेरी शादी कर दी। पर शायद मेरे जीवन में सूनापन ही लिखा था कि शादी के दो महीने बाद ही एक एक्सीडेंट में वो मारे गए और मैं फिर तनहा हो गई। वैसे शादी करके भी तनहा ही थी। रजत को भुलाए न भूल पा रही थी। लेकिन मेरे जीवन की ये अबूझ पहेली आज भी अबूझ है कि एकाएक वो बेईमान आख़िर मुझे छोड़ चला कहाँ गया?” एक साँस में वह वेदना और ग़ुस्से के मिले-जुले स्वरों में बोल गई।

“क्या आप सचमुच नहीं जानती कि वो कहाँ गया?” मैंने संजीदगी से पूछा।

“अरे हाँ भई.. झूठ क्यों बोलूँगी? क्या आपको पता है वो कहाँ है?” उसने उलटे मुझे ही प्रश्न किया।

“हाँ.. बिलकुल पता है.. लंगोटिए यार को पता नहीं होगा तो और किसे होगा? अब वो यहाँ रहता है..,” मैंने अपनी दाईं हथेली अपने दिल पर रखते हुए कहा।

“नहीं..,” वो चीख सी पड़ी, “ये क्या कह रहे हैं आप?”

“ठीक कह रहा हूँ मैडम.. वह कहीं लापता नहीं हुआ था। एकाएक उसे आनन-फानन में मुंबई के के.ई.एम. हॉस्पिटल में दाखिल करना पड़ा था। वह ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहा था। डॉक्टरों ने तो ऐलान कर दिया था कि केवल एक-डेढ़ महीने का मेहमान है। उसके दिल के दो वाल्व पूरी तरह डैमेज हो चुके थे और तीसरे पर भी असर होने लगा था। परिवार वाले भला उसे इस तरह आँखों के सामने मरते कैसे देखते? सबने एड़ी-चोटी की ज़ोर लगा ढेर सारे रुपये इकट्ठे किये और अमेरिका से दो आर्टिफिशियल वाल्व मँगाकर ऑपरेट करवाने की सोचने लगे। मुंबई के डॉक्टर तो तैयार थे पर उसके शरीर में ऑपरेशन के लायक़ ख़ून भी न था। उन्हें डर था कि स्वस्थ होने तक वह जियेगा भी या नहीं। चार दोस्तों ने वहाँ भर्ती होते ही ख़ून दिया। इलाज शुरू हुआ। उसकी एक बहन जो दशकों पहले इंटरकास्ट मैरिज करने के कारण घर से हमेशा के लिए कट गई थीं, वहीं मुंबई में रहती थी। उसने उसकी खूब सेवा-सुश्रुषा की.. और धीरे-धीरे उसके स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा। एक महीने में वह इस लायक़ हो गया कि ऑपरेशन किया जा सके।”

“फिर क्या हुआ?”

“जैसे-जैसे वह स्वस्थ होता गया, उसका आत्म-विश्वास लौटता गया। वह मुझे चिट्ठियाँ भी भेजा करता। पहले की चिट्ठियों में अक्सर वह नहीं बच पाने का ही ज़िक्र करता.. निराशा और दुःख-विषाद से सराबोर रहता था उसका पत्र। फिर कुछ दिनों बाद उसने कुछ ख़त जीने की ललक लिए लिखे.. कहता, लगता है, अब मैं बच जाऊँगा यार.. दो-तीन दिन के भीतर ही अमेरिका से वाल्व आने वाला है.. फिर जल्द ही ऑपरेशन होगा। कुछ ही दिनों के बाद मैं तुम सबके बीच रहूँगा।”

“क्या उसने कभी मेरा ज़िक्र नहीं किया?” अचानक वह पूछ बैठी।

“नहीं.. बिलकुल ही नहीं। मैं ज़रूर पूछना चाहता था तुम्हारे विषय में। पर इस डर से नहीं पूछा कि चिट्ठी वहाँ कोई और न पढ़ ले.. और फिर कुछ निश्चिन्त भी हो गया था कि अब तो यार लौटेगा ही, तभी पूछ लेंगे।”

