हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. रामविलास शर्मा की मान्यताएँ
अश्विनी कुमार लालआचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में हिंदी गद्य के उद्भव और विकास पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। हिंदी भाषा और गद्य के विकास को समझने के लिए शुक्ल जी ने बोलचाल की भाषा, जनता के व्यवहार में आनेवाली भाषा पर अपनी निगाह जमाई है। डॉ. रामविलास शर्मा इस संदर्भ में लिखते हैं- “भाषा का मतलब सबसे पहले जनता के कामकाज की भाषा है, साहित्य की भाषा और उस भाषा की विभिन्न शैलियां बाद में आती हैं। यह एक सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण शुक्ल जी को उन खाई-खंदकों में गिरने से बचाता है जिनमें पड़े हुए हिंदी और भारत की दूसरी भाषाओं के भी अनेक ‘वैज्ञानिक’ आसमान के तारे गिर रहे हैं।”1 आचार्य शुक्ल का मानना है कि यदि किसी भाषा का लिखित रूप मौजूद नहीं है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भाषा कभी बोली ही नहीं जाती होगी। डॉ.शर्मा भी लिखते हैं- “लिखित साहित्य के आधार पर भाषा निश्चित नहीं की जा सकती।”2 इसलिए शुक्ल का मानना है कि भाषा सबसे पहले मौखिम व्यवहार का माध्यम है। इस संबंध में शुक्ल जी लिखते हैं- “पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था। उर्दू का रूप प्राप्त होने के पहले खड़ी बोली देशी रूप में वर्तमान थी।”3
चार्य शुक्ल ने यह भी स्पष्ट किया कि खुसरो से पहले हिंदी में मौखक साहित्य रचा जाता होगा। इस संदर्भ में शुक्ल जी लिखते हैं कि “कोई भाषा हो, उसका कुछ न कुछ साहित्य अवश्य होता है– चाहे वह लिखित न हो, श्रुति परंपरा द्वारा ही चला आता हो। अत: खड़ी बोली के भी कुछ गीत, कुछ पद्य, कुछ तुकबंदियाँ खुसरो के पहले से अवश्य चली आती होंगी।”4 इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने मौखिक साहित्य को भी महत्वपूर्ण माना, जिससे हमारी भाषा के प्राचीनतम रूप का पता चलता है। इसलिए हिंदी भाषा पर विचार करते समय उसकी प्राचीनतम रूप की तलाश की जानी चाहिए जो मौखिम रूप में विद्यमान है। इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा का कहना है कि “साहित्य का माध्यम बनने से पहले कितनी ही शताब्दियों तक भाषा मौखिक रूप में प्रचलित रहती है, लिखित साहित्य ऐसे बहुत-से साधनों पर निर्भर रहता है, जो भाषा के लिए नियामक नहीं हैं। इसलिए उसके मौखिक रूप पर ध्यान देते हुए हिंदी की प्राचीनता पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।”5
आचार्य शुक्ल ने खड़ी बोली के प्रसार का संबंध हिंदू व्यापारी जातियों के साथ जोड़ा है। शुक्ल जी लिखते हैं- “दिल्ली के आसपास के प्रदेशों की हिंदू व्यापारी जातियाँ (नगरवाले, खत्री आदि) जीविका के लिए लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना आदि पूर्वी शहरों में फैलने लगी।”6 वहीं वे खड़ी बोली के प्रसार का संबंध मुसलमानों के फैलने से जोड़ते हैं। उन्होंने लिखा है- “देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी।”7 इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने खड़ी बोली के प्रसार में हिंदुओं एवं मुसलमानों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी है।
डॉ. रामविलास शर्मा, आचार्य शुक्ल से उपर्युक्त संदर्भ के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करत हुए लिखते हैं- “न तो खड़ी बोली केवल हिंदू व्यापारी जातियों के साथ फैली, न मुसलमानों के फैलने और दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ उसका संबंध है। खड़ी बोली के प्रसार का संबंध हमारे जातीय निर्माण से है, अवध, ब्रज आदि जनपदों के अलगाव टूटने से, व्यापार की मंडियां कायम होने से है और इस प्रक्रिया में हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे।”8 इस प्रकार डॉ. रामविलास शर्मा ने खड़ी बोली के प्रसार का संबंध जातीय निर्माण से जोड़ा है जो कहीं न कहीं ठीक भी है। वहीं शुक्ल जी खड़ी बोली के प्रसार का संबंध बाजारों से जोड़ते हैं। इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- “शुक्ल जी ने बाजारों के साथ खड़ी बोली के प्रसार का संबंध जोड़ा, यह उनकी सूझबूझ का बहुत बड़ा प्रमाण है। वैज्ञानिक इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सामंतवाद के पतनकाल में, पूँजीवाद के उत्थान काल में, बाजारों के कायम होने के साथ जातियों का निर्माण भी होता है।”9
