हिल स्टेशन की शाम— व्यक्तिगत अनुभवों की सृजनात्मक परिणति 

15-05-2020

हिल स्टेशन की शाम— व्यक्तिगत अनुभवों की सृजनात्मक परिणति 

डॉ. राजेन्द्र  वर्मा (अंक: 156, मई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)


पुस्तक : हिल स्टेशन की शाम (कहानी-संग्रह)
लेखक : पद्म गुप्त अमिताभ
प्रकाशक : अभिव्यक्ति प्रकाशन 29/61, गली नं. 11, विश्वास नगर, दिल्ली-110032 

“हिल स्टेशन की शाम” पद्म गुप्त अमिताभ का पहला कहानी-संग्रह है। इससे पहले उनका एक काव्य-संग्रह 1987 में ‘घायल घोड़े नीली धूप’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। भारतीय संचार निगम में अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए भी इनकी साहित्य में निरंतर रुचि बनी रही। पद्म गुप्त अपने विद्यार्थी जीवन से ही अध्ययनशील रहे हैं। इन्होंने अँग्रेज़ी के माध्यम से अमेरिकी, अँग्रेज़ी, यूनानी, रशियन, जर्मन साहित्यकारों का अध्ययन किया और कुछ रचनाकारों की कविता-कहानियों का हिंदी में अनुवाद भी किया। इस संग्रह की कहानियों में अधिकांशतः कहानीकार के जीवन के व्यक्तिगत अनुभवों की सृजनात्मक परिणति हुई है। जिस प्रकार डी.एच. लॉरेंस के बारे में कहा जाता है की उनकी कृतियाँ मुख्यतः वैयक्तिक जीवन के गहन अनुभवों से अनुप्राणित हैं, उसी प्रकार पद्म गुप्त की कहानियों में कहानीकार स्वयं अनेकशः मौजूद है। समीक्ष्य कृति पर बात करते हुए मेरा कहानीकार की डी.एच. लॉरेंस जैसे महान रचनाकार से तुलना करने का कोई इरादा नहीं है, किन्तु इतना अवश्य है कि उनकी कहानियों में कल्पना की उड़ान नहीं हैं, न वे किसी विचार-विशेष की अनुगामिनी हैं और न ही उनमें पाठकों को प्रभावित करने की कृत्रिम चेष्टा या कोरा बुद्धिविलास है।

