हिन्दी लेखनः कुछ सुझाव

05-10-2017

हिन्दी लेखनः कुछ सुझाव

विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’

(1960-63)

 

एक दिन मेरे एक तमिल-भाषी मित्र कहने लगे - "भाई, आपकी हिन्दी का अजीब हाल है। इसे बोलना जितना सरल है, लिखना उतना ही कठिन है।" मैं तनिक चकराया, बोला - "क्या कहते हैं आप? देवनागरी तो संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपियों में से एक है। इसमें जो-कुछ बोला जाता है, वही लिखा भी जाता है।"

वे बोले - "सो तो ठीक है, लेकिन कोई नियम-वियम नहीं है आपके यहाँ। पूरी मनमानी है - कभी इस डाल पर, तो कभी उस डाल पर। जो नया-नया पेड़ पर चढ़ना सीखे, उसका तो, बस, राम ही मालिक है!

मैंने स्थिति स्पष्ट करने का अनुरोध किया, तो वे बोले - "मेरे पहले शिक्षक ने मुझे बताया था कि भूतकाल के एकवचन पुल्लिंग में यदि किसी क्रिया का अन्तिम अक्षर ’या’ हो, तो उसका बहुवचन-रूप ’ये’, स्त्रीलिंग-रूप ’यी’ और बहुवचन स्त्रीलिंग-रूप ’यीं’ होगा। इसी तरह, ’आ’ का ’ए’, ’ई’ और ’ईं’ हो जाएगा। लेकिन मेरे नये शिक्षक ने इसे ग़लत बताया और कहा कि उच्चारण स्वर-ध्वनियों का ही होता है, इसलिए हर जगह ’ए’, ’ई’ और ’ईं’ का ही प्रयोग होना चाहिए। मैंने उनकी बात मान ली। पर आज जब मैंने ’दायित्व’ को य ह्रस्व इकार के स्थान पर केवल ह्रस्व इ (दाइत्व) से लिखा, तो उन्होंने काट दिया। मैंने कारण पूछा, तो बोले कि "कारण-वारण कुछ नहीं, इसे ऐसे ही लिखना चाहिए।" भला बताइए, यह भी कोई बात हुई? जहाँ जो मन में आया, लिख दिया? ... ऐसे एक-दो नहीं, अनेक पचड़े हैं। सो, मैं तो सोचता हूँ कि हिन्दी सीखना ही छोड़ दूँ।"

अपने उन मित्र महोदय को तो मैंने समझा-बुझा कर हिन्दी सीखते रहने पर राज़ी कर लिया, पर सोचता हूँ कि हिन्दी-लेखन में आज जो अराजकता की स्थिति विद्यमान है, वह क्या इसी तरह चलती रहेगी? फिर, इस अराजकता अथवा मनमानी से कुछ लाभ भी है? मिथ्या अभिमान के पीछे हम हिन्दी का अहित तो नहीं कर रहे? डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा का मत है - "अभी चालू शब्दों के सम्बन्ध में जो मतैक्य नहीं है, वह भाषा के लिए कभी हितकर नहीं कहा जा सकता।" डॉक्टर सुनीति कुमार चाटुर्ज्या भी कहते हैं - "यह सर्वथा वांछनीय है कि भाषा के शब्दों की एकमतता के सम्बन्ध में विभ्रान्ति न फैले।" तब, हमारी यह मनमानी कहाँ तक उचित है?

यों, ’मनमानी’ शब्द चौंकानेवाला है - इस पर कुछ विद्वज्जनों को आपत्ति भी हो सकती है; पर इससे बचने का कोई उपाय नहीं है। ऊपर के ही उदाहरण को लें, तो क्या स्वर और व्यंजन-ध्वनियों के उच्चारण पर आधारित तर्क व्यर्थ नहीं हो जाता? यदि हम ध्वनि का सहारा लेकर एक सीधे-सादे नियम को तोड़ना ही चाहते हैं, तो ’अनुयाई’, ’धराशाई’, ’सामइक’, ’स्थाइत्व’, ’बाजपेई’, ’जन्ता’, ’मन्मानी’, ’मर्ता’ आदि को क्यों नहीं स्वीकार कर सकते? और, यदि इन शब्दों के ये रूप हमें स्वीकार नहीं हैं, तो क्रिया-पद-सम्बन्धी उस साधारण-से नियम को तोड़ कर जटिलता बढ़ाने से क्या लाभ? धाई-धायी, छाई-छायी, लाई-लायी, पाई-पायी, खाई-खायी, ढाई-ढायी, भाई-भायी, लिए-लिये, आदि शब्दों के बीच के स्पष्ट अन्तर को भ्रमात्मक स्वरूप क्यों दिया जाए?