खड़ी बोली हिंदी गद्य के विकास में आचार्य शुक्ल अंग्रेजों के योगदान को नहीं स्वीकार करते, क्योंकि शुक्ल जी के सामने खड़ी बोली के प्रसार के ऐतिहासिक कारण स्पष्ट थे। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने खड़ी बोली के प्रसार में योगदान तो नहीं दिया बल्कि भाषायिक विभाजन अवश्य पैदा कर दिया। इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन बहुत महत्वपूर्ण है, “अंग्रेजों के आने से पहले हमारे जातीय निर्माण का सिलसिला काफी आगे बढ़ चुका था, उसी के साथ खड़ी बोली के प्रसार का काम भी काफी आगे बढ़ चुका था। वास्तव में अंग्रेजों ने अपनी भेद-नीति से हमारे जातीय निर्माण में काफी अड़ंगे लगाये और भाषा के मामले में दखल देकर हिंदी-भाषी जाति को तोड़ने की काफी काशिश की।”10 इससे तो साफ स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने हमारी जातीय भाषाओं के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी, जो जातीय निर्माण में बाधक सिद्ध हुई। आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट किया है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में खड़ी बोली भिन्न-भिन्न प्रदेशों में शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। इससे तो साफ स्पष्ट है कि अंग्रेजी राज जिस समय भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो चुकी थी। इसलिए खड़ी बोली गद्य के प्रसार में अंग्रेजों का योगदान बतलाना गलत होगा। इस संदर्भ में उन्होंने रामप्रसाद ‘निरंजनी’ के गद्य की मिसाल देकर कहा है कि “मुंशी सदासुख और लल्लू लाल से 62 वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्तकों में ‘योगवाशिष्ठ’ ही सबसे पुराना है, जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है।”11
इस तरह शुक्ल जी ने अंग्रेजों के इस प्रचार का तर्कसंगत खंडन किया कि उन्होंने कलकत्ते में हिंदी-गद्य का पौधा लगाया था। शुक्ल जी की हिंदी, उर्दू संबंधी मान्यताओं के आधार पर डॉ. शर्मा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि वह बुनियादी तौर से हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा समझते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- “बोलचाल की भाषा का सूत्र पकड़े रहने से शुक्लजी इस भ्रम में नहीं पड़े कि हिंदी-उर्दू दो स्वतंत्र भाषाएँ हों।”12 इस प्रकार आचार्य शुक्ल हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा मानते थे। उर्दू खड़ी बोली का ही एक रूप है,यह मान्यता उनकी अनेक उक्तियों में प्रकट होती हैं। उन्होंने इंशा के सिलसिले में लिखा है, “खड़ी बोली उर्दू कविता में पहले बहुत कुछ मँज चुकी थी, जिससे उर्दू वालों के सामने लिखते समय मुहावरे आदि बहुतायत से आया करते थे।”13 शुक्ल जी ने कहीं-कहीं उर्दू को कृत्रिम कहा तथा उसका संबंध मुसलमानों से जोड़ा। पर रामविलास शर्मा यहाँ शुक्ल जी से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखते हैं- “उर्दू लिखने वालों में बहुत हिंदू भी थे, यह सभी जानते हैं। उर्दू में बोलचाल का रूप मौजूद है और बहुत अच्छी तरह मौजूद है, यह भी लोग जानते हैं। सदासुख लाल, लल्लू जी लाल, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बालमुकुन्द गुप्त आदि गद्य के जन्मदाता उर्दू के अच्छे लेखक थे। उनके उर्दू लेखक होने का असर उनकी हिंदी पर भी पड़ा और यह असर अच्छा था, यह भी लोग जानते हैं। अगर उर्दू कृत्रिम ही होती तो ये लोग उससे कुछ सीखने लायक क्या सीखते? और इनके बाद भी प्रेमचंद, पद्मसिंह शर्मा आदि लेखक हिंदी-उर्दू में समान रूप से अच्छा क्यों लिखते ?”14
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते थे। इनके तमाम साहित्य को एक ही जाति का साहित्य कहा है। अंग्रेजों ने हिंदी-उर्दू के बीच विभाजक रेखा खींच कर, उनका संबंध मजहब से जोड़ दिया है जो हमारे जातीय एकता में बाधक सिद्ध हुई है। डॉ. रामविलास शर्मा इस संदर्भ में लिखते हैं- “हिंदी-उर्दू विवाद को इतना जहरीला बना दिया गया है कि बहुत से लोग भूल गए हैं कि वे एक ही बोलचाल की भाषा के दो रूप हैं, इनका तमाम साहित्य भला-बुरा जो कुछ है, एक ही जाति का साहित्य है। जैसे-जैसे लोग यह समझेंगे कि हिंदी-उर्दू वाले एक ही प्रदेश के रहने वाले हैं, एक ही कौम हैं, उनकी बोलचाल की भाषा एक है और इसलिए उनके साहित्य की भाषा को भी एक होना पड़ेगा, वैसे-वैसे यह अलगाव कम होगा।”15 इस प्रकार डॉ. रामविलास शर्मा ने हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा की दो शैलियों के रूप में देखा, जो ठीक भी है।
आधुनिक हिंदी साहित्य का उत्थान काल आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लिए हिंदी भाषा जनता के लिए जातीय और जनवादी साहित्य का भी उत्थान काल है। डॉ. रामविलास शर्मा इस संदर्भ में लिखते हैं- “इसी युग में हिंदी साहित्य सामंती प्रभावों से मुक्त करके राष्ट्रीय स्वाधीनता, जातीय एकता और जनता की सेवा के नये रास्ते पर ले चलने की कोशिश की गई। सामंती प्रभाव एकाएक खत्म नहीं हो गए, खासकर कविता में वह काफी दिन तक जम रहे। लेकिन गद्य में रूढ़िवाद का असर कम हुआ और जल्दी कम हुआ। गद्य का यह विकास आसानी से, बिना संघर्ष के नहीं हुआ, रूढ़िवादी विचारधारा गद्य का रुढ़िवादी रूप भी चाहती थी, प्रगतिशील विचारधारा गद्य के रूप को स्वाभाविक बोलचाल के ज्यादा नजदीक लाना चाहती थी। साहित्य की विषय-वस्तु ने उसके रूप पर असर डाला, रूप की तुलना में विषय-वस्तु ने अपनी नियामक भूमिका पूरी की। शुक्ल जी ने इस नयी विषय-वस्तु का समर्थन किया, उसके लोकप्रिय रूप का समर्थन किया।”16 डॉ.रामविलास शर्मा कहते हैं कि भारतेन्दु ने भाषा को संवारने या उसका रूप स्थिर करने के साथ साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया। भारतेन्दु से पहले भक्ति, श्रृंगार आदि की पुराने ढंग की रचनाएँ चली आ रही थीं। अब ये रचनाएँ इस युग के अनुरूप नहीं थी। राष्ट्रीय भावना एवं सामाजिक समस्याओं से युक्त रचनाएँ लिखी जाने लगीं। पहली बार हमारा साहित्य यथार्थ से संबद्ध हुआ। हमारे जीवन तथा साहित्य में जो विच्छेद था, भारतेन्दु ने उसे दूर किया। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “बंग देश में नए ढंग के नाटकों और उपन्यासों का सूत्रपात हो चुका था, जिनमें देश और समाज की नई रुचि और भावना का प्रतिबिम्ब आने लगा था। पर हिंदी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था। भारतेन्दु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था, उसे उन्होंने दूर किया।”17
संदर्भ सूची
1. शर्मा रामविलास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1993, पृष्ठ-133
2. वही, पृष्ठ-133
3. शुक्ल रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 24वां संस्करण, सन् 1991, पृष्ठ-224
4. शर्मा रामविलास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1993, पृष्ठ-135
5. वही, पृष्ठ-135
6. शुक्ल रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 24वां संस्करण, सन् 1991, पृष्ठ-224
7. वही, पृष्ठ-224
8. वही, पृष्ठ-137
9. शर्मा रामविलास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1993, पृष्ठ-137
10. वही, पृष्ठ-139
11. शुक्ल रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 24वां संस्करण, सन् 1991,पृष्ठ-225
12. शर्मा रामविलास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1993, पृष्ठ-139
13. शुक्ल रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 24वां संस्करण, सन् 1991, पृष्ठ-229
14. शर्मा रामविलास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1993, पृष्ठ-141
15. वही, पृष्ठ-141
16. वही, पृष्ठ-143
17. शुक्ल रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 24वां संस्करण, सन् 1991, पृष्ठ-246
अश्विनी कुमार लाल
शोधार्थी
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