“हिल स्टेशन की शाम” शीर्षक कहानी जो इस कहानी-संग्रह का शीर्षक भी बनी है, कदाचित् इस संग्रह की सबसे सशक्त कहानी है। इस कहानी में प्रेम को व्यापक सन्दर्भों से जोड़ा गया है। कहानी का प्रारंभ ही जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला है— “सुमि उस अंतिम वाक्य को पढ़ कर असहज हो गई।” किन्तु वह वाक्य क्या था, यह हमें पता चलता है कहानी के अंत में और वह वाक्य था— “सुमि, वी कुड इवन हैव मैरिड” और इस अन्तराल में नवीं कक्षा में पढ़ने वाली सुमि चालीस वर्ष की हो जाती है। यही है कहानी का पूरा फ़लक। सुमि का उत्तर भी सकारात्मक है— “येस अजय भाई साहब वी सर्टेनली कुड हैव।” बल्कि वह तो जोड़ती है— “वी शुड हैव” किन्तु सुमि ने इस बीच न केवल अपने पापा की लाडली बन कर उनकी सारी ज़िम्मेवारियों को ओढ़ लिया है बल्कि उनके व्यक्तित्व की छाप ऐसी कि बस देह का ही अन्तर है। पूरे परिवार पर उसका सिक्का भी चलता है। इस बीच सुमि और अजय, जो कि वास्तव में सुमि के बड़े भाई का सहपाठी और मित्र है, का रिश्ता भी तो एक आदर्श दोस्ती की मिसाल बन गया था और उस छवि को अब ध्वस्त नहीं किया जा सकता! सम्बन्ध कैसा? ज़रा ग़ौर कीजिए— “मिलते तो गले लगकर। बातचीत के दौरान आवेश के अनेक क्षणों में एक-दूसरे के हाथ थाम लेना सामान्य था। पगडंडियों में हाथ थामे चलते। सुमि उद्विग्न होती तो अजय ने कितनी ही बार उसे कंधे से लगाकर उसकी पीठ, गालों और बालों को थपथपाया था। किन्तु ऐसी नज़दीकियों से दो युवा शरीरों में पैदा होने वाली आग कभी नहीं भड़की। इस साहचर्य में शरीर की भूख नहीं थी। अजय ने सुमि को कभी प्रेमिका की तरह देखा, सोचा ही नहीं।”(पृ.71) लेखक संकेत करता है कि— “प्रेम करने वाले तो सृष्टि के तमाम प्रश्नों के उत्तर शारीरिक आकर्षण के इंद्रजाल में बुनने की इच्छा रखते हैं। उनकी नियति एक-दूसरे को पा लेने में ही है। अपने प्रेम की पराकाष्ठा के सत्य में, जगत के सत्य को उद्घाटित कर लेने की चेष्टा।” (पृ.71) कहानी में एक तनाव, एक आकर्षण, एक दायित्व-बोध, एक अधिकार, एक संकल्प बराबर विद्यमान है। कहानी में वास्तव में स्त्री-पुरुष के साहचर्य को केन्द्र में रख कर एक विमर्श विद्यमान है; रिश्तों और संबंधों की सार्थक संगति का प्रश्न, अजय के लिए तो उसका अनुभव एक विसंगति बन कर विद्यमान होता है जबकि सुमि अपने लिए शायद कभी सोच ही नहीं पायी। अजय के पत्र की यह पंक्ति “सुमि वी कुड इवन हेव मैरिड” के उत्तर में सुमि लिखती है— “वी शुड हैव” और यह भी कि “हम एक दूसरे के पूरक हो सकते थे।” किन्तु अब चुनौती थी उस छवि को सुरक्षित रखने की जिसमें प्रेम तो था, किन्तु था एक विश्वास और सम्बन्ध की एक पवित्रता। इसको विवशता कहना सुमि और अजय के चरित्र को बौना बनाना होगा।      

“गैलीलियो की बेटी”, “बाढ़”, “सुरंग” और “सुनो कांट! यह उधार ही रहने दो” कहानियाँ प्रेम को अलग-अलग कोण से देखने का प्रयास करती हैं। “गैलीलियो की बेटी” शीर्षक सांकेतिक है। अरस्तू, कॉपरनिकस की राह चलते गैलीलियो इस इहलौकिक सवाल से अनभिज्ञ ही रहा कि उसे जवान बेटी का विवाह भी करना है। इधर मुनीम तोलाराम भी भाँप ही नहीं पाया कि उसकी बेटी उषा जवान हो गई है और उसका विवाह भी करना है। उसका उससे दो वर्ष बड़े लाला के बेटे श्याम के प्रति आकर्षण भी हुआ, किन्तु उच्च शिक्षा के लिए पाँच वर्ष के लिए घर से दूर जाने के कारण वह ठगी सी रह गई। वे पाँच वर्ष कैसे बीतते? और श्याम कोई वादा करके भी तो नहीं गया है। उसके प्रेम की कली खिलने से पहले ही मुरझा गई। गुरुजी का भागवत प्रवचन सुन राधा रानी के प्रेम से प्रेरणा पाकर प्रेम को बड़ा अर्थ देने की सोची। गुरुजी के चरणों में पहुँच गई, किन्तु उनके ही शिष्य का शिकार बन आकाश में विचरण करने के लोभ से गिर कर खजूर पर आ अटकी। श्याम के शहर से वापिस लौटने के बाद उसी के सीने में सिर छुपाकर हिचक-हिचक रोई। श्याम ने भी उस पीड़ा और अपमान को महसूस किया। उसके कंधे पर देर तक सिर रख कर सुबकते हुए, उसका स्पर्श पाकर, प्राणों को जीवन्त करती ऊर्जा का अनुभव करना, राहत तो देता है। किन्तु कहानीकार कहानी के अंत में कहता है— “श्याम के पास उषा के लिए सांत्वना के कोई शब्द नहीं थे।” और यह कह कर कहानीकार कहानी को खुला छोड़ देता है पाठक को अपने मनोनुकूल अर्थवत्ता देने के लिए, कहानी के माध्यम से अपना अर्थ ढूँढ़ने के लिए, अपनी-अपनी जीवनदृष्टि को रूपायित करने के लिए। क्या श्याम का षोडशी के रूप में उषा को यकायक बाँहों में भर कर भावावेश में चूम लेना केवल युवा सुलभ आकर्षण था? क्या अब श्याम में उषा का हाथ थामने की परिपक्वता आ गई? क्या खजूर पर अटकी उषा पुनः ज़मीन पर आ पाएगी? क्या ज़मीन पर आकर वह अपने आहत मन और क्षत-विक्षत डैनों पर मरहम लगा, अपने जीवन की नई उड़ान के लिए तैयार कर पाएगी? आख़िर जीवन हमारा है, इसे अर्थ और अर्थवत्ता हमें ही देनी है, अपने अनुभव से सीख कर ......।