इसी क्रम में विधि-क्रियाओं के रूप पर भी एक दृष्टि डाल लें। अक्सर एक शब्द को तीन-तीन प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है, जैसे - जाए, जाये, जाय। प्रथम और मध्यम पुरुष में विधि-क्रिया का रूप होता है - जाऊँ, जाओ। फिर, अन्य पुरुष में ’अे’ के स्थान पर ’य’ का प्रयोग कैसे हो सकता है? विधि-क्रियाएँ लिंग के प्रभाव से मुक्त रहती हैं और एकवचन में पुरुष से प्रभावित होती हैं; परन्तु बहुवचन में पुरुष का प्रभाव भी जाता रहता है, जैसे - हम लोग जाएँ, आप लोग जाएँ, वे लोग जाएँ। हीन-विधि और आदर-विधि के प्रसंग में मध्यम पुरुष में इनका रूप अवश्य थोड़ा बदलता है, पर वचन एवं लिंग से अप्रभावित रहते हुए, जैसे - जा, खा, सुन; जाइए, खाइए, सुनिए। इस तरह, स्वर-वर्ण के स्थान पर व्यंजन-वर्ण के प्रयोग की कहीं कोई आवश्यकता नहीं होती।

सम्प्रदान-कारक के चिह्न ’लिए’ को भी अक्सर ’लिये’ के रूप में और भाव-वाच्य क्रिया ’चाहिए’ को ’चाहिये’ के रूप में उपस्थित कर दिया जाता है। ये दोनों अव्यय हैं और किसी भी स्थिति में इनका रूप परिवर्तित नहीं होता। तब, इन्हें परिवर्तनात्मक रूप देने का क्या औचित्य है? फिर, कुछ लोग ’चाहिए’ को लिखते तो ’ए’ से ही हैं, पर बहुवचन का प्रसंग उपस्थित होने पर ऊपर चन्द्रबिन्दु या अनुस्वार डाल देते हैं, जैसे - आपको ये काम करने चाहिएँ। स्पष्टतः ’चाहिए’ क्रिया-द्योतक अव्यय नहीं है। पण्डित किशोरीदास वाजपेयी का कहना है - "हिन्दी की ’चाहिए’ क्रिया भाववाच्य है। वह सदा अन्य पुरुष और एकवचन में रहती है। अतः इसमें ’ए’ के स्थान पर ’ये’ का प्रयोग उचित नहीं है। ’चाहिए’ का बहुवचन बनाना भी अनुचित है।"

इधर हाइफ़न को भी व्यर्थ का सिरदर्द समझा जाने लगा है और अधिकांशतः उसका अस्तित्व प्रूफ़रीडरों की दया पर निर्भर है। पर वस्तुतः हाइफ़न निरर्थक नहीं है। हाइफ़न की अनुपस्थिति किसी वाक्य के अर्थ को पर्वत-शिखर से खाई में पटक सकती है। उदाहरण के लिए, यह वाक्य देखिए - "दोनों भाई एक से नहीं हैं।" जिन दो भाइयों के बारे में यह वाक्य लिखा जाएगा, वे लिखनेवाले को कभी माफ़ कर सकेंगे? इसी तरह के सैंकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। वस्तुतः हाइफ़न का नियमानुसार - विभक्ति-लोप, किसी शब्द की पुनरावृत्ति और शब्द-समूह को एक शब्द का रूप देते समय - प्रयोग किया जाना चाहिए। कुछ लोग केवल अर्थान्तरवाले स्थलों पर हाइफ़न के प्रयोग के पक्ष में हैं। उनकी बात समझ में आती अवश्य है, पर धीरे-धीरे अभ्यास छूट जाने पर उन स्थलों पर भी उसका प्रयोग न होना सहज सम्भावित है। अभी हाल में एक प्रूफ़रीडर ने मुझसे पूछा कि ’घोड़े से गिरा’ में हाइफ़न होगा या नहीं! ऐसी स्थिति को टालने के लिए आवश्यक है कि हाइफ़न को अनावश्यक घोषित न किया जाए और उसके नियमों का पूर्णतः पालन किया जाए।

