हिन्दी दलित आत्मकथाओं में जीवन की त्रासदी

01-05-2019

हिन्दी दलित आत्मकथाओं में जीवन की त्रासदी

आनंद दास

हिंदी साहित्य के गद्य लेखन में 'आत्मकथा विधा' का अपना एक अलग ही महत्व है। दलित साहित्य की रचनाशीलता में काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, पत्रकारिता, संस्मरण, साक्षात्कार, रेखाचित्र आदि मुख्य हैं। पर हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथाओं को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। दलित आत्मकथाओं में दलितों की स्वानुभूति होती है, जो भुक्तभोगी या भोगे हुए दलित, दमित, उत्पीड़ित, प्रताड़ित, उपेक्षित जीवन का साहित्य है। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन ने लिखते हैं- "दलित आत्मकथाओं में दलित छवि एक सचेतन आत्म संघर्षरत स्वाभिमानी व्यक्ति की छवि के रूप में उभरकर सामने आई है। दलित आत्मकथाकार अतीत की भद्दी तस्वीरें देखते हैं। साथ-साथ उन हाथों को भी पकड़ते हैं जिन्होंने कई सौन्दर्य से भरी जीवन झाँकियों पर ईर्ष्यावश कालिख पोत दी है। इतिहास विहीन समाज में ये आत्मकथाएँ सूचनाओं, तथ्यों और स्थितियों के ऐसे प्रमाण जुटाती हैं जिन के बग़ैर हिन्दी समाज का अध्ययन अधूरा है।"1 दलित आत्मकथाएँ सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करते हुए, मानवीय समता, स्वतंत्रता, न्याय, भाई-चारे की प्रेरणा देती है। दलित साहित्य की आत्मकथाएँ दलित संघर्ष की सार्थकता को रेखांकित करती है। हिंदी में दलित आत्मकथाओं की लेखन परंपरा मराठी के बाद शुरू हुई है। मराठी आत्मकथाओं की लेखन परंपरा की शुरूआत स्वतंत्रता के बाद शुरू हुई वहीं हिंदी में दलित आत्मकथाओं की लेखन परंपरा की शुरूआत नब्बे के दशक से मानी जाती है।

हिंदी दलित आत्मकथाओं में मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरे भाग-1 और भाग-2, ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन भाग-1 और जूठन भाग-2, सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत और संतप्त, डी. आर. जाटव की आत्मकथा 'मेरा सफर मेरी मंजिल', कौशल्या बैसंत्री की दोहरा अभिशाप, पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद की आत्मकथा 'झोपड़ी से राजभवन', के.नाथ की तिरस्कार, रमाशंकर आर्य की घुटन, डॉ. तुलसी राम की मुर्दहिया और मणिकर्णिका आदि आत्मकथाएँ मुख्य हैं।

मोहनदास नैमिशराय ‘अपने अपने पिंजरे’ के माध्यम से उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के चमारों की स्थिति और उनके त्रासदी भरे जीवन को अंकित किया है। चमार दरवज्जे के मोहनदास नैमिशराय का परिवार अन्य चमारों से संपन्न अवश्य है लेकिन कथित छोटी जाति के होने के कारण उनको और उनके परिवार को अपमान के दंश झेलने पड़ते हैं। कभी चप्पलों का ठेकेदार उनका दोहन करता है तो कभी सवर्ण हिंदुओं की तरह मुसलमान नवाबों ने उनका शारीरि‍क, आर्थिक और मानसिक शोषण किया है। नैमिशराय लिखते हैं– “हमारे मुसलमान पड़ोसी भी अधिकांश मजदूरी पेशा करते थे उनके कोई सैय्यद, शेख, पठान न था। अधिकांश जुलाहे, कसाई, कलाल, अंसारी ही थे पर उनके तेवर पठानों से कम न थे। बोलने का लहजा उसी मानसिकता से प्रभावित था। वे बात-बात पर हमें चमट्टे कहते थे और महिलाओं को चमट्टी। हम उनकी नजरों में घटिया लोग थे। हमारी जाति की औरतों को तो बार-बार जलील होना पड़ता था। कभी–कभी वे ऐसा भी सोचते थे कि हम उनके रहमो–करम पर जिंदा हैं।”2 ज़ाहिर है सभी धर्मों पर ब्राह्मणवाद का प्रभाव है। इसीलिए हिंदुओं से इतर धर्मांतरित बौद्ध, ईसाई और अन्य धर्मों के लोग चमारों के साथ हिंदुओं जैसा ही व्यवहार करते हैं।