“सुरंग” कहानी आधुनिक युग के पार्थिव प्रेम की कशमकश की कहानी है। अकेलेपन की पूर्ति के लिए आश्रय की निरंतर खोज का प्रतीक कदाचित् सुरंग है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि इस कहानी में नायक-नायिका का कोई नाम नहीं है। नायक की पूर्व प्रेमिका का नाम अवश्य आता है। कहानी के नायक (वाचक) के मन में अमरजीत को लेकर संवेदनशील प्रेमिका से लेकर फ़्लर्ट लड़की तक के कई विशेषण उभरे, वह उसे अभी भूला भी नहीं और अब यह लड़की जिसके पास वह सफ़र से वापसी पर रुकता है, उसके बारे में वह सोचता है— “जब यह लड़की पहली बार मिली थी तो मैंने सोचा भी नहीं था की वह सीधे, एकदम दिल में उतर जाएगी।”(पृ.17) किन्तु नायक की वास्तविकता क्या है— “मैं फिर से इन्वाल्व नहीं होना चाहता था। अपने रुमानी स्वभाव के बावजूद। वरना प्यार के सागर में सर के बल कूद पड़ता था और हर बार किसी चट्टान से टकराकर अथवा शैवाल और वनस्पति के जंगल में उलझकर रह गया था। चोटों और खराश के निशान लेकर।”(पृ.18) और यह रूमानियत ही इस कहानी का कथ्य है जिसे अभिव्यक्त करने में कहानीकार सफल हुआ है। परन्तु यह तृष्णा चाहे काम की हो अर्थ की यह तो अंधी सुरंग है। “उसके बाद पता नहीं हम कब लौटे।”(पृ.20) अर्थात् लौटने न लौटने का निर्णय हमारा। कहानीकार उसमें दख़ल नहीं देता। पहले कहानी-संग्रह में इतनी परिपक्वता दर्शाती है कि कहानीकार के पास कुछ कहने को भी है और कैसे कहना है, यह भी उसे पता है। हम यह भी कह सकते हैं की कहानीकार युवावस्था से वैश्विक-साहित्य का अनुशीलन कर अपने भाव-लोक को समृद्ध करता आया है और लिखने वह तब ही बैठा उसने चर्वणा कर उसे पूरी तरह पचा लिया, आत्मसात कर लिया। 

