हिंदी के भविष्य के लिए चिंता की बजाय जाग्रत होने की ज़रूरत : डॉ.पद्मेश गुप्त

01-09-2021

हिंदी के भविष्य के लिए चिंता की बजाय जाग्रत होने की ज़रूरत : डॉ.पद्मेश गुप्त

डॉ. नूतन पांडेय (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हिंदी जगत की वह शख़्सियत हैं जिन्होंने हिंदी प्रेमियों के दिल में एक ख़ास स्थान बनाया है डॉ. पद्मेश गुप्त लम्बे समय से ब्रिटेन मे रहकर हिंदी की सेवा कर रहे हैं। डॉ. गुप्त 2007 से ऑक्सफोर्ड में ऑक्सफोर्ड बिज़नेस कॉलेज के निदेशक पद पर भी कार्यरत हैं। अपनी मातृभूमि, अपनी भाषा और संस्कृति से प्रेम के संस्कार इन्हें अपने परिवार से मिले हैं। यू.के. हिंदी समिति एवं ’पुरवाई' पत्रिका के माध्यम से हिंदी को विश्व भर में एक विशिष्ट पहचान दिलाने में आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आपके द्वारा 18 वर्षों तक प्रकाशित पुरवाई पत्रिका ने जहाँ नवोदित साहित्यकारों को आगे आने का मंच प्रदान किया, वहीं स्थापितों की हिंदी जगत में पहचान भी सुनिश्चित की है। डॉ. पद्मेश गुप्त की कविताओं में अपनी मिट्टी और अपने लोगों से दूर विदेश में आकर बसे प्रवासियों के दर्द, उनके संघर्ष और उनकी मनोस्थिति से उत्पन्न भाव को वाणी मिली है अब तक आपके तीन काव्य संग्रह 'आकृति', 'सागर का पक्षी' एवं 'प्रवासी पुत्र' प्रकाशित हो चुके हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से आप अपने आसपास व्याप्त विसंगतियों को उठाकर अपनी सामाजिक सरोकारिता और प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हैं, वहीं उन मुद्दों के समाधान के लिए प्रयत्नशील भी दिखाई पड़ते हैं। आपने ब्रिटेन के 25 कवियों की कविताओं का ’दूर बाग में सौंधी मिट्टी’ नाम से संकलन और संपादन का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है। हिंदी के वैश्वीकरण में आपकी सक्रियता को देखते हुए विदेश मंत्रालय, भारत सरकार ने आपको 2007 मे 'विश्व हिंदी सम्मान’ से सम्मानित किया। गुप्त जी का मानना है कि अंग्रेज़ी यदि जीविकोपार्जन का साधन है तो हिंदी हमारे संस्कारों की, आत्मा के सौंदर्य को निखारने की भाषा है। अक़्सर हिंदी के भविष्य के संकट की चर्चा की जाती है, लेकिन पद्मेश जी आश्वस्त होकर कहते हैं हिंदी न कभी ख़त्म हुई है और न ही कई सैकड़ों सालों तक हिंदी की जड़ें ख़त्म होंगी। उनका मानना है कि हिंदी के भविष्य के लिए चिंता करने की बजाय ज़रूरत है जाग्रत होने की। यदि हम अपने परिवारों में दैनिक रूप से हिंदी का व्यवहार करेंगे, जब तक हमारे परिवारों में हिंदी कहानियाँ और कविताएँ जीवित हैं तब तक हिंदी का भविष्य सुरक्षित है। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक डॉ. नूतन पाण्डेय द्वारा पद्मेश गुप्त से लिया गया साक्षात्कार हिंदी प्रेमियों के लिए प्रस्तुत है: 

 

नूतन पांडेय–

नवाबों के शहर लखनऊ से फ़्रांस और फ़्रांस से लंदन तक का सफ़र किन परिस्थितियों के चलते किया और ऐसे क्या कारण रहे कि अंततः आपको अपना देश छोड़कर यहीं का होकर रह जाना पड़ा?

पद्मेश गुप्त– 

नूतन जी, मेरे जीवन की अभी तक की जो यात्रा रही है, विशेषकर हिंदी के सन्दर्भ में, तो मैं बताना चाहूँगा कि मैं अठारह वर्ष की उम्र में केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए फ़्रांस आया था। आगे की डिग्री लेने के लिए मैं भारत वापिस चला गया। मेरी सारी पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम से हुई, लेकिन हिंदी भाषा और संस्कृति के संस्कार मुझे परिवार से मिले। हमारा संयुक्त परिवार था। मेरे पिताजी दाउजी गुप्त राजनीतिज्ञ, हिंदी प्रेमी और हिंदी सेवी हैं उनका हिंदी के विभिन्न विद्वानों और साहित्यकारों के साथ उठना-बैठना था। एक तरह से हमारे घर का सारा वातावरण हिंदीमय था। 1970 के दशक में पिताजी ने घर का एक कमरा साहित्य परिषद् को दिया हुआ था, जहाँ अक़्सर हिंदी की साहित्यिक गोष्ठियाँ, कवि सम्मलेन, चर्चाएँ और साप्ताहिक बैठकें आदि हुआ करती थीं। बचपन से ही मुझे लिखने का शौक़ तो था, थोड़ा बहुत लिखता भी था पर्सनल डायरी के रूप में। लेकिन मेरे ज़ेहन में ऐसी कोई योजना नहीं थी कि आगे जाकर मैं हिंदी में कुछ लिखूँगा या हिंदी क्षेत्र में आगे बढ़ूँगा। भारत की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं लन्दन की एक कंपनी में इंटर्न के रूप में आया। मेरा विचार था कि उच्चशिक्षा के माध्यम से मैं अपने कैरियर में आगे बढ़ने के लिए कुछ अनुभव प्राप्त कर लूँगा और लखनऊ जाकर केमिकल फैक्ट्री खोलूँगा। फिर मैंने बिज़नेस में एमबीए किया। वो ऐसी उम्र थी जब आप अपने करियर के बारे में सोच रहे होते हैं मैं भी अपने भविष्य के बारे में सोच रहा था। धीरे-धीरे इसी तरह समय निकलता जा रहा था।चूँकि मैं समृद्ध परिवार से था इसलिए घर में पैसे की कोई कमी नहीं थी और पिताजी ज़रूरत के मुताबिक़ मुझे पैसा भेज दिया करते थे। जब यहाँ के सिस्टम में आया तो मुझे अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे यहाँ मित्र बन गए, लोगों का साथ मिला, मार्गदर्शन मिला, जिससे मेरा मन यहाँ लग गया और मैं यहीं रच-बस गया। लंदन में कुछ समय बिताकर मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि मैं लखनऊ में रहकर जो नहीं कर सकता वो यहाँ रहकर कर सकता हूँ। यही सोचकर स्थायी रूप से यहीं रहने का निर्णय लिया।

नूतन पांडेय–

आपने 25 वर्ष की छोटी सी अवस्था में ही लगभग एक अपरिचित से देश में यू. के. हिंदी समिति की स्थापना की। आपने ऐसा क्या महसूस किया जिसकी वजह से इस प्रकार की संस्था को जन्म देने का विचार मन मे आया? 

