हिंदी कहानियों में चित्रित वृद्धों की समस्याएँ
डॉ. वासुदेवन ‘शेष’प्राक्कथन –
कहानी कहना और सुनना मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। यह अनादिकाल से मनुष्य के मनोरंजन और ज्ञान दोनों का साधन रही है। कहानी कहना कला है, इसके द्वारा एक ही कथ्य अनेक प्रकार से कहा जा सकता है आज कहानी साहित्य का वह माध्यम है जो सीमित दायरे में वृहद जीवन की अभिव्यक्ति में सक्षम है, तथा इसका क्षेत्र अन्य साहित्यिक विधाओं से विस्तृत है। कहानी मानव मात्र की संपत्ति है। जहाँ-जहाँ मनुष्य रहा, वहाँ-वहाँ घटनाएँ घटीं, उन्हीं घटनाओं का पारस्परिक कहना-सुनना कहानी बना। अत: कहानी के संदर्भ में यह दावा किसी का नहीं होना चाहिए कि उह केवल हमारी संपत्ति है। उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति अवश्य कुछ सभ्यताओं में पहले हुई। भारत उन्हीं में से एक है। भारत का कथा साहित्य प्राचीन रूप में विश्व का सर्वाधिक समृद्ध और महत्वपूर्ण साहित्य रहा है। आज जिस रूप में हिंदी कहानी जानी-पहचानी जाती है उसका स्वरूप पाश्चात्य कथा साहित्य में निर्मित हो चुका था।
आधुनिक कहानी का सूत्रपात उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति एवं आधुनिक शिक्षा के फलस्वरूप यूरोप में हुआ क्योंकि जीवन की भाग-दौड़, व्यस्तता और समय के अभाव ने परम्परागत जीवन शैली को पूरी तरह बदल कर रख दिया था। साहित्य तो जीवन में ही अनुप्राणित है; जीवन बदला तो साहित्य में भी इसका प्रभाव परिलक्षित हुआ। दादी-नानी वाली कहानी भी फिर यथावत् कैसे रहती। उसने भी नया परिधान धारण कर लिया।
एक कहानी मैं लिखता हूँ – एक कहानी तू भी लिख
नाना-नानी मैं लिखता हूँ – राजा-रानी तू भी लिख
घोड़े खच्चर मैं लिखता हूँ – दाना-पानी तू भी लिख॥
आजकल साहित्य में कई विमर्श प्रचलित हैं। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, किन्नर विमर्श, आदिवासी विमर्श, किसान विमर्श इत्यादि। अब विगत कुछ वषों से वृद्धा विमर्श के बारे में चर्चा की जा रही है। उस पर भी प्रसद्धि कहानिकारों ने अपनी क़लम चलायी है। विश्व जनसंख्या का बड़ा हिस्सा ग्रहण करने वाले वृद्ध वर्गों की सामाजिक एवं मानसिक संवेदनाओं को साहित्यकारों ने विशेष रूप से प्रस्तुत किया है। वृद्धों के जीवनानुभवों से लाभ उठाने के बजाय, जिन्हें बोझ एवं दक़ियानूस माननेवाले आधुनिक समाज की विकृत मानसिकता को, अपनी कठोर वाणी से साहित्यकार जवाब देते रहते हैं। नीना पॉल, सुषम बेदी और इलाप्रसाद की कहानियों में प्रवासी वृद्ध के दर्दनाक हालातों के चित्रण देखने को मिलते हैं। भूमण्डलीकरण के पश्चात टूटते घर-परिवार व्यवस्थाओं तथा परिवार में बुज़ुर्गों की अवमूल्यित स्थित बहुत सारे संदर्भों में, कहानियों में ज़िंदा है।
‘घर-बेघर’ नीना पॉल की औलादों की घोर उपेक्षा के शिकार बन के वृद्धाश्रम की ओर जानेवाले एक विधुर बुज़ुर्ग जनरल सिंह लांबा की दर्दनाक कहानी है। ‘उस स्त्री का नाम’ में अपने नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेते हुए अमेरिका में आकर वृद्धाश्रम में शरण लेने वाली एक वृद्ध महिला की कारुणिक कहानी है।1
