हिन्दी, गढ़वाली भाषा की सुन्दर और सार्थक कविताओं का संग्रह है: ’उकाल उन्दार’

03-07-2007

हिन्दी, गढ़वाली भाषा की सुन्दर और सार्थक कविताओं का संग्रह है: ’उकाल उन्दार’

डॉ. शैलजा सक्सेना

पुस्तक:  उकाल-उन्दार (द्विभाषीय काव्य संग्रह)
लेखक: पाराशर गौड़
प्रकाशक : साहित्य कुंज प्रकाशन, टोरोंटो, कैनेडा
सम्पर्क: sahityakunj@gmail.com

पाराशर गौड़ मूलत: गढ़वाली के लेखक हैं। अपने प्रदेश की बोली के प्रति उन्होंने अपना धर्म निबाहा है पर साथ ही अपनी राष्ट्रभाषा का ऋण भी चुकाया है। इस काव्य संग्रह में उन्होंने गढ़वाली की कविताएँ हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत की हैं। भाषाओं के सौंदर्य को बाँटने का इस से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है? यहाँ गढ़वाली बोलने वाला व्यक्ति गढ़वाली शब्दों के हिन्दी रूपांतर को पढ़ता हुआ उनके सौंदर्य को सराह सकता है और हिन्दी बोलने वाला पाठक हिन्दी शब्दों के गढ़वाली रूप को ढूँढ कर उनकी मिठास का आनन्द ले सकता है। भाषाओं को आमने-सामने खड़ा कर देने का यह सफल कार्य भारत से बाहर टोरांटो, कनाडा में हुआ है, इस बात का भी अपना एक महत्त्व है। इस से यह पता चलता है कि भारतवंशी भारत से बाहर अपनी भाषाओं को बचा ही नहीं रहें है अपितु उनको समृद्ध भी कर रहें हैं, उनका प्रचार- प्रसार भी कर रहे हैं, और नये प्रयोग कर के विभिन्न भाषाओं को पास-पास ला रहे हैं, इस बात का हम सब भारतवासियों को गर्व होना चाहिये।

विषय की दृष्टि से यह काव्य संग्रह एक क्षुब्ध, क्रोधित भारतीय का भारतीय राजनीति और भारतीय समाज पर किया हुआ एक सशक्त हस्ताक्षर है। इस काव्य संग्रह की कविताएँ उत्तराखँड की माँग के कारण और उसके औचित्य को बताती हैं कि राजनैतिक चालों और मक्कारी से परेशान आया हुआ एक भारतीय अपने प्रदेश के स्वतंत्र अस्तित्त्व की माँग क्यों करता है, कैसे यह माँग आँदोलन बनती है और उस माँग को पूरा करने वाले नेता कैसे उत्तराखँड का नाम बदल कर अपनी चाल चल कर आँदोलनकर्ताओं को ठेस पहुँचाते हैं। अपने प्रदेश से प्रेम करने वाले, उसके विकास की चिंता करने वाले कवि ने पहाड़ के सौंदर्य को और उसके जीवन की विकट कठिनाई को पूरी सच्चाई के साथ अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया है। वे "समस्या" कविता में कहते हैं :

"यूँ तो
 मेरे पहाड़ में सब कुछ है
 लेकिन आदमी नहीं
जो उठा सके उसका भार"

ये पंक्तियाँ पहाड़ की कड़वी सच्चाई बताती है। प्रश्न यह है कि पहाड़ पर आदमी क्यों नहीं है? पहाड़ से नीचे मैदानों में और मैदानों से और बाहर जाने के लिए आदमी क्यों विवश है? आदमी का भरण पोषण कर पाने में क्यों असमर्थ है पहाड़? आदमी के पहाड़ों से नीचे उतर जाने के बाद पीछे कौन रह जाता है?? जो असमर्थ बूढ़े और औरतें पीछे रह जाती हैं, उनका जीवन कैसे चलता है?..ये सब प्रश्न नहीं हैं, ये सब पहाड़ की जलती हुई सच्चाई हैं, जो सरल शब्दों में नुकीली चोट लिए हुए पाराशर जी की कविताओं में प्रस्तुत है। पहाड़ों की बात करते हुए यह सारा बिम्ब, ये सारे प्रश्न और ये सारी स्थिति भारत से बाहर जाने वाले भारतीयों और पीछॆ रह जाने वाले बूढ़े माँ-बाप पर भी पूरी तरह से सही उतरती है।

पाराशर जी की कविताओं में आदमी के राजनीति में बदलते जाने के प्रति क्षोभ है, राजनीति के स्वार्थ की दानवता में बदलते जाने के प्रति क्रोध है, उस स्वार्थ से अपनी मातृभूमि के उजडने, पहाड़ी आदमी के चरित्र के बदलते जाने का दर्द है और फिर पहाड़ के सौंदर्य और वहाँ के साधारण

जीवन के प्रति कवि के मन में प्रेम, ममता उमड़ती है..कवि एक माँ हो जाता है जो अपने पुत्र को देख कर कभी खुशी से भर उठती है, कभी उस पर गर्व करती है कभी उस के व्यवहार को देख कर क्षुब्ध हो जाती है और कभी उसके स्वार्थीपन पर क्रोधित होती है...कवि के मन के भावों का यह "उकाल-उन्दार" यानि उतार-चढ़ाव अपने स्वानुभूत सत्य और ईमानदारी के साथ इतने सरल और पैने रूप में इस काव्य-संग्रह में उपस्थित है कि कोई भी पाठक उसे पढ़ कर उस से अछूता नहीं रह सकता। पाठक भी कवि के साथ-साथ भावों के उतार चढ़ाव में बहेगा और सोचेगा कि क्या कविता बिना छ्न्दों, बिना अलंकारों और बिना उपमाओं के भी इतनी सुन्दर हो सकती है?? इतनी सशक्त हो सकती है??

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