“फिर?” वह थरथराते शब्दों से बोली।

“अमेरिका से दो वाल्व आ चुके थे.. ऑपरेट करने का दिन भी तय हो गया था। सोमवार को होना था कि रविवार को एकाएक सब कुछ गड़बड़ हो गया। नर्सिंग स्टाफ़ ने बताया कि अचानक ही वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा कि उसे तुरंत कॉपी-क़लम दी जाए.. वह कुछ लिखना चाहता है। और पागलों की तरह वह अपने बदन में लगे तारों को नोचने-खसोटने लगा। नर्स इधर-उधर दौड़ने लगी.. उसे मना करने लगी पर उसे तो जैसे पागलपन का भूत सवार था। वह शरीर में लगे सब तारों को फेंकने लगा। इसी बीच इत्तेफ़ाक से उसकी बहन आ गई जो उस दिन उसके लिए उसकी फ़रमाईश का स्पेशल खाना लेकर आई थी। यह दृश्य देख वह भी घबरा गई। समझ ही नहीं आया कि क्या करे क्या न करे? कोई डॉक्टर भी मौजूद नहीं था। बहन को देखते ही वह कुछ बोलने को हुआ और मुँह खोला ही था कि ज़ोरों की ख़ून की उलटी हो गई। पूरा केबिन गहरे लाल रंग से सन गया। ख़ून के छींटों से दीवाल तक रंग गए.. और वह कुछ ही सेकंडों में हमेशा-हमेशा के लिए शांत और स्थिर हो गया।”

मैडम सुबकने लगी थी। उसकी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। वह बुदबुदा रही थी, “माफ़ करना रजत.. तुम्हारी प्रॉब्लम को समझना दो दूर, उल्टे तुम्हें बेईमान, धोखेबाज़, दग़ाबाज़ और बेवफ़ा समझ हर पल तुम्हे कोसती और गाली देती रही। प्लीज़.. मुझे माफ़ कर दो।”

“मैडम.. अपने आपको सम्हालिए! मेरे कारण नाहक़ ही आपको दुःख पहुँचा है। माफ़ी चाहता हूँ।”

“नहीं.. जोशी जी.. आपने तो मेरे भीतर की हलचल को हमेशा के लिए शांत कर दिया है। अब चैन से रहूँगी। अब किसी का मुझे इन्तज़ार नहीं रहेगा.. इन्तज़ार रहेगा तो सिर्फ़ मौत का।” इतना कहते वह फफक पड़ी।

बड़ी मुश्किल से उसने मुझे विदा दी.. उसकी इच्छा थी कि रात वहीं ठहर जाऊँ। पर मुझे मालूम था.. यह न उसके हित में ठीक होगा न मेरे हित में। पुराने दिनों को याद कर मेरा मन भी भारी हो चला था। मैं टैक्सी पकड़ रिया के पास लौट आया। उस रात नींद ही नहीं आई।

नागपुर आये तीन-चार दिन ही हुए थे कि एक दिन अचानक दोपहर को रिया का फोन आया, “पापा.. मैं अपनी सहेली के साथ नागपुर लौट रही हूँ। तीन-चार दिनों के लिए इंस्टीट्यूट बंद है। हमारी मैम का अचानक निधन हो गया इसलिए।”

“क्या..?” एकबारगी मैं चौंक गया, पूछा, “कैसे हुआ? कब हुआ?”

“कैसे हुआ ये तो पता नहीं.. बताते हैं कि सोये-सोये नींद में ही चल बसीं। पी.एम. रिपोर्ट में साधारण मौत बताया गया है।”

“रिया.. कब हुआ ये हादसा?” मैंने जिज्ञासा से पूछा।

“जी पापा.. सात नवम्बर मंगलवार की सुबह।”

रिया के “सात नवम्बर मंगलवार” कहते ही मुझे रजत का ख़्याल आ गया.. वो भी तो इसी दिन और इसी तारीख़ को गुज़रा था। सात नवम्बर मंगलवार को...।

“उफ़्फ़,” मेरे मुँह से निकला।

"क्या हुआ पापा..?" रिया उधर से पूछने लगी।

"कुछ नहीं बेटा..कुछ नहीं.. सुबह तुम्हें लेने आऊँगा..फोन करना।" और मैंने फोन काट दिया।

फोन काटने के बाद भी रिया के शब्द कानों में गूँज रहे थे.. "सात नवम्बर मंगलवार..”

मुझे लगा कि उस दिन उसके पास रुक जाता तो शायद वह बच जाती। एक अपराध-बोध मुझ पर हावी होने लगा। मैंने आँखें भींच ली... बंद आँखों में भी कभी मैडम दिखती तो कभी रजत।

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