हाइफ़न की-सी ही स्थिति हलन्त की है। एक ओर जहाँ टाइपिंग की सुविधा के लिए सुझाया जा रहा है कि संयुक्ताक्षरों को समाप्त कर हलन्त से काम लिया जाए (उद्धार), वहाँ दूसरी ओर उसका अधिक-से-अधिक बहिष्कार करने की कोशिश की जा रही है। इस मत के पोषकों का कहना है कि हलन्त के बिना भी अभिप्रेत अर्थ ही निकलता है। उनकी बात सही है; परन्तु सन्धि के नियमों को वे भूल गये-से प्रतीत होते हैं। हलन्त को हटाने से पहले उन्हें सन्धि के नियम बदलने के प्रयत्न करने चाहिए, अन्यथा जगज्जननी, विद्युल्ल्ता, जगन्मिथ्या, विद्वज्जन, आदि के सन्दर्भ में वे क्या सफ़ाई देंगे?

विलोपीकरण-अभियान का हाइफ़न और हलन्त से भी अधिक प्रभाव बेचारे चन्द्रबिन्दु पर पड़ा है। उच्चारण का सहारा लेकर जो लोग ’गयी’ को ’गई’ बनाने का समर्थन करते हैं, उन्हें ही सरलीकरण के नाम पर चन्द्रबिन्दु पर कुठाराघात करते देख विस्मय होना स्वाभाविक है। अब ’हंस’ और ’हँस’ में कोई अन्तर ही न रहा।

एक ओर चन्द्रबिन्दु के उन्मूलन के प्रयत्न हो रहे हैं और दूसरी ओर उसके बड़े भाई अनुस्वार को अनावश्यक रूप से महत्वपूर्ण तथा व्यापक बनाया जा रहा है। ञ और ङ कालकवलित हो चुके हैं तथा पण्डित, बन्धन और सम्पादक को पंडित, बंधन और संपादक लिखा जा रहा है। क और च-वर्गों के आनुनासिक वर्णों - ञ और ङ - के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग समझ में आता है, ऐसा प्रयोग बहुत समय से प्रचलित भी है - पर ट, त तथा प-वर्गों के अनुनासिक वर्णों के मामले में सरलता की बात नहीं जमती - ण्, न् और म् लिखने में कोई कठिनाई नहीं होती। टाइप के ख़याल से भी इनका पूर्णतः लोप सम्भव नहीं है - पुण्य, अन्य और साम्य - जैसे शब्दों को लिखते समय इनकी आवश्यकता अनिवार्य रूप से पड़ेगी। अतः ’संबंध’ लिख कर एक ही अनुस्वार की दो विभिन्न ध्वनियाँ निकालना क्या समीचीन होगा? ’सम्बन्ध’ लिख कर यह झगड़ा ही क्यों न मिटा दिया जाए? हिन्दी से अपरिचित किसी व्यक्ति को ’संबंध’ लिख कर ’सन्बन्ध’ या ’सम्बम्ध’ उच्चारण करने का अवसर क्यों दिया जाए?

एक विवाद विभक्तियों को ले कर भी है। कुछ लोग विभक्तियों का पृथक अस्तित्व नहीं मानते और उसे पूर्व-शब्द के साथ जोड़ देते हैं, जैसे - घरपर। इनकी बात मानने में कठिनाई यह है कि यदि ये ’बेचारी जानकी ख़ैर मनाती रही’ लिखें, तो यह समझने में पूरी कसरत करनी पड़ेगी कि जानकी नाम की कोई बेचारी लड़की ख़ैर मनाती रही या कोई बेचारी अपनी जान की ख़ैर मनाती रही। कुछ दूसरे लोग विभक्तियों को सदा अलग रखने के पक्ष में हैं और यह जानते हुए भी कि ’उन्हों’ शब्द का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है, ’उन्हों ने’ ही लिखते हैं। तीसरे मत के लोग सर्वनाम के साथ विभक्तियों को मिलाते हैं और अन्यत्र अलग रखते हैं। मेरे विचार में प्रथम दो मत अतिशयवादी हैं। तीसरा मत समझौते का हामी है। यह तीसरा मत ही काफ़ी समय से प्रचलित भी है, अतः इसे अपनाना उचित होगा।