पद्मेश गुप्त– 

जब मैं लन्दन आया तो एक तरह से मैं मानसिक और वैचारिक उथल-पुथल वाले दौर से गुज़र रहा था, कहा जा सकता है कि मेरे लिए यह एक तरह से कल्चरल शॉक की सी स्थिति थी। ऐसा भी नहीं था कि मैं पहली घर से बाहर निकला था, इससे पहले मैं फ़्रांस में भी ढाई साल रहा था, लेकिन लन्दन में मेरी उम्र के युवा लोगों में अपने संस्कारों के प्रति जो विमुखता थी उससे मेरे मन को गहरी चोट पहुँची। इससे संबंधित एक घटना मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। एक बार मैं अपने परिचित हर्षवर्धन जी के घर पारिवारिक कार्यक्रम में गया, उनका एक पाँव लोहे का था। जैसे ही वे कमरे में आए, मैं उनके सम्मान में खड़ा हो गया जबकि उनके पुत्र वैसे ही बैठे रहे। मुझे मालूम था कि पश्चिमी सभ्यता में ऐसा नहीं होता है। लेकिन मैं अपने संस्कारों वश फ़्रांस में भी शिक्षकों के आने के बाद खड़ा हो जाता था। मेरे शिक्षक जानते थे कि मैं भारतीय हूँ और हमारे यहाँ शिक्षक के सामने खड़े होने की परंपरा है। कई मायनों में इस तरह का आचरण अच्छा भी है ऊपर नीचे का या पद/प्रतिष्ठा का भेद नहीं होता। प्रधानमंत्री के आने पर भी उनका स्टाफ़ खड़ा होकर गुड मॉर्निंग बोले यह ज़रूरी नहीं होता। लेकिन घर के बाहर और भीतर की परिस्थितियाँ अलग होती हैं। हर्षवर्धन जी के परिवार की इस घटना ने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया कि ऐसा क्या कारण है, जो नई पीढ़ी अपने संस्कारों से विमुख हो रही है। पाश्चात्य परिवेश में तो यह सब चलता है, लेकिन यदि यहाँ अपनी भाषा और संस्कृति नहीं रहेगी तो युवा अपने देश से किस माध्यम से जुड़ेगा और यदि युवा पीढ़ी ही अपने संस्कारों से कट जायेगी तो भविष्य में भारत के अपनी योग्य पीढ़ी को खो देने की संभावना है। यह वह क्षण था जब मेरे मन में हिंदी की उपज हुई। दीपक जी, यह मैं अपने दिल से कह रहा हूँ कि उस वक़्त तक मुझे इस बात का आभास भी नहीं था कि मेरे अन्दर भाषा के संस्कार इतने गहरे तक जमे हैं। मैंने अपना आत्मावलोकन किया कि ये सोच मेरे अंदर क्यों आ रही है? मेरे साथ फ़्रांस प्रवास का सन्दर्भ भी था। मैं अभी तक अंग्रेज़ी को विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषा समझता था। लेकिन मुझे समझ आने लगा कि ऐसा नहीं है। विश्व के बहुत सारे देश हैं जहाँ अंग्रेज़ी को सीखना ज़रूरी नहीं माना जाता, अधिकांश यूरोपियन देशों में जर्मन, फ़्रेंच और स्पेनिश बोली जाती हैं। मैंने फ़्रांस प्रवास में इस बात का स्वयं अनुभव किया है। फ़्रांसीसी लोगों के लिए तो अंग्रेज़ी एक तरह से शत्रुता की, हेट्रेड की भाषा है, वहाँ के लोग तो अंग्रेज़ी में बात करना तक पसंद नहीं करते। यदि आप उनसे अंग्रेज़ी में रास्ता पूछेंगे तो वे आपको रास्ता नहीं बताएँगे, यदि टूटी-फूटी फ़्रेंच में पूछेंगे तो आपका हाथ पकड़कर उस जगह तक छोड़ आएँगे। आपने तो वहाँ के क़िस्से सुने होंगे, मैंने तो ये अनुभव किया है। आपको यह जानकर अच्छा लगेगा कि यदि आप उनसे हिंदी में बात करेंगे तो वे ख़ुशी-ख़ुशी आपकी बात का जवाब देंगे। इस तरह अंग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, इस भ्रम से मेरा नक़ाब उठ गया था और अंग्रेज़ी के प्रति सम्मान तो नहीं कहूँगा, बल्कि मेरा जो भय था कि अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है, वो भी ख़त्म होने लगा था। क्योंकि भारत में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि यदि आप अंग्रेज़ी नहीं जानते तो आपको पढ़ा-लिखा नहीं समझा जाएगा। इस सम्बन्ध में एक रोचक बात आपको बताना चाहूँगा कि भारत में औपचारिक माध्यम से अंग्रेज़ी का व्याकरण और शब्दावली सिखाई जाती है, जिस कारण हमारी अंग्रेज़ी परिष्कृत और व्याकरणसम्मत अंग्रेज़ी होती है, लेकिन लंदन में ऐसा नहीं है। यहाँ के बच्चे जो अंग्रेज़ी बोलते हैं वह अशुद्ध और ग़लत अंग्रेज़ी बोलते हैं, वे अंग्रेज़ी शब्दों की सही वर्तनी लिखना नहीं जानते। मुझे लगने लगा कि इस देश में हिंदी के लिए कुछ करना बहुत आवश्यक है, बस, फिर क्या था, मेरे संस्कार जो मैं अपने परिवार और अपने देश से यहाँ लाया था, वे ज्वालामुखी की तरह बरसने लगे और फिर मैंने इनकी आग को कभी मद्धिम नहीं होने दिया।

नूतन पांडेय–

इस संस्था से लोगों को जोड़ने के लिए आपने क्या किया और इसको स्थापित करने में आपको यहाँ के लोगों का सहयोग किस प्रकार मिला?

पद्मेश गुप्त– 

नूतन जी, जब मैंने अपना रास्ता निर्धारित कर लिया कि मुझे यहाँ के भारतीयों में अपनी भाषा और संस्कृति को जीवित रखना है, तो मैंने अपनी सोच को मूर्त रूप देने की दिशा में अपने क़दम बढ़ाने शुरू किये। ये क़दम भले ही छोटे थे लेकिन मुझे विश्वास था कि मेरा प्रयास कभी निष्फल नहीं होगा। इसके लिए मैंने यहाँ हिंदी के विषय में और अधिक रुचि और जानकारी लेनी शुरू की, पता किया कि यहाँ हिंदी पढ़ाई जाती है या नहीं, कहाँ और कितने स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है। वहाँ के भारतीय परिवारों से मैंने मित्रता की और अपनी सोच में उन्हें सम्मिलित करना शुरू किया। 1990 में मैंने अपने भारतीय मित्रों के सामने हिंदी समिति का प्रस्ताव रखा। और हमने पहले साप्ताहिक और फिर मासिक रूप से मिलना शुरू कर दिया। यहीं से हिंदी समिति की शुरुआत हुई। इन गोष्ठियों में हम आपस में हिंदी में बात करते, अपना लिखा और दूसरों का लिखा सुनते-सुनाते थे। दूसरी ओर अपने पिताजी से भी मुझे इस सम्बन्ध में बहुत सारे अनुभव प्राप्त हो रहे थे। उसके बाद हमने जुलाई 90 में पत्र निकालना शुरू किया, यह आठ पेज का पत्र था। लखनऊ में पारिवारिक प्रेस से यह न्यूज़ लैटर हिंदी में छपकर यहाँ आता था। फिर मैंने पता करना शुरू किया कि यहाँ हिंदी के कार्यक्रम आदि आयोजित होते हैं कि नहीं, लेकिन कोई ख़ास जानकारी नहीं प्राप्त हो पाई। यह इत्तिफ़ाक़ ही था कि मेरे घर के पास ही भारतीय विद्या भवन था, जहाँ पर हिंदी कक्षाएँ लगती थीं। उस समय वहाँ के निदेशक दक्षिण भारतीय थे। जगदीश मित्र कौशल जी का तथा नवीन, वीकली जैसे भी कुछेक अख़बार निकल रहे थे। सितंबर 1990 में हमने हिंदी समिति का औपचारिक उद्घाटन समारोह किया, कार्यक्रम में भारती गाँधी, जो लखनऊ में सिटी मोंटेसरी की प्रबंधक थीं, वे और बीबीसी से रत्नाकर भारती मुख्य अतिथि के रूप में आये थे। पिताजी के मित्र ओंकारनाथ श्रीवास्तव भी थे। इस कार्यक्रम में समिति के कार्यकलापों और उद्देश्यों की योजना तथा उन पर कार्यान्वयन संबंधी विचार-विमर्श किया गया। वो दिन है और आज, हिंदी समिति ने मुड़कर नहीं देखा था, वह आग की तरह बढ़ने लगी, कहें तो वहाँ के भारतीयों की पसंद बन गई, इस बीच समिति द्वारा बहुत सारे कार्यक्रम किये गए और नौ वर्ष के भीतर ही समिति को विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजन का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया। पलटकर देखता हूँ तो कितना बड़ा समर्थन था ये। मेरे जीवन की यह एक लम्बी और महत्वपूर्ण यात्रा है, जिसमें मेरी सोच सम्मिलित है, जीवन को निर्धारित करने वाले विचार हैं और संतुष्टिदायक उपलब्धियाँ हैं। कह सकता हूँ कि यह एक तरह का जोश और जूनून था, जिसने मुझे यहाँ तक पहुँचने के लिए आत्मविश्वास और संबल दिया।

नूतन पांडेय–

आपके सामने इस संस्था को आगे बढाने में क्या क्या चुनौतियाँ सामने आई?