“सुनो कांट! यह उधार ही रहने दो” कहानी में रुमानियत को एक भिन्न प्रकार से अभिव्यक्ति मिली है। दस बरस की स्मृति को जिस प्रकार कहानीकार ने शब्द-बद्ध किया है वह काफ़ी एंगेजिंग है। यह स्मृति ही उल्लेखनीय है। वक़्त कभी ठहर जाता है। कोई अचानक से मन-मस्तिष्क पर प्रभाव छोड़ जाता है— बिजली की कौंध की तरह, भला बिजली की कौंध को कौन पकड़ सका है, किन्तु वह चकाचौंध तो विस्मृत होकर भी, कभी भी महसूस की जा सकती है। कहानी शुरू होती है नायक की बहन सुजाता के अचानक फोन से— “भाई साहब! आपको मेरी वह क्लासमेट याद है? कौमुदी? हाँ, हाँ, वही फिलास्फर टाइप लड़की। पिछले हफ़्ते वह मुझे मिली थी, यहाँ किसी सम्बन्धी की शादी में आई थी, अपने दो बच्चों और अपने पति मिस्टर हरीश जोशी के साथ।”(पृ.21) और यह भी कि— “मुझसे आपके बारे में पूछ रही थी। कह रही थी— तुम्हारे भाई साहब की दो किताबें मेरे पास हैं, मुझे लौटानी थी, किन्तु जल्दबाज़ी में भूल आई। अगली दफ़ा जब भी आऊँगी ज़रूर लाऊँगी।”(वही) और वक़्त दस बरस पूर्व के स्मृति-सागर में हिलोरें मारने लगता है। कौमुदी के अल्हड़पन्न, क़द-काठी और बेतकल्लुफ़ अंदाज़ ने देव को प्रभावित किया था। दोनों का रुझान दर्शनशास्त्र की ओर था, बातों ही बातों में वह उसके किराए के कमरे तक भी पहुँच गई थी, दर्शन की किताबें देख कर भाव विस्मृत भी हुई थी और चलते- चलते दो किताबें भी ले गई थी। शाम को देव ने उसे ख़ुद बस स्टैंड से बस में बिठाया था, दिल्ली के लिए। एक बार मिलना और कभी-कभार टेलिफोन पर बात, किन्तु किताबें कभी नहीं आई। देव उस स्मृति को एक बार फिर जी कर संतुष्ट है। कहानी की अंतिम पंक्ति है— “यह क्या कम है कांट कि एक आधुनिक शिष्या ने शिशिर की एक दोपहर को विस्मय से भर दिया था।”(पृ.30) कथ्य तो यही है किन्तु जिस प्रकार कहानीकार उस स्मृति को शब्द-बद्ध करता है, उससे शिमला का वातावरण तो सजीव हो ही उठता है वहीं कौमुदी से प्रथम मुलाक़ात से उत्पन्न एक सहज आकर्षण और उसके बेतकल्लुफ़ अंदाज़ से उत्पन्न झेंप की जिस प्रकार अभिव्यक्ति हुई है, वह लेखक की गहन सृजनात्मक समझ की परिचायक है। 