सुषम बेदी की ‘चेरी फूलों वाला दिन’ कहानी में नायिका सुधा सरकारी फ़ंडिंग से चलते असिस्टेड लिविंग होम सिस्टम में रहती है। भारत में वे सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थी। सेवानिवृत्त होने के बाद भारत छोड़कर अपने बेटे, पोतियों के पास अमेरिका आई। उसके बाद उसके साथ दुव्यर्वहार और ठीक-ठाक देखभाल न होने की कारण कई मानसिक यातनाएँ झेलनी पड़ीं। इस कारण उसने दम तोड़ दिया।
सभी कहानीकारों ने बूढ़ी पीढ़ी की यातना के संदर्भ में उनके अकेलेपन, व्यर्थता बोध, फ़ालतू होने के एहसास को मार्मिकता से व्यंजित किया है। सूर्यबाला की ‘निर्वासित’; राकेश वत्स की ‘बंटवारा’; उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’; ज्ञानरंजन की ‘पिता’; श्याम व्यास की ‘डेथ क्लीनिक’; विष्णु प्रभाकर की कहानी ‘खिलौने और बेटे’; सोमा वीरा की ‘पुरानी और नयी लकीरें‘; राजेन्द्र यादव की ‘बिरादरी बाहर’ आदि कहानियों में अमानवीय और क्रूर यथार्थ का चित्रण हुआ है। नयी पीढ़ी पुराने परम्परागत मूल्यों का समर्थन नहीं करती और पुरानी पीढ़ी नये मूल्यों को अपनाना नहीं चाहती।
भारतीय संस्कृति के अनुसार मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव: इस पवित्र भावना का अंश इस दशक की कहानियों में बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। वर्तमान परिवेश में बदलते रिश्तों में आज के पुत्रों में माता-पिता की वंदनीय भावना कम होती जा रही है। पुराने ज़माने में जो सांसारिक समृद्धि और सुरक्षा हेतु रहता था, जिसके सरंक्षण की आशा वार्द्धक्य में पिता और माता का सबसे बड़ा संबल होता था, वही पुत्र आज के युग में अपने माँ-बाप को वर्तमान परिवेश में मिसफ़िट ही पाता है। माता और पुत्र के बीच के सम्बंध का नया रूप मैत्रैयी पुष्पा की कहानी ‘अपना अपना आकाश’ नामक कहानी में दु:खद सामाजिक यर्थाथ बनकर सामने आया है।2
आधुनिक ज़माने की युवा पढ़ी-लिखी पीढ़ी में लक्षित बुज़ुर्गों के प्रति अनादर एवं घृणापूर्ण मनोभावों के कारण विशृंखलित होने वाले माता-पुत्रों के दर्दनाक चित्रों में एक और उदाहरण है सत्यशकुन की कहानी – ‘रोशनी और अंधेरा’ यह कहानी भी मध्यवर्गीय परिवार के माता पुत्रों के बीच के संबंध की कहानी है। आज बूढ़े माता-पिता को पुराने सामान के रूप में देखने वाले बेटों का दारुण रूप हमारे समाज और परिवार की सच्चाई है। इसी तरह की एक और तस्वीर शशिप्रभा श्रीवास्तव की कहानी ‘अन्नपूर्णा’ में मिलती है। पढ़-लिखकर जब बेटा बड़ा हो गया तो क़स्बे के फीके, छोटे और पिछड़े परिवेश में उसके पंख समाए नहीं। उसे चाहिए था विस्तृत आकाश। वह अपने परिवार सहित महानगरों में जा बसा। महानगरीय संस्कृति की मकड़ी अपने मोहक झीने जाल में उन्हें मक्खियों की तरह कस चुकी थी।
समस्त संसार में मानव जीवन में सर्वाधिक आदरणीय और सशक्त माने जाने वाले माता-पिता और पुत्रों के परम्परागत संबंधों का रूप इस दशक की कहानियों में प्रचुर मात्रा में मिलना कठिन लगता है। मानव जीवन में घटित परिवर्तनों का असर इस रिश्ते पर भी पड़ा है। माता की ममतामयी बाँहों में समा जाने वाला बेटा और अपने बेटे के सामने ममता की प्रतिमूर्ति लगने वाली माँ आज की कहानी में विरल ही दिखाई देती है। आज के माँ-बाप बेटों की दया पर पलने वाले दीनहीन उपेक्षित निरीह प्राणी मात्र हैं। इसी सत्य को पाठक के सामने लाती है डॉ. रामदरश मिश्र की कहानी ‘शेष यात्रा’ !
एक समय था, माता-पिता की सेवा देवता की उपासना से भी अधिक श्रेष्ठ मानी जाती थी। मराठी के संत पुंडलीक माता-पिता की सेवा में मगन थे। ऐसे समय उनका सेवा भाव देखकर स्वयं सृष्टि निर्माता बैंकुठाधिपति भगवान विष्णु उन्हें दर्शन देने आए थे। रामायण में एक प्रसंग है जहाँ मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानी आती है जो अपने अंधे माता मिता को काँवर पर बिठा कर तीर्थ यात्रा करवाने निकलता है। आज के युग में कोई ऐसा श्रवण कुमार हो सकता है? इससे स्पष्ट है कि माता-पिता की सेवा से भगवान भी संतुष्ट होते हैं। परन्तु वर्तमान युग में परम्परागत संबंधों में दरार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है।
अर्थवाद युग में माता-पिता और पुत्र के रिश्तों की नींव काग़ज़ के टुकड़ों के समान अर्थहीन नज़र आती है। आज का समाजिक परिदृश्य ही अर्थ से संचालित होता है। आत्मीय रिश्ते भी अर्थाश्रित ही हुए हैं। परम्परागत माता-पिता, संतान संबंध का आदर्श रूप इस दशक की कहानियों में से अधिक अदृश्य हुआ है। माता-पिता और बेटे-बेटी के बीच के अदृश्य हुए रिश्ते को यादवेन्द्र शर्मा चंद की कहानी कोख का हिसाब बड़ी सजीवता से चित्रित करती है।3
संयुक्त परिवार भारतीय समाज की पूर्ण मुख्य इकाई है। आज के विभक्त परिवारों में वह पूर्णत: विभाजित हो गयी है। नगरों में पति-पत्नी, उनके बच्चों का सीमित कुटुम्ब अस्तित्व में हैं। उनकी सारी ज़रूरतें बाहरी स्रोतों से पूर्ण होती हैं। अर्थार्जन मात्र परिवार के सदस्य करते हैं। शहर या विदेश में रहने वाला बेटा माँ-बाप को पैसा भेजकर अपने कर्तव्य की इति करता है। बलराम अग्रवाल की कहानी ‘अज्ञान गमन’ ऐसी ही एक कहानी है। रमा सिंह की कहानी ‘दरार का पीपल’ तीन बेटे और कर्ज़ तले दबते पिता की कहानी है।
पिता-पुत्र के सम्बंध में स्निग्धता एवं माधुर्य के अभाव ने वर्तमान समाज में बाप-बेटे के बीच की स्थिति को दुस्सह बना दिया है। पुराने ज़माने का राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र तो नहीं, लेकिन उनके आदर्श अपनाकर जीने वाले पुत्रों की भी बिल्कुल कमी नज़र आती है। जिस पुत्र को बुढ़ापे की लाठी समझा जाता है जिसकी प्राप्ति के लिए मंदिर में मन्नते माँगी जाती हैं, ऐसे पुत्र आज के युग में सपूत नहीं कपूत लगते हैं। संतोष श्रीवास्तव ‘सैलाब’ कहानी इसका सजीव चित्रण करने में सफल हुई है !
राजी सेठ की कहानी ‘इन दिनों’ में जो माहौल है, वह हमें डराता ज़रूर है परन्तु डरना एक नकारात्मक स्थिति है। इससे उबरना आवश्यक है। इस कहानी की विषय वस्तु सम्पन्न कॉलोनी में अकेले रह रहे वृद्ध दम्पतियों का चित्रण है। कहानी का अंत मृत्यु के भय पर विजय पाने का नहीं, एक ऐसी संस्कृति पैदा करने का है जिसमें वृद्ध अपने को अकेला और असुरक्षित न पाएँ। जो लोग मौत से भी नहीं डरते हैं वे भी ऐसी ज़िंदगी से ज़रूर डरेंगे।
उषा प्रियम्वदा की कहानी ’वापसी’ में नई और पुरानी पीढ़ी का तुलनात्मक विश्लेषण है। वर्तमान समाज पुरानी व्यवस्था एवं मान्यताओं को स्वीकार नहीं कर पाता। पुरानी पीढ़ी के लिए घर में जगह धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है। अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा से दुखित गजाधर बाबू रूपी पुरानी पीढ़ी अकेलेपन को स्वीकारना ज़्यादा उचित समझते हैं।
भीष्म साहनी की असली पहचान एक सफल कहानीकार के रूप में उनकी बहुचर्चित और वज़नदार कहानी ‘चीफ की दावत’ से होती है। इस कहानी में मध्यवर्गीय जीवन के अंतर्विरोध को बहुत सूक्ष्मता से उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। शामनाथ नाम का एक व्यक्ति है जिसके घर पर शाम के समय चीफ़ की पार्टी है। शामनाथ की माँ बहुत ही बूढ़ी और बेडौल शरीर की निरक्षर देशी औरत है। यद्यपि शामनाथ को पढ़ाने-लिखाने और एक ओहदेदार बनाने में माँ अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है, फिर भी शामनाथ और उसकी पत्नी इस बात से परेशान हैं कि चीफ़ की दावत के समय माँ को कहाँ कर दिया जाए ताकि उसकी नज़र से माँ को बचाया जाए और बेइज़्ज़ती न हो जाए। चीफ़ को उस पूरी पार्टी में अगर कोई पंसद आता है तो माँ के द्वारा बनाई गई फुलकारी। इसी प्रकार उनकी दूसरी कहानी है ‘रफतार’ जो महानगरों में वयोवृद्धों के साथ यातायात के दौरान होता है उसका चित्रण है।