पद्मेश गुप्त– 

देखिए, चुनौतियाँ तो जीवन का अनिवार्य हिस्सा हैं जिनको हमें स्वीकारना चाहिए और उनका सामना करते हुए हमें बढ़ना चाहिए। मैं इन सबका मूल्यांकन करूँ तो कहूँगा कि मुझे इस यात्रा में मेरी उम्र के सहयोगी नहीं मिले, पिताजी की पीढ़ी के या उससे कुछ कम उम्र के लोग मिले, मैंने उनको आदर दिया, सम्मान दिया और बदले में मुझे उनका प्रेम, सहयोग और आशीर्वाद मिला। प्रेमचंद सूद जी जो शिक्षक थे वे समिति के अध्यक्ष नियुक्त किये गए, मैंने उपाध्यक्ष का उत्तरदायित्व सँभाला। हमारे साथ उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, ब्रज गोपाल जी, प्रताप नारायण टंडन, पिता जी के मित्र- वरिष्ठ कहानीकार सुरेन्द्र अरोड़ा और हिंदी/संस्कृति अधिकारी आदि थे। इन सबने मुझे यथासंभव सहयोग प्रदान किया। लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भी इसी समय भारतीय उच्चायुक्त बनकर यहाँ आये थे, उनके संरक्षण में संस्था से सम्बंधित सभी काम बहुत ही गरिमापूर्ण ढंग से आगे बढ़ने लगे। यह मेरा सौभाग्य था कि छोटी उम्र होने के बावजूद बड़े लोगों ने मेरा नेतृत्व स्वीकार किया और अपने कंधे पर बैठाकर इस पुनीत कार्य के लिए मेरा सहयोग किया। 

नूतन पांडेय–

संस्था की प्रमुख गतिविधियाँ कौन-कौन सी हैं? 

पद्मेश गुप्त– 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमारी संस्था शिक्षण के क्षेत्र में विशेष रूप से सक्रिय और अग्रणी है। हमारी संस्था हिंदी कक्षाएँ चलाती है, परीक्षाएँ आयोजित करती है, निबंध प्रतियोगिताएँ, वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, कवि सम्मेलन, हिंदी सम्मलेन, पुरवाई का संपादन और साहित्यिक संगोष्ठियाँ आदि गतिविधियों का सञ्चालन करती है। विभिन्न प्रतियोगिताओं के पुरस्कृत प्रतियोगियों को भारत भेजती है। इस प्रकार हम जो काम कर रहे हैं वो पूरे साल चलता है इसलिए समिति के आयोजकों की वर्ष भर सक्रियता और संलग्नता बनी रहती है। इसी वज़ह से संस्था के उपाध्यक्ष, संस्थापक और संरक्षक आदि अन्य कार्य नहीं कर पाते। सन्‌ 2014-15 से सुरेखा चोपड़ा शिक्षिका का कार्य कर रही हैं। 25 साल पहले जिस उद्देश्य से समिति स्थापित की गई थी उस पर हम आगे बढ़ रहे हैं, मुझे लगता है कि नई पीढ़ी को मातृभाषा की शिक्षा देने से और वयस्कों के लिए विभिन्न प्रकार के आयोजनों से जागरूकता आयेगी, जिससे नई पीढ़ी को हिंदी से जोड़ने में मदद मिलेगी। यहाँ बहुत सी हिंदी संस्थाएँ, जैसे – कथा यू. के., वातायन आदि नई पीढ़ी के लिए ही कार्य कर रही है। आज मैं हिंदी समिति की जगह वातायन से ज़्यादा जुड़ा हुआ हूँ और साहित्यिक कार्य कर रहा हूँ, मैं संस्था के कार्यों का बैलेंस चाहता हूँ, जिससे प्रत्येक कार्य ठीक तरह से सम्पन्न हो सके।
 नूतन पांडेय–

कुछ ऐसे ख़ास नाम जिन्होंने इस संस्था को आगे ले जाने में अपना ख़ास योगदान दिया?

पद्मेश गुप्त– 

नूतन जी, यह तीस वर्ष की लम्बी यात्रा है। बहुत सारे प्रोजेक्टस हैं जिनसे बहुत सारे लोग जुड़े हुए हैं, कवि सम्मलेन संगोष्ठियाँ, पांडुलिपि का चयन आदि ऐसे कार्य हैं, जिनके लिए हर स्तर पर विभिन्न लोगों के सहयोग और साथ की ज़रूरत होती है। इन नामों की बहुत लंबी सूची है, जिनका सक्रिय और आत्मीय सहयोग मुझे मिला। 
नूतन पांडेय–

आपने एक लंबे अरसे तक पुरवाई पत्रिका और प्रवासी टुडे का संपादन भी किया। पुरवाई पत्रिका को नवोदित और प्रतिष्ठित रचनाकारों को मंच दिए जाने का स्थान कहा जा सकता है। यहाँ किसको छापा जाए, किसको नहीं, ऐसी स्थितियाँ तो अक़्सर बनती होंगी। इस ऊहापोह से बचने के लिए पत्रिका में छपने के क्या कुछ विशिष्ट मानदंड निर्धारित किये थे? 

पद्मेश गुप्त– 

पुरवाई की एक लंबी पृष्ठभूमि है। 1990 से पाँच वर्ष तक हमने न्यूज़ लेटर छापा, इसमें हिंदी से सम्बंधित समस्त गतिविधियों की जानकारी मिल जाती थी जिसे हम सबको कार्यक्रमों के दौरान बाँटते थे। धीरे-धीरे पत्रिका के पते पर लोग अपनी कविताएँ प्रकाशनार्थ भेजने लगे, जिससे मुझे लगा कि ऐसी कोई पत्रिका छपनी चाहिए, जिसमें यहाँ के लोग अपना लिखा छपवा सकें। इन सात वर्षों में हमने कई कवि गोष्ठी, सम्मलेन, अंतर्राष्ट्रीय विराट हिंदी सम्मलेन आदि भी आयोजित किये थे। मेरे मन में एक स्वप्न जैसा था कि कभी कादम्बरी, धर्मयुग, नन्दन और हंस आदि जैसी कोई नियमित पत्रिका यहाँ से भी छपे। इसी सोच को लेकर 1997 में पुरवाई का जन्म हुआ। मेरा कभी यह उद्देश्य नहीं रहा कि पत्रिका को साहित्यक मानदंडों पर परखा जाये। इस तरह के विचार मैंने अपने आरंभिक सम्पादकीयों में भी लिखे हैं कि पत्रिका का उद्देश्य नवागतों और प्रतिष्ठित साहित्यकारों के मध्य सेतु स्थापन करने के साथ-साथ नवोदितों को सृजनात्मक लेखन के लिए प्रोत्साहित भी करना है। समिति के लोगों का विचार या कहें कि पत्रिका का एक मानदंड अवश्य था कि यहाँ के लोग, जो चाहे बहुत अच्छा नहीं भी लिखते हैं पत्रिका में उन्हें प्राथमिकता देनी है बजाय भारत के प्रतिष्ठित लेखकों को छापने के। क्योंकि भारत में प्रकाशित होने और ख़ुद को स्थापित करने के बहुत अवसर होते हैं, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है। यह बहुत सुखद था कि पुरवाई-प्रकाशन के बाद भारत के कई लोगों ने उस पर समीक्षाएँ लिखीं, लेख लिखे। साहित्यकारों के मध्य पत्रिका की चर्चा होने लगी। ये मेरा सौभाग्य था कि इस पत्रिका के लिए मुझे तीन बड़े संपादक मिले, जिन्हें मैं ब्रह्मा, विष्णु महेश का आशीर्वाद सरीखा मानता हूँ। इस बात का मैंने कई बार अपनी सम्पादकीयों में उल्लेख भी किया है। ये तीन साहित्यकार हैं– कादम्बरी के राजेन्द्र अवस्थी, गगनांचल के कन्हैयालाल नंदन और भाषा के संपादक वेद प्रताप वैदिक। इन सबके साथ ही मुझे सिंघवी जी का भी भरपूर आशीर्वाद और सहयोग मिला। पत्रिका के विमोचन के बाद उन्होंने मुझसे कहा था कि अक़्सर पत्रिकाएँ शुरू होती हैं और कुछ समय बाद बंद भी हो जाती हैं। तुमने मेरा नाम तो इसमें डाला है लेकिन मैं चाहता हूँ कि ये दूसरी पत्रिकाओं की तरह कुछ दूर तक चलकर न रुक जाए, लम्बे समय तक चले, कम से कम मेरे रहने तक तो इसका प्रकाशन होता रहे। इसको दूर तलक ले जाना तुम्हारे लिए एक बड़ी चुनौती है। मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपनी शक्ति, सामर्थ्य और उपलब्ध संसाधनों के माध्यम से यथासंभव इसको पहचान दिलाने में समर्थ रहा। इस पत्रिका में सत्येन्द्र श्रीवास्तव, गौतम सचदेवा, प्राण शर्मा आदि विश्व के बड़े बड़े लेखक छपे। प्राण शर्मा तो कहते थे कि मैं अपना लेख सबसे पहले यहीं छपवाना पसंद करता हूँ। भारत में पता नहीं कब छपे, और यदि तब छपे जब उसकी प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जाए, तो छपने से क्या लाभ? ये सब साहित्यकार पुरवाई को अपनी पत्रिका मानते थे, इस तरह पुरवाई को विश्व-पत्रिका की उपाधि मिली। 2014 आते-आते लगने लगा कि अब इसकी आवश्यकता नहीं रही। कारण कि इस समय तक सोशल मीडिया का वर्चस्व स्थापित होने लगा, लोग अपने साहित्य को सोशल मीडिया पर डालने लगे और इस वज़ह से मौलिक और अप्रकाशित सामग्री मिलनी बंद हो गई, तरह-तरह की ई-पत्रिकाएँ निकलनी लगीं, इसके साथ ही प्रकाशन के ख़र्चे भी बढ़ गए। इन सब कारणों से पत्रिका को बेवज़ह खींचना मुझे ठीक नहीं लगा, मैं इसे बंद करने की सोच ही रहा था कि तेजेंद्रजी ने पत्रिका का दायित्व लेने का अनुरोध किया। तेजेंद्र जी ने इसे 2-3 वर्ष प्रकाशित किया उसके बाद से अब इसका ई-संस्करण निकल रहा है। पुरवाई के लिए अनिल जोशी के कार्यकाल का भी योगदान रहा। पहले पत्रिका त्रैमासिक थी, फिर मासिक हो गई। तत्पश्चात हम इंडिया टुडे की तर्ज़ पर 2005 से प्रवासी टाइम्स पत्रिका निकालने लगे जिसमें यहाँ के प्रवासी भारतीयों की से सम्बन्धित समाचार दिए जाते हैं। यह द्विभाषी पत्रिका है और बहुत लोगों तक इसकी पहुँच है। कुछ कारणों वश आगे चलकर हमने इसका नाम बदलकर प्रवासी टुडे कर दिया।

नूतन जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि आज कोई भी पत्रिका चलाते रहना निश्चित रूप से चुनौती से कम नहीं है। लेकिन मैं इस बात से भी बिलकुल सहमत नहीं हूँ कि किसी कार्य को इसलिए करते रहें कि हमने इसे शुरू किया है, भले ही इसका औचित्य बचा है कि नहीं। समय के साथ स्वयं को बदलना चाहिए यदि लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता कमज़ोर है, तो उसे बदलने में संकोच नहीं करना चाहिए। लक्ष्य तक पहुँचना हमारा उद्देश्य होना चाहिए और उसके लिए उस नए रास्ते को स्वीकार कर उस पर आगे बढ़ते रहना ही सार्थक है।

नूतन पांडेय–

आपने लंदन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के सफलतापूर्वक आयोजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आपने अन्य विश्व हिंदी सम्मेलनों में भी अपनी सक्रिय सहकारिता निभाई है। इस प्रकार के वृहद आयोजन किस हद तक अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हो पाते हैं और हिंदी की दशा और दिशा को निश्चित गंतव्य तक ले जाने में इनकी कितनी सार्थकता है? 

पद्मेश गुप्त– 

यदि इस प्रकार के सम्मेलनों को लोग तमाशा, मेला मानते हैं तो भी इसमें हर्ज़ क्या है। गाँव में मेले होते हैं, त्यौहार होते हैं जो समाज में जागृति लाने का काम करते हैं, इन आयोजनों से लोगों का आपस में मिलना-जुलना होता है, आपसी सौहार्द, मेलजोल बढ़ता है तो इसमें दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। नूतन जी, हमारे समाज में हर व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण होता है, जितने लोग हैं उतनी तरह से बोलते हैं। किसी भी वस्तु या परिस्थिति को अनेक कोणों से देखा जा सकता है और उस पर अपने नज़रिए से अलग-अलग राय बनाई जा सकती है। मेरे दृष्टिकोण में इस तरह के सम्मलेन हिंदी के वैश्वीकरण को विस्तार देने में बहुत उपयोगी हैं। आप ही सोचिये यदि 1975 का सम्मलेन यदि नहीं होता, जिसका श्रेय श्रीमती गांधी को जाता है तो मॉरिशस में विश्व हिंदी सचिवालय नहीं बनता। मेरी मूल सोच है कि इन सम्मेलनों के माध्यम से ही विश्व भर में हिंदी जगत में क्या घटित हो रहा है, क्या लिखा जा रहा है, कैसा लिखा जा रहा है, इस पर और भाषा साहित्य के विभिन्न मुद्दों पर मिल बैठकर चर्चा करने का संयोग मिलता है। हिंदी के लोग एक दूसरे से परिचित होते हैं, उनमें परस्पर आत्मीयता बढ़ती है। इन सम्मेलनों के प्रस्तावों पर आयें तो सरकार की अपनी व्यवस्था है, ब्यूरोक्रेसी है, सिस्टम है, जिसके अंतर्गत वह इन प्रस्तावों पर अमल करने का कार्य करती है।

लन्दन में हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में भारतीय उच्चायोग ने कैटेलिस्ट की भूमिका निभाई थी, सम्मलेन से सम्बंधित सभी निर्णय विभिन्न हिंदी संस्थाओं ने लिए। तीन संस्थाओं– हिंदी समिति यू.के, गीतांजलि समुदाय बर्मिंघम और भारतीय भाषा संगम, न्यूयॉर्क को समस्त उत्तरदायित्वों को निभाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी मिली थी, जैसे – सम्मेलन की थीम, अतिथियों की सूची, सम्मानित विद्वानों का चयन आदि आदि। उच्चायोग की भूमिका हमारे सुझावों पर सरकार का अनुमोदन लेना था। हमारी कोशिश रही कि हमारी समितियों से जुड़े विदेश के सभी पदाधिकारी सम्मलेन का हिस्सा बनें और सम्मलेन को सफल बनाने में अपनी प्रत्यक्ष सहभागिता दें। सम्मलेन को सफल बनाना एक तरह से हम सबका सम्मिलित अभियान बन गया था जिसमें सबने यथाशक्ति अपना सहयोग दिया। सम्मलेन की थीम हिंदी एवं भावी पीढ़ी थी, जिसका पीछे युवाओं को हिंदी और भारत से जोड़ने की मंशा रही। उच्चायोग के हिंदी अधिकारी गौतम सचदेवा का भी महत्वपूर्ण और सकारात्मक योगदान रहा। निश्चित ही इस प्रकार के आयोजनों में सरकारी पैसा ख़र्च होता है, सरकार चाहती है वही सम्मलेन का हिस्सा बनता है, लेकिन यह इस प्रकार के वृहद् आयोजनों का पार्ट एंड पार्सल होता है। आपने भी अनुभव किया होगा कि घर में विवाह होता है तो भी कुछ मेहमान नाराज़ हो जाते हैं, ये सब चलता रहता है। यदि इस सम्बन्ध में सरकार को कोई  सुझाव देना है तो मैं कहूँगा कि बहुत से दूसरे देश, जैसे – सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया आदि में भी सरकार को सम्मलेन आयोजित करने चाहिए। यहाँ हिंदी से सम्बंधित बहुत कार्य हो रहे हैं, लोग सक्रिय होकर लिख रहे हैं, उनके प्रोत्साहन के लिए इन देशों में भी ऐसे आयोजन ज़रूरी हैं। इसके साथ ही मैं आपके माध्यम से सरकार को सुझाव देना चाहूँगा कि जिस प्रकार भारत से एक बड़ा दल सम्मेलन में भेजा जाता है, वैसे ही विभिन्न देशों के साहित्यकारों का सरकारी प्रतिनिधिमंडल सम्मेलन स्थल पर भेजा जाये जिनमें कम से कम कुछ प्रतिशत भारत से बाहर के देशों के हिंदी सेवियों/साहित्यकारों का भी हो।

सम्मेलनों के विरोध की बात करें तो सम्मेलनों के सम्बन्ध में भारत के साहित्यकारों का विशुद्ध राजनैतिक दृष्टिकोण होता है जिसमें मात्र विरोध के लिए इस तरह का विरोध किया जता है। लन्दन-सम्मलेन में भी भारत से इस तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं थीं। मैं कह सकता हूँ कि लन्दन को छोड़कर किसी देश में कोई सम्मलेन नहीं हुआ होगा जिसमें उसे देश की चार विभिन्न धार्मिक संस्थाओं ने सम्मलेन के आयोजन और उसकी सफलता में खुलकर अपना समर्थन और सहयोग दिया होगा। जब भारत में एक सम्मलेन के अवसर पर मैं नामवर सिंह से मिला तो उन्होंने सम्मलेन के सम्बन्ध में कहा था कि वहाँ तुम जो कर रहे हो, वह बहुत बढ़िया कर रहे हो। यहाँ हम जो बोल रहे हैं, उसकी चिंता न करो। 

नूतन पांडेय–

आपके सुझाव पर ही इस सम्मेलन की थीम हिंदी और भावी पीढ़ी रखा गया था। क्या आपको ऐसा लग रहा था कि नई पीढ़ी कहीं न कहीं अपनी भाषा और संस्कृति से दूर हो रही है और उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ने के लिए इस तरह के प्रयास किये जाने अनिवार्य हो गए हैं?

पद्मेश गुप्त– 

सच कहूँ तो यह बात कुछ हद तक सही है। मैंने पूर्व में इसकी चर्चा आपसे की भी है। मैंने इसी प्रकार की भावनाओं को लेकर हिंदी एवं भावी पीढ़ी पर कविता लिखी थी, जो सम्मलेन का थीम सोंग बनी, इस कविता पर सम्मलेन में नृत्य हुआ, इस कविता को हिंदी प्रेमियों का प्रेम मिला, चर्चा भी मिली। 

नूतन पांडेय–

विश्व भर में अपनी भाषा और संस्कृति का संवहन करने के कारण प्रवासी भारतीय एक तरह से सांस्कृतिक दूत की भूमिका निभाते हैं। प्रवासियों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही भारत सरकार ने प्रवासी मंत्रालय खोलने के अलावा डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी की अध्यक्षता में गठित कमेटी की अनुशंसा पर कई लाभकारी योजनाएँ आरम्भ कीं। कुछ राजनैतिक विश्लेषकों का ऐसा मानना है कि इन सबके पीछे प्रवासियों को भारत में निवेश के लिए आकर्षित करना मुख्य प्रयोजन है। इस संबंध में आपके क्या विचार हैं? 

पद्मेश गुप्त– 

मैं श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को भारतीय डायस्पोरा का गाँधी मानता हूँ। राजनैतिक रूप से ही नहीं, वैचारिक रूप से भी उन्होंने भारत से बाहर प्रवास कर रहे भारतीयों को एक सूत्र में लाने का कार्य किया और भारत से उनकी एकात्मकता को बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, ब्रिटेन के ही नहीं हर जगह के प्रवासियों के बारे में जितना हो सकता था, उन्होंने उनके बारे में सोचा और न सिर्फ़ सोचा ही, बल्कि किया भी। उन्होंने ही प्रवासी दिवस की संकल्पना भी दी। हमने अभी बात भी की कि सिंघवी जी ने ही प्रवासी भारतीयों को भारतवंशी नाम दिया, उनके निर्देशन में अप्रवासी मंत्रालय की गतिविधियों में सक्रियता भी बढ़ी। मुझे याद है कि उच्चायोग के शैलेन्द्र श्रीवास्तव ने 14 सितम्बर को हिंदी दिवस का आयोजन किया था। इस दिवस का भारत के परिवेश के लिए निश्चित ही बहुत महत्त्व है, लेकिन विश्व भर के भारतीय उससे जुडें, हमें ऐसा विकल्प निकालना चाहिए। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए विश्व हिंदी दिवस की परिकल्पना बनी। शैलेन्द्र जी ने इसको गंभीरता से लिया। सूरीनाम के विश्व हिंदी सम्मलेन में सिंघवी जी के प्रयासों से 09 जनवरी को प्रवासी दिवस का महत्वपूर्ण आयोजन करना निर्धारित हुआ जहाँ तक आपने प्रवासियों के भारत में निवेश की चर्चा की तो मैं यही कहूँगा कि इस प्रकार के निवेश में कोई नुक़्सान नहीं है, यह अच्छी सोच है। लेकिन सिर्फ़ पैसे का निवेश नहीं होना चाहिए, यह निवेश योग्यताओं, तकनीकी कौशलों, सृजनात्मक साहित्य, भावनात्मक लगाव और अपनत्व का भी होना चाहिए। सिर्फ़ पैसे देख रहे हैं तो भारत को नुक़्सान होगा क्योंकि, पैसे से पैसा चाहिए तो भारत को ज़्यादा देना पड़ेगा, प्रेम का निवेश लेंगे तो उसका रिटर्न भारत को नहीं भरना पड़ेगा। प्रेम का निवेश वृक्ष में निश्चित ही और फल लगाएगा। इस संबंध में भारत सरकार द्वारा निश्चित ही बहुत कार्य किये जा रहे हैं। भारत सरकार ने प्रवासियों को OCI का लाभ दिया है। मोदीजी में हम छवि देखते हैं सिंघवी जी की, जो प्रवासियों को अपना बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे हैं।

नूतन पांडेय–

प्रवासियों की भारत सरकार से क्या ख़ास अपेक्षाएँ रहती हैं?

पद्मेश गुप्त– 

प्रवासी भारत से बाहर रहकर पैसा और नाम कमा रहे हैं। आवश्यकतानुसार भारत को वापिस भी कर रहे हैं। बस हम यह चाहते हैं कि हमारे निवेश को सुरक्षा मिले। हमें और हमारी परिस्थितियों को समझकर हमारे लिए अलग NRI कोटा हो, पुलिस डेस्क हो, संपत्ति आदि के विवादों के लिए अलग कोर्ट हों, अलग सुनवाई हो जिससे हमारे काम आसानी से हो सकें और हमारे समय की बचत हो सके। यदि इन कार्यों में अतिरिक्त व्यय होता है तो पैसे देने में हमें दिक़्क़त नहीं है, पर्यटक स्थल पर प्रवासियों के लिए अतिरिक्त शुल्क है, इससे हमें कोई शिकायत नहीं। लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि शिकायतें बहुत कम हुई हैं, इमीग्रेशन की दिक़्क़तें भी कम हुई हैं, भारत बड़ा देश है, हम नहीं चाहते कि हम कोई समस्या बनें, बल्कि हम समस्याओं के समाधान में अपना योगदान देने की इच्छा रखते हैं। मेरा राजनीति से कोई भी लेना-देना नहीं है, मैं सिर्फ़ एक सामान्य प्रवासी की तरह बात कर रहा हूँ। 

नूतन पांडेय–

आज भारत से बाहर प्रवास कर रहे साहित्यकार हिंदी को वैश्विक स्तर तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन अक़्सर देखा जाता है कि प्रवासियों को भारत मे अनेक सम्मान और पुरस्कार दिए जाने के बावजूद इनके साहित्य को आलोचक वर्ग द्वारा स्तरीयता के दृष्टिकोण से उतनी सराहना नहीं मिलती, जितनी की दी जानी चाहिए। आपकी नज़र में इसके क्या कारण हो सकते हैं?