इधर बाढ़ कहानी मनुष्य के प्रेम की एक और तरह से परीक्षा लेती है। बाढ़ से उत्पन्न स्थिति का चित्रण कितना भावपूर्ण, कितना कल्पना-प्रसूत, किन्तु कितना वास्तविक, मानो कहानीकार कभी स्वयं ऐसी त्रासद स्थिति, ऐसी व्यथा से होकर गुज़रा हो। जीवन की सुन्दरता कैसे देखते ही देखते विडंबना बन जाती है! प्रकृति के सामने व्यक्ति कितना बौना और लाचार हो जाता है! मुश्ताक बाढ़ की आग़ोश में समाए अपने बेटों का ग़म बर्दाश्त नहीं कर पाता। जिस सरवरी पर वह जान छिड़कता था आज उसी से इतनी बेरुख़ी कि सरवरी के ग़म को साँझा तो क्या करना— आख़िर बच्चों ने उसी की कोख से जन्म लिया था— वह ख़ुदकुशी कर अपनी जान दे देता है और मुश्ताक की बेरुख़ी से बेबस सरवरी तो जैसे इसी घड़ी का इन्तज़ार कर रही थी और उसे रस्सी पर लटके देखते ही ऐसे लुड़कती है कि इहलीला समाप्त। किन्तु इस परिणति के बर-अक्स कहानी के प्रारंभ की वह पंक्तियाँ उद्धरणीय हैं, जब गुज्जरों के मुखिया अब्दुल क़ादिर की बेटी सरवरी और मुश्ताक के जीवन की कहानी शुरू होती है— “यौवन का पहला क़दम रखती रूप-विशिष्ट सरवरी। मुश्ताक ने उसे क्या देखा, बस देखता ही रह गया। वह इतनी देर ठहरी ही कहाँ थी कि वह उसे निरंतर देख पाता। वह तो मेहमानों के सोने से पहले दूध के बड़े-बड़े गिलास लेकर आई थी। अपनी आवाज़ का शहद घोलती, उन्हें दूध पीने को कह कर भाग गई थी। रूप और गंध का सैलाब सर के ऊपर से गुज़र गया। मुश्ताक तो उसमें डूब ही गया।”(पृ.57) अब ऐसे प्रारंभ की परिणति यदि ख़ुदकुशी और बेबसी में हो तो यह कल्पना की जा सकती है कि कहानीकार जीवन के मूलभूत प्रश्नों से कितनी शिद्दत से जूझ रहा है। यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि कहानीकार जिन लेखकों के प्रभाव में रहा है उनकी कृतियों में अकेलापन, संत्रास और निराशा के भाव विद्यमान रहे हैं किन्तु इस संग्रह के कहानीकार में उसकी अपेक्षा एक ठहराव, आत्मनिरीक्षण, और जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था व्यापक तौर पर मौजूद है। यही एक कहानी है जिसमें नायक-नायिका टूट जाते हैं अन्यथा उनके अधिकतर पात्र जीवन से जूझते हुए, जीवन की कशमकश से दो चार होते हुए स्वाभाविक रूप में चित्रित हैं, बल्कि कशमकश वहाँ कम ही है यदि है तो एक संतुलन जो कि भारतीय संस्कार है।

“शर्म” और “देव” कहानियाँ जीवन को एक अन्य कोण से देखने का प्रयास करती हैं। यहाँ भी लेखक मानवीय रिश्तों और संबंधों की गरिमा को ही केंद्र में रखता है। “देव” कहानी में नायक अत्यधिक मदिरा पान कर घर लौटा। पत्नी के बताने पर कि रात उसने शराब पीकर घर लौटने पर क्या किया और किस प्रकार माँ रात भर नहीं सोई, वह परेशान हो जाता है कि उसकी माँ क्या सोच रही होगी। उसे पश्चाताप होता है— “मैंने माँ को इतना आहत कर दिया था ? जैसे कोई कसाई सूए से एक बेबस सूअर को मर्म तक बेध डालता है। ...... विष का पात्र तो मैं था, जिसे किसी की ठोकर अनजाने में लग गई थी और उसका बहता ज़हर धरती माँ को जला रहा था।”(पृ.35) किन्तु इस पश्चाताप की पृष्ठभूमि में हैं बचपन के संस्कार जो उसे घर और स्कूल में मिले थे। उसमें कुछ आर्यसमाज का प्रभाव है, कुछ आज़ादी के बाद का उत्साह। यहाँ तक कि सामूहिक आयोजनों— उत्सव, मेलों आदि में आयोजित सांस्कृतिक आयोजनों में भी वह उत्प्रेरणा विद्यमान थी। कहानी का नायक देव स्मरण करता है— “यह सारा उत्साह आज़ादी के कुछ साल बाद तक तो ठीक-ठाक रहा। फिर आज़ादी का नशा टूटा तो झूठ और बेईमानी का चढ़ने लगा और अपना देश शराब के नशे में डूबता गया।”(पृ.32) “शर्म” कहानी का नायक सुधीर यूँ अपने बड़े भाई के साथ घर में बैठ कर भी शराब पी लेता है और दोनों एक दूसरे की कंपनी एन्जॉय भी करते हैं। किन्तु एक दिन जो किसी पार्टी में अधिक पी गया तो नशे में चूर होकर आपे से बाहर हो गालियाँ निकालने की वज़ह से तीन लोगों से पिट कर आ गया। अब शर्मसार तो है, किन्तु दूसरे ही दिन एक और मित्र के घर में पार्टी है। ज़िंदगी इम्तिहान लेती है और उस इम्तिहान के उपरांत आपके संकल्प पर ही आपका भावी जीवन की दिशा और मार्ग निश्चित होता है। भाभी की नाराज़गी शायद अभी उसे पार्टी में जाने से रोक रही है, किन्तु दृढ़ता से न कहने की इच्छा-शक्ति क्या सुधीर में आ पायेगी? क्या वह कल वाली घटना की पुनरावृत्ति नहीं करेगा या फिर क्या शराब से ही तौबा कर लेगा? कहानी कुछ नहीं कहती, किन्तु सुधीर फ़िलहाल अपने मित्र के फोन को नहीं उठाता। हमारे छोटे-छोटे निर्णयों से रिश्तों को भी मज़बूती मिलती है। यही परस्परता ही तो हमारे सामाजिक ताने-बाने का निर्माण करती है। लेखक इस सामाजिक ताने-बाने की रक्षा के लिए तत्पर है किन्तु कोई उपदेशात्मकता नहीं, यह कहानीकार के रूप में पद्म गुप्त की सफलता है। 