सरला अग्रवाल की कहानी ‘पिता की वसीयत’ में पिता यह मानकर कि बेटा बुढ़ापे में मेरा सहारा बनेगा, अपनी वसीयत उसके नाम कर देता है लेकिन बाद में उसे इसका पछतावा होता है।4
आज की युवा पीढ़ी में माता-पिता के प्रति श्रद्धा भाव समाप्त हो गया है जैसे यह संबंध अब ‘न’ के बराबर हैं। राजेन्द्र यादव की ‘लंच टाइम’ और ‘पास फेल’, अमरकांत की ‘डिप्टी कलेक्टरी’ और ‘दोपहर का भोजन’, रवीन्द्र कालिया की ‘पिता’, अन्विता अग्रवाल की कहानी ‘फड़फड़ाहट’ में तो पुत्र अपने पिता की मृत्यु की कामना करता है। सामाजिक परिवेश में वृद्धों की समस्याओं के बारीक़ी अध्ययन के लिए निम्नलिखित कहानियों को चुना जा सकता है: मैत्रीयी पुष्पा –‘हवा बदल चुकी है’, ‘बहेलिए’, मनमोहन मदारिया – ‘कहानी और ज़िंदगी’, ‘एक वांसती रात’, राकेश जैन – ’रन-आउट’, ’करवट’, सत्य शकुन- ’अधजल गगरी’, ’अपराध बोध’, डॉ. रत्न लाल शर्मा – ‘कैसे-कैसे लोग’, गुरुबचन सिंह- ‘भेड़िए’ तथा ’महापुरुष का आगमन’, पुष्पा सक्सेना –‘अपनों जैसा’, ‘क्षति पूर्ति’ इत्यादि।5
निष्कर्षत: यही कहना चाहता हूँ कि मानव जीवन में माता-पिता का संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण, सुखद, परमपवित्र एवं कलयाणकारी होता है। संसार में मातृत्व का पद अत्यंत मूलयवान, निर्मल तथा हितकारी है। उसका स्थान देवतुल्य होता है।अत: सारा संसार उसके समक्ष पूज्य भाव व्यक्त करते हुए उसकी वंदना अर्चना करता है। मात्तृत्व से बढ़कर कोई संपति नहीं है। माता अपनी संतान को अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करती है। साथ ही संतान का सदैव कल्याण चाहती है। परंतु आधुनिक युग में पाश्चात्य शिक्षा व सभ्यता के प्रचार एवं प्रसार के परिणामस्वरूप माता-पिता के प्रति संतान का दृष्टिकोण भी बदलने लगा। आधुनिकता के परिवेश में पले स्वार्थी पुत्र, विवाह के बाद पत्नी के ग़ुलाम बनकर भोले-भाले माता-पिता की ममता और उदारता का दुरुपयोग करते उन्हें दु:खी बनाते हैं। माता-पिता वो अनमोल ख़ज़ाना है जो स्वर्ग में जाने पर भी नहीं मिल सकता। ज़रूरत है आज की युवा पीढ़ी, जो पुराने संस्कारों और प्रथाओं से भटक गयी है, उसे सही मार्ग पर लाने की उनका मार्गदर्शन करने की।
संदर्भ ग्रंथ –
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आधुनिक कहानी संग्रह –संपादक –सरोजिनी शर्मा, प्रकाशक केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, वर्ष 1983 पृष्ठ संख्या -9
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प्रतिनिधि कहानियाँ –प्रकाशक – जयभारती प्रकाशन इलाहाबाद वर्ष 2007 पृष्ठ संख्या 5
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प्रवासी हिंदी साहित्य संवेदना के विविध संदर्भ –संपादक – डॉ. प्रतिभा मुदलियार प्रकाशक –अमन प्रकाशन कानपुर वर्ष 2019 पृष्ठ संख्या 332
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अंतिम दशक की कहानियों में चित्रित विभिनन परिवेश –संपादक –डॉ संजय मादार,प्रकाशक –जवाहर पुस्तकालय मथुरा वर्ष 2012 पृष्ठ संख्या -102,103,107
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कथा साहित्य की सामाजिक भूमिका –संपादक प्रो. संजय मादार प्रकाशक –तक्षशिला प्रकाशन नई दिल्ली वर्ष 2016 पृष्ठ 383
1 टिप्पणियाँ
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पहले तो आप को बहुत साधुवाद । बहुत ही प्रासंगिक मुद्दे पर लिखा है या आपका शोध है । अति आधुनिकतावाद के मोह में संस्कारों को तिलांजलि दी जा रही है । परिवार सिमट रहे हैं , सोच संकीर्ण हो गई है विषय समसामयिक है उपयुक्त है । बधाई ।