पद्मेश गुप्त– 

प्रवासी साहित्य की स्तरीयता के सम्बन्ध में जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत रूप से बात है मुझे कभी नहीं लगा न ही किसी ने मुझे कभी ऐसा अनुभव कराया। मुझे हमेशा से ही वरिष्ठ तथा प्रतिष्ठित साहित्यकारों का प्रेम मिलता रहा। जहाँ तक आपकी बात है, इसमें सच्चाई हो सकती है और मुझे लगता है इस बात के दो कारण हो सकते हैं। एक है राजनैतिक कारण– भारत में जो लोग राजनीति से प्रभावित होकर लिखते है या कहें किसी विशेष राजनैतिक वर्ग से सम्बद्ध हैं उन्हें ऐसा लगता है कि भारत से बाहर जो हिंदी से प्रेम करते हैं, हिंदी के साहित्यकार हैं हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान की पृष्ठभूमि वाले हैं, इसलिए वे हमारे साहित्य को इस तरह से नहीं देखते, वे प्रवासी साहित्य के विशेष पक्ष में नहीं रहे, दूसरे वे साहित्यकार हैं, जिनका राजनीति से तो कोई लेना-देना नहीं है लेकिन उन्होंने प्रवासी साहित्य को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। कुछेक साहित्यकार, जैसे कमल किशोर गोयनका, कुँवर बेचैन आदि ने भारत में प्रवासी साहित्यकारों को स्थापित करने का बहुत प्रयास किया है। कुछ कमज़ोरी प्रवासी साहित्यकारों की भी है, एक तो वे कुछ लोगों की बातों में आ गए कि भारतीय साहित्यकार प्रवासी साहित्यकारों को हिंदी साहित्य मूलधारा में स्वीकार नहीं करते, उनके लेखन को महत्त्व नहीं देते, वग़ैरह वग़ैरह। लेकिन ऐसे लोगों ने भारत की संस्थाओं से पुरस्कार सम्मान आदि लेने में कुछ भी परहेज़ नहीं किया। दूसरी तरफ़, भारत के प्रकाशकों ने भी पैसे व अन्य किसी लाभ के लिए प्रवासी लेखकों के कमज़ोर साहित्य को भी छापना शुरू कर दिया लेकिन जब ऐसी रचनाएँ योद्धाओं के पास पहुँचीं तो उन्होंने इसे साहित्य मानने से ही इनकार कर दिया और स्तरीयता के मानक पर तोला। मैं आपको इस स्थिति के वे सारे पहलू दिखा रहा हूँ जो हुए या जो संभव हैं। लेकिन मेरी राय है कि भारतीय साहित्यकारों को प्रवासी साहित्यकारों के साहित्य को तौलने के लिए कुछ मानदंड बनाने होंगे ताकि ये परखा जा सके कि वे स्तरीयता के किस पैमाने पर आते हैं। आज बहुत सी संस्थाएँ और विश्वविद्यालयों ने इस तरह के कार्य करने प्रारम्भ भी कर दिए हैं। लेकिन इस संबंध में मैं यह मानता हूँ कि हिंदी के वैश्वीकरण की दृष्टि से प्रवासी साहित्य का मूल्यांकन किया जाए। हम ये तो मूल्यांकन कर सकते हैं कि कितने देशों में हिंदी बोली जा रही है, विश्व के कितने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है, वग़ैरह वग़ैरह, लेकिन जब साहित्य की बात आती है तो देखा जाना चाहिए कि प्रवासी साहित्य क्या दे रहा है, प्रवासी साहित्य में क्या लिखा जा रहा है। हम जिस अनुभव में जी रहे हैं, जिन परिस्थितियों में जी रहे हैं उसे अभिव्यक्ति दे रहे हैं। आज से दो-सौ तीन सौ साल बाद जब हिंदी का वैश्वीकरण होगा और लोगों को जानना होगा कि लन्दन या कनाडा में कोरोना काल में क्या हुआ था, ब्रेक्सिट में क्या हुआ था, तो निश्चित ही यहाँ लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को पढ़ा जाएगा और उससे आज की परिस्थितियों का अंदाज़ा लगाया जाएगा, तभी सच्चे अर्थों में हिंदी का वैश्वीकरण होगा।

प्रवासी साहित्य को मूलधारा में जोड़ने से भारतीय साहित्य को ही फ़ायदा होगा। जोड़ें या न जोड़ें इससे एकाध प्रवासी साहित्यकार को छोड़कर बहुत ज़्यादा का भला नहीं होने वाला। मेरा यह भी मानना है कि प्रवासी साहित्य को सोच, भाव और विचार की दृष्टि से पलड़े में रखिये, भाषा से या भावों की अभिव्यक्ति वे किस प्रकार करते हैं, उनसे नहीं। हम दो तीन भाषाओं के वातावरण में जी रहे हैं, उससे अभिव्यक्ति शैली का प्रभावित होना स्वाभाविक है। हमारे लिखने की अभिव्यक्ति में आप सुधार कीजिये, आपका स्वागत है। हमारी सोच, हमारे अनुभव और हमारे विचार को मरने न दीजिये। 

नूतन पांडेय–

विदेश में प्रवास कर रही भारतीय साहित्यकारों की पुरानी पीढ़ी अपने घर-आँगन और उसकी चहल-पहल को अपने साथ लेकर आई थी जिसे वह अपने मन में सँजोकर रखे हुए है। अपने देश की यादें उनके साहित्य में अक़्सर परिलक्षित होती हैं और शायद इसी कारण से उन पर यदा-कदा नॉस्टैल्जिक होने का आरोप भी लगता रहता है। लेकिन आज की नई पीढ़ी अपने मन में भारत के प्रति कोई विशिष्ट छवि लेकर नहीं जी रही है! उसका अपना परिवेश है, मित्र हैं, भाषा है जो उन्हें जन्मते ही यहाँ के वातावरण के साथ मिली है। दोनों पीढ़ियों के परिवेशजन्य इस मूलभूत अंतर के कारण साहित्य किस तरह प्रभावित हुआ है?

पद्मेश गुप्त– 

सच पूछिये तो ये लोग भारत को उसी प्रकार याद करते हैं जैसे हम अपने ननिहाल को याद करते हैं क्योंकि उन्होंने इसी देश में जन्म लिया है और उनका देश यही है। हिंदी समिति का उद्देश्य भी सही मायने में यही था 25-30 साल पहले से अब कम्युनिकेशन इतना बढ़ गया है कि दूरी का एहसास नहीं होता। जब 1984 -85 में मैं फ़्रांस आया था तो मेरे माता-पिता चौबीसों घंटे मेरे फोन का इन्तज़ार करते थे, उनके पत्र पाँच-छाह महीने में मुझ तक पहुँचते थे। अब हम परिवार को मिस नहीं करते क्योंकि संचार साधनों की वज़ह से दुनिया बहुत छोटी हो गई है। पहले सालों साल एक दूसरे को नहीं देख पाते थे, अब हम वीडियो काल करके जब चाहें देख और बात कर लेते हैं। अब जो बच्चे भारत में जन्म लेकर बढ़ रहे हैं उनका भी वैश्वीकरण हो रहा है। लन्दन, टोकियो, जापान, अमेरिका अब भारत से दूर नहीं हैं या कहें सब भारत के ही एक्सटेंशन हो गए हैं। पहले हम छत्तीस घंटे में लखनऊ से मुंबई पहुँचते थे, पर अब इतने घंटे में विश्व में कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। दुनिया अब सिमट गई है, उन्नत तकनीकी की वज़ह से आज की पीढ़ी में नॉस्टैल्जिक भाव आना मुश्किल है। भावनाएँ और प्रेम वहीं हैं, उनका आकलन नहीं किया जा सकता, बस अभिव्यक्ति के प्रदर्शन में रूपांतर हुआ है और कुछ मायने में व्यावहारिकता में भी बदलाव आ गया है।

नूतन पांडेय–

आपके साहित्य की जब बात आती है तो आपके तीनों ही काव्य संग्रह काफ़ी चर्चित रहे हैं। प्रवासी पुत्र की कविताएँ आपके प्रवास के अनुभवों पर आधारित हैं, जिसमें अनुभूतियों, संवेदनाओं और भारत और विश्व भर के विविध राजनैतिक घटनाक्रमों को जगह मिली है। कोई घटना या परिस्थिति आपके लिए कविता का रूप कब और कैसे ले लेती है? 

पद्मेश गुप्त– 

नूतन जी, मुझे कविता लिखना सबसे ज़्यादा सुहाता है। यूँ तो मैंने दो-चार कहानियाँ भी लिखीं हैं पर मेरी कहानी में भी कविता के भाव आ जाते हैं। मेरे लेखन का स्वभाव यही है, कविता में कहानी और पूरा का पूरा उपन्यास आ जाता है। मैं मूलतः कवि हूँ और मुझ पर ईश्वर की अनुकम्पा है कि जो बात मेरे दिल और दिमाग़ को लग जाती है वही कविता बन जाती है।

नूतन पांडेय–

आपकी एक कविता “छड़ी घड़ी और ऐनक” अत्यंत संवेदनशील कविता है जिसमें प्रवासियों की अपने देश वापिस न आ सकने की विवशताओं और द्वंद्व को बहुत ही मार्मिकता से उकेरा गया है। क्या जीवन के किसी मोड़ पर मजबूरियाँ इतनी बलवती हो सकती हैं जहाँ दिल की आवाज़ को भी अनसुना कर देना पड़ता है?

पद्मेश गुप्त– 

घड़ी-छड़ी-ऐनक मेरी इस कविता में तीन पीढ़ियों का उल्लेख है। प्रवासी अपने माता-पिता से मिलने जाना चाहता है, पर अपने बच्चों के कारण अपने आपको रोक लेता है। इस कविता को कई परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। यदि मेरे पास कम पैसे हैं तो बच्चों पर ख़र्च करूँगा माता-पिता पर नहीं। मैं अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता हूँ पिता-माता से कह सकता हूँ कि सीमित साधन में गुज़ारा कर लें। इसी तरह मेरे पिता मुझे भूखा नहीं देख सकते, वे अपने माता-पिता को कम ख़र्च के लिए समझा सकते हैं। यह एक चक्र है जो निरंतर चलता रहता है। यह कविता 2003-04 में लिखी थी, इसलिए मेरा निवेदन है कि ये मेरे व्यक्तिगत अनुभवों से अलग करके देखी जानी चाहिए।

नूतन पांडेय–

विश्व के अनेकों देशों में स्तरीय हिंदी साहित्य रचा जा रहा है, कई रचनाकार अपनी रचनाओं से लोकप्रिय हो रहे हैं और अपना विशाल पाठक वर्ग भी तैयार कर रहे हैं। लन्दन में हिंदी के भविष्य को लेकर आप कितने आश्वस्त हैं? 

पद्मेश गुप्त– 

लन्दन में हिंदी साहित्य लेखन की बात की जाए तो यह स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। कोरोना काल से हमारे वातायन का साप्ताहिक कार्यक्रम ‘कविता की नई पौध ‘ आरम्भ किया गया है जिसमें मैं पाता हूँ कि आज कई लोग गंभीरता से स्तरीय और बढ़िया लिख रहे हैं। मुझसे एक बार प्रश्न किया गया था कि आपके कार्यक्रम में नई पीढ़ी के लोग नहीं दिखते। प्रश्न उपयुक्त है मैं तीस वर्षों से देख रहा हूँ। पहले जब मैं 25 की उम्र का था तो मेरे पिता की उम्र के लोग कार्यक्रमों में आते थे, जब मैं बड़ा हुआ तो मेरी उम्र के लोग मुझे मिलने लगे, अब मैं देख रहा हूँ कि मुझसे कम उम्र के लोग कार्यक्रम में आ रहे हैं, यानी एक ही उम्र के लोग इस प्रकार के कार्यक्रमों में आ पाते हैं। युवाओं का कार्यक्रमों में न दिखना आश्चर्यजनक नहीं हैं। उनके पास कई उत्तरदायित्व होते हैं वे पढ़ाई, गृहस्थी, कैरियर से बँधे होते हैं और इस प्रकार के कार्यक्रमों में समय नहीं दे पाते जब इनसे कुछ अवकाश पाते हैं तो इस प्रकार के कार्यक्रमों में सहभागी बनते हैं। लेकिन यह सकारात्मक है कि कार्यक्रम में भाग लेने वालों की संख्या वहीं की वहीं है, रुझान भी वही है।

नूतन पांडेय–

कुछ ख़ास नाम लेना चाहेंगे जो अच्छा लिख रहे हैं?

पद्मेश गुप्त– 

कुछ नाम लूँगा तो ये अन्याय होगा, एक लम्बी लिस्ट है, जिनमें आशीष मिश्र, अभिषेक त्रिपाठी, शेफाली फ्रॉस्ट, आशुतोष, अंतरीपा, तिथी दानी, इंदु बरोत, शिखा वार्ष्णेय, रिचा जैन आदि आदि। इन लोगों से मैं पिछले पाँच-छः महीने से संपर्क में आया हूँ। एक मासिक बैठक ‘ज़ूम कॉफ़ी’ हर महीने के पहले सोमवार को हम करते हैं। हाँ एक शिकायत है कि यहाँ जन्मे लोग हिंदी से नहीं जुड़ रहे हैं। भारतीय या विदेशी दोनों मूल के ही, इसका कारण है कि जब रचनात्मक लेखन की बात आती है तो लोग अपनी प्रथम भाषा में लिखना पसंद करते हैं। निबंध, रिपोर्ट, आलेख लिखना आसान होता है जबकि कविता कहानी जैसी रचनाएँ द्वितीय भाषा में लिखना मुश्किल होता है।

नूतन पांडेय–

प्रवासी या भारतेतर कौन सा प्रयोग ज़्यादा उपयुक्त मानते हैं?

पद्मेश गुप्त– 

प्रवासी लेखन के सम्बन्ध में सबसे पहले लक्ष्मीमल्ल सिंघवी का योगदान सामने आता है जब उन्होंने भारत से बाहर रह रहे लोगों को प्रवासी नहीं भारतवंशी कहा था। इसी तरह भारत सरकार ने भी अप्रवासी मंत्रालय की स्थापना की। हमें प्रवासी शब्द का भावार्थ लेना चाहिए न कि इसे सिर्फ़ गिरमिटिया म़दूरों तक ही सीमित रखना चाहिए। भारत से बाहर जो भी लिखा जारहा है वह सब प्रवासी है। लेकिन इसका उपवर्गीकरण किया जा सकता है। मेरे हिसाब से इसका चार प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है—

  1.  जो कम आयु में भारत से बाहर आ गए जैसे मेरे जैसे विद्यार्थी और वे महिलाएँ जिनकी कम उम्र में विदेश में काम करने वालों के साथ शादी हो गई, जैसे – उषाराजे सक्सेना, कादम्बरी मेहरा, अनिल प्रभा कुमार और दिव्या माथुर आदि।

  2. वे जिनका यहीं जन्म हुआ या विदेशी मूल के वे जो हिंदी में लेखन कर रहे हैं।

  3. बड़ी उम्र के प्रतिष्ठित साहित्यकार जो अब व्यक्तिगत कारणों से विदेश में बस गए और लेखन कार्य कर रहे हैं, जैसे– तेजेंद्र शर्मा, सुषम बेदी आदि।

  4. वे जिनको रोज़गार यहाँ लाया जिनका हिंदी में कैरियर था, कम और मध्य आयु के पत्रकार और भारतीय अधिकारी, जो अब यहीं बस गए, जैसे – सत्येंन्द्र श्रीवास्तव, गौतम सचदेव और पुष्पिता अवस्थी आदि। प्रवासी के लिए इधर नए शब्द भारतेतर /देशांतर का भी प्रयोग किया जा रहा है।

नूतन पांडेय–

मन में एक स्वाभाविक सी जिज्ञासा है। न चाहते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि भारत में साहित्यिक मंच ख़ेमेबाज़ी का शिकार है, क्या प्रवासी साहित्यकारों में भी इस तरह की मनोवृत्ति है जो साहित्य को दो धड़ों में विभाजित कर रही है?

