होली खेलो बरजोरी

03-05-2012

लखनऊ में ‘बेलीगारद’ के पीछे खेत होते थे। सरकार ने कुछ मैदान ले कर, उस पर एक कालोनी बनाई थी। सरकारी अफ़सरों के लिये और उधर गोमती नदी भी बहती थी, सो उस कालोनी का नाम पड़ गया “रिवर बैंक कालोनी”।

खेती बाड़ी वाले परिवारों ने बीच का स्थान नहीं छोड़ा। वे वहीं बने रहे और वो लोग बसंत पँचमी से लेकर भाई-दूज तक होली का मौसम बनाये रखते थे। वे लोग रात को सब घर के काम-काज से निपट कर “आल्हाएँ गाया करते थे, जो इतना सुन्दर होता कि बालपन से मन पर अमिट छाप है। ढोल, मँजीरे, ढपली और न जाने कौन कौनसे वाद्ययंत्र वे प्रयोग करते कि उत्साहा से भरपूर वातावरण हो जाता। रात के दस बजे तक दूर दूर तक सुनाई पड़ता था।

उन दिनों होली का रंग कुछ ऐसा होता कि हर व्यक्ति लहरा उठता। बालक, बालिकायें होने के कारण हम लोगों की अलग ही गोष्ठियाँ होतीं। शाम के चार से छ: बजे तक सभी बच्चे,पीछे के एक पार्क जो कि हराभरा और फूलों की क्यारियों से जड़ा था, हम सभी वहीं होते। वहीं बैठ कर हम अपनी पूरी योजना बनाते, योजना तो होती केवल दो दिन की पर बनाने के उत्साह की ना पूछो। कहाँ होली जलानी है, ये तो बसंत पँचमी के दिन ही वो भटकटइया के पेड़ की डाल गाड़ देने से ही मालूम पड़ जाता था, पर चंदा जमा करना, लकड़ी का इंतज़ाम करना, रंग लाने, कौन कौन सा रंग लायेगा? कौन से रंग देर तक रगड़ने से छूटता है, अबीर किस तरह का होगा, गुलाल कौन कौन सी जेबों में कैसे सम्हाल कर रखेंगे कि गीले ना हो जाए, बचे रहे आदि अनेक समस्याएँ होतीं जो हम सभी लड़के-लड़कियाँ सुलझाते।

एक दो लोग ये पता करने में लगाये जाते कि कितने बजे होली जलनी है, क्योंकि उन दिनों होलिका दहन का महूर्त होता था। यदि रात के दो बजे का हो या चार बजे का, लोग उसी के अनुसार पूजने को पहुँचते, फिर तो रात भर नींद ही नहीं आती। टेलीफोन तो तब थे नहीं, उठ-उठ कर यही देखते कि मित्रों के घर की लाइट तो नहीं जल गई? कालोनी के माली व चौकीदार होली जलाते थे, जलाने का समय होत तो वो लोग ढोल घंटा लेकर होलिका के पास एकiत्रत हो जाते और होलिका गाने लगते थे।

हम छोटे बच्चों की तैयारी ये होती कि छोटी होली के दिन से ही रंग पड़ने की सम्भावना से होली खेलने के लायक कपड़े पहन लेते थे। उत्साह दो दिन तक रहता था। समय भागता था, बड़े यदि किसी कारण देर करते तो हम लोग बेचैन हो कर घर से बाहर निकल पड़ते थे।

पूजन की थाली लेकर तब तो माँ ही आतीं या पिता जी, हरी हरी गेहूँ की बालियाँ,चावल, हल्दी, नारियल, फूल, जल, कुछ दाल के दाने और साथ में गुलाल अबीर तो अवश्य ही होता था। होली जलने पर सभी उसकी परिक्रमा करते। बड़ा सुन्दर दृश्य होता, बड़े बच्चे आगे पीछे परिक्रमा करते चावल रंग आग में डालते, नारियल फोड़ते, सबको बाँटते, गले मिते। वहीं उसी समय मित्रों की टोलियाँ सी निर्धारित हो जातीं, तब कहा करते थे कि पुराना बैर भी हो तो होली के दिन गले मिलकर, गिले-शिकवे मिटा कर रंग में डूब जाते थे।

बड़ा मज़ा आता पुराने जूत व फटे कपड़े पहन कर राजसी सा लगता, शान से कहते कि भई हम तो हो गए तैयार। कभी-कभी समस्या आती कि भइ रंगीन कपड़े ही पहनने पड़ेंगे। कोई ये बात पसन्द नहीं करता। इन्तज़ाम होने तक हृदय तेजी से धड़कता रहता, इस पर माँ डाँट भी देतीं। उनका अब सोचती हूँ, हम छ: भाई-बहन थे, कहाँ तक इन्तज़ाम करती रही होंगी वो बेचारी?पूरी तरह गर्मी तो होती नहीं थी। एक दो तहें कपड़ों की पहननी पड़ती थीं।

चलो होली जल गई, सुबह बहुत सुबह माँ किसी बड़े के साथ या चपरासी के साथ भेजती कि होलिका से कुछ आग ले आओ, कहती पवित्र अग्नि है, ले आओ तो घर में चूल्हा जलेगा। माँ बताती थी कि पहले के लोग आग जो होली से लाते उसे बुझने नहीं देते थे। रोज़ उसी से नई आग शुरु की जाती थी।

सप्ताह भर से सभी के घरों में मीठे, नमकीन पकवान बनने शुरु हो जाते। पन्सारी के यहाँ लोगों की भीड़ रहती। चिरौजी, किशमिश लेने के लिये तो कभी कभी हम लोग भी दौड़ाये गये, क्योंकि अकस्मात उनकी मात्र कम पड़ जाती। गुझियाँ बनानी होती, च्योड़ा बनता, नमकीन मीठे शक्कर पारे बनते। पूरा बरामदा काम-काज का घर बन जाता। छह बच्चों का घर, फिर आने जाने वाले मित्रों का ध्यान रख कर कुछ चीजें तो कनस्तरों में जमाई जातीं। इतना सब इसलिये कि दस दिनों तक लोग आए-जायेंगे। होली के दिन ही कितने लोग आयेंगे, कुछ पता थोड़े होता है!

नमक पार, शक्कर पारे, कचौड़ी, समोसे, गुझियाँ, च्यौड़ा, बर्फ़ी, भुनी दालें व न जाने क्या क्या? हम लोगों का तो मन होता सब कुछ अभी ही मिल जाये खाने को, लेकिन माँ प्यार से बरक देतीं- “हटो अभी गरम है, पूरा बना नहीं है।“ - आदि झिड़कियाँ। हम लोग खेलते, कूदते, चारों ओर चक्कर लगाते- देखते क्या क्या बना है, कितना बन गया है। चखने के बहाने माँगते व भाग जाते। माँ शायद भोग न लगे होने के कारण ही नहीं देतीं होगी।

होली के दिन नाश्ते की तो छोड़ो, माँ रसोइये के साथ मिल कर सुबह से उड़द की दाल भरी कचौड़ियाँ, दही बड़े व कई प्रकार की सब्जियाँ बनाती। चटनियाँ तो वो सिलबट्टे पर ही पिसवातीं। उनके स्वाद की कौन कहे! जिसने खाई वही जाने!!

घर में आँगन में या बाहर बगीचे में जिसके यहाँ जैसा प्रवेश होता टेबल सजा दी जाती। ऊपर सफेद चादर डाल देते थे, सब व्यंजन करीने से सजे होते थे। जब लोग आते, रंग बड़ी बाल्टियों में भरा रखा होता, पास की छोटी मेज़ पर सूखा रंग, अबीर गुलाल थालियों में सजे होते। घर बाहर के लोग रंग खेलते, गले मिलते, मुँह मीठा करते। यदि बैठने की या गोष्ठी की इच्छा होती तो पास ही बेंत कुर्सियाँ लगी होतीं। सब लोग बैठ जाते.. हँसी ठहाकों की फुहार चल पड़ती।

बच्चे तो तब खूब खाते थे। उनकी दुनिया तो रंग व खाने के बीच दौड़ रही होती। घर दौड़ कर माँ को दिखा आते कि ये देखो किसने कितना रंग डाला है। कभी कभी बहुत भीगे होने के कारण कंपकंपी आ जाती तो धूप के किसी कोने में खड़े होकर सहेलियों के साथ अपने कपड़े कुछ सुखाने की कोशिश करते।

जो रंग सुबह छह बजे से खेलना शुरू किया था, अब सब थकने लगे थे। माँ भागता देखतीं तो आवाज़ देती कि चलो थक गये हो, नहा डालो। हम लोग अपने आनन्द को ख़त्म नहीं करना चाहते थे। दूर निकल जाते। रंग खेलने के लिये मित्र होना आवश्यक नहीं था ना। जो मिल जाता बस रंग डाल देते।

कुछ लोग कार में बैठ कर दूर से भी खेलने आते, फिर भोजन आदि चलता। यहाँ ये बताते चलें कि हमने अपना बचपन एक ही घर में बिताया, बेलीगारद के पीछे। जिसे रजि़डैन्सी भी कहते हैं।

बड़े लोगों के लिये भाँग की बर्फ़ी तथा ठंडाई का भी प्रबन्ध होता। जीजा साली, सलहजों,देवरों को इस दिन इन चीजों का सेवन विशेष तौर पर कराते थे। ठंडाई को रात में भिगो दिया जाता था और सुबह खूब मेहनत से पिसाई होती। उजले कपड़ों में अँकल-आँटियाँ बड़े शान के वातावरण में होली खेलते। घर में माँ रात में बड़े बर्तन में टेसू के फूल उबालने रख देती जो सुबह तैयार हो जाते। उस पानी में वो पीला रंग व सुगंध इतनी सुन्दर होती कि आज तक वैसा पीला रंग हमने तो देखा नहीं। लोगों का कहना था कि लखनऊ की होली बड़ी अच्छी खेली जाती है। दोपहर दो बजे तक सब बारी बारी नहाते। बच्चों को तो बाहर आँगन में ही नहाने का आदेश हो जाता। बड़े लोग ग़uसलखाने में बारी लगाते। फिर अच्छे कपड़े पहनते। लोग नहा कर अधिकतर नये कपड़े ही पहनते। रंग की थकान से कुछ लोग गहरी नींद सो जाते तो कुछ लोग मिलने जुलने का कार्यक्रम शुरु करते। भाँग खाये लोगों पर शाम को हँसी चलती, व्यंग्य होता मधुर मधुर।

आज भी बहुत सी स्मृतियाँ हैं। सारी एक लेख में समा नहीं सकतीं। यादों का एक सागर सा है। स्मृतियों के बीज हैं। मोती बन के पड़े हैं कम से बाहर आयेंगे।

पाठकों को हाiर्दक बधाई होली की। नव-वर्ष की, नव-लता, पiत्रका पुष्प नहा कर आ गए। मन भी धुल गया, तन भी धुल गया, नये रंग चढ़ गये हैं तन मन पर। सब मिल के कहो--

होली है! होली है!! होली है!!!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
स्मृति लेख
कविता - हाइकु
कहानी
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में