घर के वातावरण से बच्चा अधिक प्रभावित होता है, यदि घर का वातावरण अच्छा है तो ठीक है, लेकिन यदि घर एवं समाज का माहौल ख़राब है तो बच्चे उससे बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। उन्हें अच्छे-बुरे के बीच का पता नहीं चलता और वह बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं। इसका एक बहुत बड़ा कारण है अशिक्षा। यदि बच्चों को अच्छी शिक्षा न दी जाए तो वह ग़लत दिशाओं पर निकल पड़ते हैं। अशिक्षा सदियों से ही दलितवर्ग की बहुत ही कठिन समस्या रही है। यह कुव्यवस्था, अशिक्षा के कारण आज दलित वर्ग अपने जीवन में दो वक़्त के भोजन की व्यवस्था के लिए मोहताज़ हो गया है। वह अपनी भूख शांत करने के लिए इस गंदे समाज मे कोल्हू के बैल की तरह अपने-आप को जोत रहा है। आज समाज का स्तर इतना गिरता जा रहा है कि समाज में व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से नहीं, बल्कि इसकी जाति से की जाती है। इसी संदर्भ में मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं कि – “हमारे स्कूल को बाहर अक्सर चमारों का स्कूल कहा करते थे। जैसे चमारों का कुँआ, चमारों का जल, चमारों की नीम, चमारों की गली, चमारों की पंचायत आदि। वैसे ही स्कूल के साथ जुड़ी थी हमारी जात। जात पहले आती थी स्कूल बाद में। यही कारण था कि इस स्कूल में कभी भी गिनती के पूरे अध्यापक न हुए थे। दो-दो और कभी तीन-तीन कक्षाओं को एक-एक अध्यापक ही संभालता था। बच्चे भेड़ बकरी की तरह कमरों में भरे होते थे। अध्यापक लंबी छुट्टी पर रहते थे या फिर दूसरे स्कूल में किसी न किसी तरह ट्रान्सफर करा लेते थे।"3 इस तरह समाज में चाहे वह मंदिर हो, कुँआ हो, या स्कूल हो, उनके साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था। इस प्रतिकूल वातावरण के कारण ही अशिक्षा इस वर्ग विशेष की बहुत बड़ी समस्या के रूप में समाज में व्याप्त हो गई। इसी समस्या के रहते वह अपना विकास नहीं कर सके, और उनकी दशा दिन पर दिन जर्जर होती गई।

‘जूठन’ जातिगत उत्पीड़न और अतिदलित समाज के संघर्ष का आख्यान है। यह आत्मकथा नहीं अतीत की घटनाओं और पीड़ादायी अनुभवों से उपजी कराह है, जहाँ लेखक ही नहीं समय-समाज भी उपस्थित है— यातनामय भयावहता के साथ। आत्मकथा में उपेक्षा-अत्याचार का अनवरत सिलसिला है, जिससे आक्रोश-विरोध का उपजना स्वाभाविक है। इससे गुज़रते हुए संवेदनशील पाठक की साँसें थम सकती हैं, नसें फट सकती हैं। ऐसी ही घटनाएँ और परिस्थितियाँ दलित साहित्य के उद्भव के मूल में हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मस्वीकृति में सच्चाई है। समाज के सबसे पवित्र और उत्कृष्ट प्रतीक स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय और उसके पवित्र नियंता शिक्षक दलितों के प्रति कितने संवेदनशील और पवित्र हैं, इसे आज भी देखा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर शोध-कार्यों तक उनके साथ इन सवर्ण गुरुओं का क्या व्यवहार होता है? इसे एक दलित छात्र ही जानता है। इस पीड़ा को दलित बालक ओमप्रकाश के संदर्भ में और भी शिद्दत के साथ देखा जा सकता है। दलित बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि को चूहड़ा समझकर हेडमास्टर दिन भर लेखक से झाड़ू लगवाता है। लेखक के शब्दों में- ‘‘दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर से झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊँगा। तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया... अपनी माँ...’ उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी (सवर्ण) लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा के बाहर खींचकर उन्होंने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू...नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।"4 स्कूल के मास्टर से लेकर गाँव-घर के सामन्त व सेठ-साहूकार तक सभी दलित जीवन को लीलने के लिए तैयार बैठे थे। ‘जूठन’ आत्मकथा दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज़ है। जीवन की सुख-सुविधा और तमाम नागरिक सहूलियतों से वंचित दलित जीवन की त्रासदी उनके व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार, बस्ती और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है। दलितों का जीवन ऐसा था कि कोई सामन्त व सेठ-साहूकार दलितों को नाम से पुकारने की किसी को आदत नहीं थी। उनके संबोधन का तरीक़ा यह होता था, अगर उम्र में बड़ा हो तो ‘ओ चूहड़े’, बराबर या उम्र में छोटा है तो ‘अबे चूहड़े के’। छुआछूत व अस्पृश्यता का एक ऐसा माहौल था कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस या अन्य किसी जानवर को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े (मनुष्य) का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। यानी दलितों का समाज में कोई मान-सम्मान, इज़्ज़त, अस्मिता, तथा अपनी पहचान कुछ भी नहीं थी सिवाय 'चूहड़े’ के। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्जा ख़त्म कर दिया गया था।

‘जूठन’ में दलितों को किस प्रकार 'बेगार' करनी पड़ती थी उसे भी लेखक ने बताया है। सवर्ण ज़मींदार दलितों से ज़बर्दस्ती से अपने खेत में काम करवाते थे। अगर कोई नहीं करता तो उसे दंड भी दिया जाता था। इस प्रथा ने दलितों के मान-सम्मान को कुचल दिया है। ऐसा ही प्रसंग लेखक के जीवन में भी आया है। जब लेखक दसवीं कक्षा में होते हैं तब वे अपनी परीक्षा की तैयारी करते हैं। उनके दो पेपर लिखना भी बाक़ी होता है। तीसरे पेपर की तैयारी शुरू करते हैं। तब गाँव का सवर्ण ज़मींदार लेखक के पास आता है और ज़बरदस्ती से बेगार करने ले जाता है। किंतु लेखक आने के लिए तैयार नहीं होते फिर भी वह क्या कहता है, लेखक बताते हैं- "रात को पढ़ लियो ...अब मेरे साथ चल ईख बोना है। फौजी ने आदेश  दिया। मैंने उससे बहुत कहा कि मुझे पढ़ना है, कल मेरा पेपर है, लेकिन वह नहीं माना। जबरदस्ती बांह पकड़कर खींचते हुए खेत पर ले गया। डरा-धमकाकर काम पर लगा दिया। गालियों की बौछार में मेरा मस्तिष्क  दहकने लगा। मेरे भीतर आग भर गई थी उस रोज त्यागियों के ये जुल्म मेरी स्मृति में बहुत गहरे तक भरे हुए हैं जिनकी तपाशे में मैं अनेक बार झुलसा हूँ।"5 इस प्रथा का जन्म 'सामंती समाज' की देन ही है जिसे दलितों ने कई पीढ़ियों तक इसे भोगा है। सामंती व्यवस्था में विलासिता की दृष्टि ज़्यादा दिखाई देती है। जिसमें ग़रीबों  को कुचलकर धन इकट्ठा किया। इस बेगारी में दलितों पर शारीरिक अत्याचार भी होने लगते थे। ग़रीब दलित शोषण के भाग्य का विधान मानकर अपनी असमर्थता और असहाय व्यवस्था का परिणाम मानकर निरंतर इस वक्र में पिसता रहा। सामंती उच्चवर्ग दिन, दलितों की हड्डियों से पासे निचोड़ते रहे। बेगारी प्रथा ने दलितों के जीवन में अंधेरा भर दिया था। 'जूठन' आत्मकथा में भी 'बेगारी' प्रथा का चित्रण आया है। लेखक के पूरे परिवर को माँ से लेकर भाई सभी को हिंदू, मुसलमानों के घर में साफ-सफाई करना पड़ता था। गाय, भैंस, बैल का गोबर उठाना पड़ता था। गोबर और मूत्र पूरे दलान में फैलाने पर दुर्गंध होती थी फिर भी उन्हें गोबर ढूँढ़कर निकालना पड़ता था। इन सभी के बदले उन्हें पैसे नहीं दिए जाते बल्कि क्या मिलता था? इस प्रसंग को लेखक व्यक्त करते हैं - "इन सब कामों के बदले मिलता था दो जानवर के पीछे फसल के समय पाँच सेर अनाज यानी लगीभग ढाई किलो अनाज। दस मवेशी वाले घर से साल भर में 25 सेर (लगभग - 12,13 किलो) अनाज, दोपहर को प्रत्येक घर में एक बची-खुची रोटी, जो खास तौर पर चूहड़ों को देने के लिए आटे में भूसी मिलाकर बनाई जाती थी। कभी-कभी जूठन भी भंगन की टोकरी में डाल दी जाती थी।"6  इस प्रकार पूरे साल भर काम करने क बावजूद 12-13 किलो अनाज दिया जाता था और बात करने का लहजा भी बड़ा क्रूर होता था। फिर भी दलितों ने इतने कष्ट होने के बावजूद अपने आपको बचाकर रखा यही बड़ी बात है।

'जूठन भाग-2’ की शुरुआत वाल्मीकि जी का देहरादून में तबादला होने की घटना से होती है। तबादला उनके जीवन में त्रासदीपूर्ण घटनाएँ लेकर आती है। वे अपने सास-ससुर के शहर में आकर बेहद ख़ुश थे परन्तु इस शहर का व्यवहार पढ़े-लिखे और अच्छी नौकरी पेशा दलित के प्रति भी कितना रूढ़िवादी है यह देखकर वे दंग रह जाते हैं। दरअसल वे अपने और अपनी पत्नी के लिए एक किराए का मकान ढूँढ़ रहे थे। देहरादून के मकान मालिकों की जातिवादी मानसिकता के चलते उन्हें काफ़ी समय तक कोई मकान किराए पर नहीं मिल पा रहा था। मकान मालिक सबसे पहले ओमप्रकाश जी से उनकी जाति पूछते और जाति ज्ञात होते ही मकान किराये पर देने से साफ़ इनकार कर देते। “मकान मालिक साफ़ शब्दों में कहते थे- “ना जी, किसी चूहड़े-चमार को हम मकान नहीं देंगे।” इस उत्तर पर उलटे पाँव लौटना पड़ता था।”7  यहाँ महानगरों में भी दलितों के साथ किया जाने वाला जातिवादी व्यवहार साफ़ नज़र आता है। अपनी इस स्थिति पर वाल्मीकि जी स्वयं को हीन मानने के स्थान पर महानगरीय समाज की ऐसी रूढ़िवादी सोच पर लानत जताते हुए बोले- “यदि आधुनिक कहे जाने वाले पढ़े-लिखे लोगों के इस शहर देहरादून की यह हालत है तो छोटे शहरों में तो दलितों को मकान मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। मेरे जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति को यदि यह शहर स्वीकार करने को तैयार नहीं तो शर्मिंदा मुझे नहीं इस शहर को होना चाहिए।”8 यहाँ एक दलित का स्वाभिमानी रूप नज़र आता है जो अपनी सच्चाई को छिपाए बिना दुनिया के समक्ष अपनी वास्तविकता के साथ खड़ा है। वे अपनी जाति छिपाकर या झूठ बोलकर किराए का मकान हासिल करने के पक्ष में नहीं थे और न ही भारतीय जाति आधारित मानसिकता के समक्ष घुटने टेकना चाहते थे। सदियों से जातिवादियों की यह मान्यता रही है कि दलितों में न तो किसी प्रकार की प्रतिभा होती है और न ही योग्यता। यही कारण है कि दलितों को शिक्षा से दूर रखा गया। जब दलित किसी प्रकार से शिक्षित होकर विभिन्न विभागों में काम करने लगते हैं तब भी उन्हें यही जताया जाता है कि वे ‘दलित’ जाति से हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि दलित आत्मकथाओं के द्वारा दलितों के त्रासदीपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति हुई है जो सामाजिक यथार्थ से परिपूर्ण है।

संदर्भ ग्रंथ सूची:

1. वंचितों के वृत्तांत लेख: डॉ. श्योराज सिंह बेचैन, जनसत्ता दैनिक दिल्ली, 25 नवंबर 2001
2. नैमिशराय मोहनदास, अपने-अपने पिंजरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-110002, पृ.सं.- 18
3. नैमिशराय मोहनदास, अपने-अपने पिंजरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-110002, पृ.सं.-33 
4. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण-1999, पृ.सं.- 15 
5. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण-1999, पृ.सं.- 72  
6. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण-1999, पृ.सं.- 19 
7. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन-दूसरा खंड, राधाकृष्ण प्रकाशन, दूसरा संस्करण-2015 पृ.सं.- 29 
8. वाल्मीकि ओमप्रकाश, जूठन-दूसरा खंड, राधाकृष्ण प्रकाशन, दूसरा संस्करण-2015, पृ.सं.- 29                 

आनंद दास, 
सहायक प्राध्यापक,  
श्री रामकृष्ण बी.टी. कॉलेज, दार्जिलिंग,  
ई.मेल.- anandpcdas@gmail.com

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