“वो सुबह” कहानी में कहानी के वाचक और कांस्टेबल के द्वंद्व के माध्यम से व्यवस्थागत कुछ मूलभूत प्रश्न उठाए गए हैं तथा पुलिस और सत्ताधीशों के अधिकार भाव को चुनौती दी गई है। यथा— “हम बर्बर युग से चल कर विकास के चरम पर पहुँच कर भी उसी युग में क्यों रहना चाहते हैं? ये पुलिस वाले इसका उदाहरण हैं। पुरानी रियासतों अथवा औपनिवेशिक शासकों की बात जाने दें तो स्वाधीनता की आधी सदी से अधिक समय की अवधि के बाद भी इनका व्यवहार पशुवत् क्यों है?” किन्तु एकाध स्थान पर वाचक अपनी प्रतिक्रिया में जो कुछ कहता है वहाँ कहानीकार का विचारक कथाकार पर हावी हो जाता है।

“ऐ मेरे वतन के लोगो”, कहानी से अधिक एक भावना-संकुल स्मृति है। कहानी का मूल कथ्य वह उत्साह है, जो 1962 में चीन द्वारा भारत पर अचानक आक्रमण से उत्पन्न हुआ था उसी उत्साह में कहानी के नायक ने कुछ कविताएँ लिखीं। उन कविताओं के आकाशवाणी से प्रसारण की स्वीकृति से वह उत्साह द्विगुणित हो जाता है। उस व्यक्तिगत उत्साह को लेखक ने अपने कथ्य को रूप देने के लिए प्रयुक्त किया है। किन्तु उस उत्साह में 1962 के भारत-चीन युद्ध का घटनाक्रम एक संभाषण में सा बदल गया है। अतः जो घटना एक भावपूर्ण स्मृति-लेख बन सकती थी उसको कहानी के रूप में ढालने के प्रयास में लेखक से कदाचित चूक हुई है। क्योंकि कहानी वास्तविक घटना के 30-35 वर्ष उपरान्त लिखी गई है, अतः 1962 के युद्ध से उत्पन्न स्थितियाँ लेखक के मन में बनी रहीं और देश-प्रेम संकुल मन अभिव्यक्ति के अवसर की तलाश में रहा। उस घटना की भावात्मक अभिव्यक्ति यही दर्शाती है कि लेखक एक युवक के रूप में अपने देश और परिवेश के प्रति कितना सजग और जागरूक रहा है। यह आज इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आज अपने देश के साथ ऐसा जुड़ाव या कि बांड कई बार मिसिंग सा लगता है या कि ऐसा जुड़ाव विकट और कठिन परिस्थितियों में ही सामने आता है! पिछली सदी के साठ के दशक के युवक की भावनाओं की पुरज़ोर अभिव्यक्ति हुई है, किन्तु कुछ ऐसे प्रसंग भी आए हैं जिसके स्पष्टीकरण हेतु कहानीकार को अंत में सन्दर्भ देने पड़े हैं। 