पद्मेश गुप्त– 

ख़ेमेबाज़ी है भी नहीं भी। यह मानव स्वभाव है जो उसके साथ चलेगा। यदि मैं कहूँ सब कुछ ठीक है तो ये भी झूठ होगा। मगर ख़ेमेबाज़ी इतनी नहीं जितनी भारत में है। हमारे पास बड़े मंच पत्र-पत्रिकाएँ नहीं हैं, जिसके माध्यम से एक- दूसरे को बड़ा नुक़्सान पहुँचाया जा सके। इसलिए यहाँ की ख़ेमेबाज़ी ज़्यादा ख़तरनाक और नुकनदेह नहीं है। वैसे मैंने अभी तक प्रवासी साहित्य में राजनीति नहीं देखी। राजनीति से मेरा मतलब वाममार्गी आदि से है। यदि इस तरह की राजनीति होती भी है तो उसे गंभीरता से नहीं लिया जा जाता। जो भी लिख रहे हैं उनकी मूल भावना हिंदी और भारत से प्रेम है।

नूतन पांडेय–

हिंदी को वैश्विक पहचान देने और उसके व्यापक स्तर पर प्रयास के लिए आपको विश्व हिंदी सम्मान के साथ ही कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। अपनी उपलब्धियों से कितना संन्तुष्ट हैं?

पद्मेश गुप्त– 

जहाँ तक काम में संतुष्टि की बात है तो यह एक पक्ष है,  हिंदी की सेवा दूसरा पक्ष। मैं मैनेजमेंट से जुड़ा हूँ जहाँ माना जाता है Satisfaction is death और आपने यह भी कहावत सुनी होगी कि Intellectuals don’t retire आपने पुरस्कारों की बात की तो मुझे लगता है कि पुरस्कार के पीछे भागना उसी तरह है जैसे परीक्षा में नक़ल करके पास होना। नक़ल करके आप आगे वाली कक्षा में तो जा सकते हो, लेकिन सही मायने में जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते। मैं आपको हृदय से बता रहा हूँ कि सम्मान और पुरस्कार के पीछे जाने की इच्छा कभी नहीं हुई। मेरा संबंध संपन्न परिवार से है। जहाँ कोई कमी नहीं रही इसलिए संतुष्ट हूँ। मैं पाता हूँ कि कई बार ऐसे लोग पुरस्कार के लिए चुन लिए जाते हैं जो उसके योग्य नहीं होते पर व्यक्तिगत संबंध इस क्षेत्र में बहुत काम कर जाते हैं। मैं या तो प्रेम के लिए या फिर सरकारी पुरस्कार स्वीकार करता हूँ। उनत्तीस साल की उम्र में मुझे उ. प्र. हिंदी संस्थान का पुरस्कार मिला, विश्व हिंदी सम्मान पाकर भी अच्छा लगा। मुझे एक बात समझ आई कि पुरस्कार से हिंदी का भला हुआ। सिंघवी जी ने विश्व हिंदी सम्मान के समय मुझसे कहा था यह पुरस्कार तुम्हें नहीं मिला है अपितु युवावर्ग के लिए प्रोत्साहन है। आपके इस सम्मान से प्रेरणा लेकर युवा आगे आयेंगे और हिंदी का विकास करेंगे। यही इस प्रकार के पुरस्कारों की मूल भावना और उद्देश्य है। 

नूतन पांडेय–

कोई संदेश या अपने मन की बात जिसे इस साक्षात्कार के माध्यम से आप अपने पाठकों और सभी हिंदी प्रेमियों तक पहुंचना चाहते हैं?

पद्मेश गुप्त– 

आपकी स्वीकृति हो तो मैं अपने सन्देश को तीन भागों में बाँटना चाहूँगा। 

एक उनके लिए जो हिंदी के लिए कार्य कर रहे हैं और हिंदी के कार्यकर्ता हैं। आप जब बोलते हैं तो लोग सुनते हैं, जब काम बोलता है तो लोग बोलते हैं, कायनात सुनती है और इतिहास बनता है। आप कार्य से जाने जाएँ नाम से नहीं, यदि आप कर्म किए जायेंगे तो उपलब्धि ज़्यादा होगी।

दूसरा सन्देश पाठकों के लिए है कि वे हिंदी में लिखी जा रही पुस्तक ख़रीदें, उन पर अपनी प्रतिक्रियाएँ दें जिससे लेखक को प्रोत्साहन मिलेगा। 

तीसरा सन्देश हिंदी प्रेमियों के लिए दार्शनिक सन्दर्भ में है। यदि आप हिंदी से प्यार करते हैं, हिंदी की उन्नति और भला चाहते हैं तो जहाँ तक संभव हो सके, आप हिंदी के कार्यक्रमों में हिस्सा लें, पुस्तकें ख़रीदें, प्रतिभागिता करें। आपके ऐसा करने से हिंदी का लाभ होगा। नई पीढ़ी को हिंदी के बारे में जानकारी दें, उसकी विशेषताओं से उन्हें अवगत कराएँ। मैं अक़्सर हिंदी प्रेमियों को यह सूत्र देताहूँ कि प्रगति यदि अंग्रेज़ी है तो हिंदी है संस्कार, हिंदी अपने हाथ बनाओ अंग्रेज़ी हथियार / फिर देखो कैसे होता है हर सपना साकार। द्विभाषी परिवेश में अंग्रेज़ी प्रगति की भाषा है, यदि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती होती तो मैं यहाँ अपनी हिंदी को आगे बढ़ाने का प्रयास कैसे करता? आप अंग्रेज़ी जानें-पढ़ें, लेकिन हिंदी को अपने संस्कार और अपनी आत्मा की भाषा बनाएँ। इस चर्चा के माध्यम से मैं भारत सरकार से भी यह अनुरोध करना चाहता हूँ की हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए वे लंदन और विश्व के महत्वपूर्ण व्यावसायिक देशों में स्थायी सांस्कृतिक केंद्र खोलें जहाँ कर्मठ हिंदी सेवियों की नियुक्ति की जाए और हिंदी को वैश्विक स्तर पर पहचान मिले। साथ ही प्रवासी विषयों पर शोध कार्य करने वाले अनुसंधित्सुओं से भी मैं निवेदन करूँगा कि चूँकि किसी विषय में सबका अपना अपना दृष्टिकोण होता है, इसलिए मेरे अलावा वे प्रवासी साहित्य के विषय में दूसरे विद्वानों के भी विचारों से अवगत हों और फिर इस सम्बन्ध में अपना मत बनाएँ, ताकि उनके ज्ञान का विस्तार हो और उनका क्षितिज विस्तृत हो।

नूतन पांडेय–

चलते-चलते अपनी किसी कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनना चाहेंगे! 

पद्मेश गुप्त– 

जी अवश्य:

भय मुझे हारने का नहीं, कुछ खोने का है, 
खोना नहीं चाहता मैं, नई पीढ़ी का विश्वास 
जिसके मन के आकाश में एक भारत है 
भारत में छोटा सा घर है, घर में नन्हा सा मंदिर है ......

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