’कर’ के प्रयोग के सम्बन्ध में भी तीन मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इसे पूर्व-पद के साथ जोड़ देते हैं, कुछ लोग अलग रखते हैं और शेष एक अक्षरवाले पद के साथ जोड़ते और अन्यत्र अलग रखते हैं। पहले मत को स्वीकार करने से स्थान-स्थान पर अर्थ-भ्रम की गुंजाइश रह सकती है, जैसे - वह बुनकर सो गया। अब इसका एक अर्थ यह भी निकल सकता है कि कोई बुनकर था, जो सो गया। अतः शेष दो मतों में से किसी एक को स्वीकार किया जा सकता है।

एक विवाद आदरसूचक एकवचन अन्य पुरुष सर्वनाम को लेकर है। कुछ लोग कहते हैं कि ’वह’ का प्रयोग होना चाहिए और कुछ लोग ’वे’ के समर्थक हैं। पहले मत के समर्थकों का कहना है कि ’वे’ लिखने से बहुवचन का भ्रम हो सकता है। परन्तु यह तर्क खोखला है। ’वह’ के साथ भी क्रिया तो बहुवचन की ही रखी जाती है, जैसे - वह जाते हैं। फिर, कारक-चिह्नों का प्रयोग करते समय भी ’उसने’, ’उसको’ नहीं, बल्कि ’उन्होंने’, ’उन्हें’, आदि ही लिखना पड़ता है। तब क्या ’वह’ के लिए आग्रह व्यर्थ नहीं है? आदर का अर्थ ही होता है बहुवचन - कई लोगों के बराबर मानना। अतः ’वह’ के स्थान पर ’वे’ का प्रयोग ही उचित है।

दो शब्द ’वाला’ के प्रयोग के सम्बन्ध में। इस क्षेत्र में भी दो अतिशयवादी मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इसे सर्वत्र पूर्व-पद के साथ जोड़ देते हैं और कुछ लोग अलग रखते हैं। वस्तुतः जहाँ ’वान’ अथवा किसी कार्य के कर्ता के अर्थ में इसका प्रयोग हो, वहाँ इसे साथ रखना चाहिए, जैसे - गाड़ीवाला, सोनेवाला। अन्यत्र इसे अलग रखा जाना चाहिए, जैसे - मैं जाने वाला हूँ। अधिक स्पष्टता के लिए यह उदाहरण उपयोगी होगा - ’मैं रोटी पकाने वाला हूँ; अर्थात् मैं रोटी पकाऊँगा; और मैं रोटी पकानेवाला हूँ, अर्थात् मेरा धन्धा रोटी पकाने का है।’

इस तरह, बिना किसी विशेष कठिनाई के हम सीधे-सादे नियमों के अनुसार चल सकते हैं। कुछ लोग नियमों को बन्धन मानते हैं और कहते हैं कि उनसे जटिलता बढ़ती है। पर वास्तव में, नियमों से जटिलता नहीं बढ़ती, स्थिति स्पष्ट और सरल हो जाती है। खेल तक के नियम होते हैं, अन्यथा कोई खेल हो ही न सके। वस्तुतः मनमाने व्यवहार से ही जटिलता बढ़ेगी और ’अपनी-अपनी डफ़ली, अपना-अपना राग’ का अनुसरण कर हम एक अजीब उलझन में फँस जाएँगे। इससे हिन्दी के समक्ष आज जो व्यापक क्षेत्र पड़ा है, वह संकुचित हो जाएगा और अपनी मनमानी-द्वारा हम हिन्दी का हित साधने की अपेक्षा उसका घोर अहित करेंगे।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें