इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी

01-07-2021

इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी

अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’ (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

फ़ाइलुन   फ़अल   फ़ाइलुन   फ़ाईलुन मुफ़ाइलुन फ़ा
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इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी।
आज जा के देखा मुहब्बत कितनी बची हुई थी।।
 
आपसे जहाँ बात फिर मिलने की कभी हुई थी,
आज मैं देखा गर्द उन वादों पर जमी हुई थी।
 
लग रही थी हर रहगुज़र वीराँ हम जहाँ मिले थे,
सिर्फ़ ख़ूब-रू एक याद-ए-माज़ी सजी हुई थी।
 
सोचता हूँ तक़दीर कितनी थी मेहरबान हम पर,
क्यूँ मगर ये तक़दीर अपनी उस दिन क़सी हुई थी।
 
आपको भी आ कर ज़रूरी था एक बार मिलना,
चौक पर वही चाय मन-भावन भी बनी हुई थी। 

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