“धरती है इनकी” साँप को लक्ष्य कर जीव-रक्षा के भाव से प्रेरित कहानी है। किन्तु दो एक स्थानों पर आदिमकाल और पौराणिक कथाओं आदि के वर्णन प्रसंगानुकूल होने के बावजूद अनावश्यक लगते हैं। कहानी की वस्तु और लेखक की संवेदना निम्न पंक्तियों में यूँ अभिव्यक्त हुई है— “लाठी, ईंट, पत्थर आदि से लैस यहाँ सभी योद्धा, इसी फ़िराक़ में थे कि इस साँप को कैसे मारा जाए? दैनिक जीवन में सत्य के पक्ष में, साधारण साहस दिखाने का अवसर आने पर, दुम दबाकर भाग जाने वाले लोग भी अचानक पराक्रमी बन जाते हैं। साँप को भाग्य का प्रतीक मानकर किसी मंदिर अथवा शिवालय में उनके दर्शनों को शुभ मानने वाले किसी अन्य स्थान पर उसे देखकर मारने को प्रवृत्त हो जाते हैं। दावा करते रहते हैं कि धरती इन्हीं की है, किन्तु जनमेजय की तरह धरती को साँपों से विहीन कर देना चाहते हैं।”(पृ.97) कहानी में पात्रों के वार्तालाप में लेखक का गहन अवलोकन तो विद्यमान है ही, बल्कि कहानी प्राणी-मात्र के प्रति एक गहरी संवेदना से अनुस्यूत है। भाषा में स्थानीयता और ग्राम्यता के पुट ने कहानी को अतिरिक्त रोचकता प्रदान की है। 

“अब गिलहरी नहीं आती” कहानी में शिवालिक की तलहटी, जो कि उनका जन्म स्थान भी है, के आस-पास का वातावरण सजीव हो उठा है। लेखक की पर्यावरण के प्रति चिंता कहानी में यूँ अभिव्यक्त हुई है— “आदिमकाल से मनुष्य प्रकृति की उद्दाम शक्ति से आतंकित था। उसके रहस्य मनुष्य के लिए अबूझ थे, किन्तु उसने उससे पार पाना सीख लिया और उससे सामंजस्य बिठाकर जीना भी। जितना लो उतना ही लौटा दो। तभी तो लेने और देने के इस क्रम में संतुलन बना रह सकता है। लेने की इच्छा में आवश्यकता का स्थान जब लोभ ले लेता है तो परिणाम विनाश ही होगा। आवश्यकता के आधार पर यह विनिमय ही तो विकास क्रम में सामाजिक मूल्यों का आधार बनता रहा है। परस्पर सहयोग, त्याग और प्रेम का विनिमय।” (पृ.13) लेखक गाँव के परिवेश में आए उस परिवर्तन से हतप्रभ है जिसमें विकास की अंधी दौड़ में हमने प्रकृति के साथ सहज सामंजस्य और सहत्व के भाव को कहीं खो दिया है। गाँव अब गाँव नहीं रहे। चार दशक से शहर में जीवन बिताने वाले जोगिन्दर को गाँव की ज़मीन-जायदाद से कोई मोह नहीं, किन्तु जिस तरह से गाँव में पुरानी कच्ची हवेली को उपेक्षित कर उसके भतीजे द्वारा पक्का मकान बना, मार्बल बिछाया जा रहा था और पेड़-पौधे बाग़-बगीचे उपेक्षित हो रहे थे, उससे वातावरण में एक अजनबीपन सा भर गया था और यही जोगिन्दर को असह्य गुज़रा— “उसे लगा था गाँव की हवा में संवेदना होगी, किन्तु इन पक्की कोठियों में उसे नरक की अनुभूति हो रही थी। जोगिन्दर का मन उदास हो गया। नहा-धोकर नाश्ता करने से पहले ही उसने आज ही लौट जाने का फैसला सुन दिया।” (पृ.14) वह सोचता है— “कंक्रीट के इन भवनों में आत्मा कहाँ है? जीवन जीने की इस शैली ने अन्य जीवों की प्रजातियों को लुप्त कर दिया। पेड़ नहीं रहे तो नहीं बची आकाश में पक्षियों की उड़ान, न जीवंत घोंसले, न आँगन और मुंडेरों पर उनकी उछल-कूद और चहचहाहट और न ही नन्हीं गिलहरियाँ और उनकी उछल-कूद।” (पृ.13) परन्तु वह कर कुछ न पाया। यह विवशता जोगिन्दर या कि कहानीकार की ही नहीं है बल्कि मानवता का भला चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की है। किन्तु जब जीवन-मूल्य करवट लेते हैं या कि भंग होते हैं तो यही परिवर्तन बड़े विनाश का कारण बनते हैं, कहानी के नायक का उद्विग होकर शहर लौटना, कहानीकार की इसी चिंता का द्योतक है।  
   
“पत्थर” कहानी का शीर्षक सांकेतिक है, जो एक ग्रीक कथा के एक प्रसंग से लिया गया है जिसमें तलहटी से पत्थर को प्रतिदिन चोटी तक धकेलना सिफिसिस की नियति थी। सम्पूर्ण कहानी नियति पर ही केन्द्रित है, किन्तु कहानीकार सजग भी है कि कोई नियति या भाग्यवाद पर भरोसा कर अकर्मण्य न हो जाए। कहानी का परिवेश ग्रामीण है, जहाँ पर केवल तीन ही घर हैं किन्तु परिस्थितिवश अब दो दूकानें बन गई हैं। प्रकाश बाबू की नियति यह है कि अपनी बढ़ती उम्र में ताया जी स्वयं उसे परिवार सहित गाँव ले आए। वर्षों से चली आ रही दूकान का कार्यभार उसे सौंप दिया, किन्तु नियति ही समझिए कि एक महीना भी नहीं बीता था कि ताया जी बिगड़ गए और प्रकाश बाबू सड़क पर आ गए। पत्नी सुजाता के भाई के थोड़े से सहयोग से, और सहयोग भी कितना केवल सौ रुपये से गाड़ी चल निकली। और कहानीकार संकेत करता है कि यह उस समय की बात है जब गेहूँ पाँच रुपये मन था। उसकी पत्नी कपड़े भी सिल लेती है और ज़रूरत पड़ने पर दूकान पर भी बैठ जाती है। ताया जी की दूकान भी आस-पास के गाँवों के भरोसे ही चलती थी, किन्तु प्रकाश और उसकी पत्नी के विश्वास, सहजता और कर्मण्यता के सायुज्य से ऐसा समय भी आया, जब सभी मिल कर सीमित साधनों में सत्संग की भी व्यवस्था करते हैं और लोग रात्रि के समय सत्संग के बाद घर लौटते हैं। कहानी में ग्राम्य परिवेश का सजीव चित्रण हुआ है। जो छोटा सा गाँव कहानी के कथ्य का आधार बना है, वहाँ तीन घर और दो दूकानें हैं, जाति-प्रथा को लेकर वितृष्णा भी है, पर वैर नहीं है, अभाव भी है, संतोष भी है, ज्ञान भी है, सत्संग भी है, ग्राम्य परिवेश के अनुकूल यह विश्वास भी कि जब भगवान ने सर दिया है तो सेर भी देगा किन्तु कर्म तो करना ही पड़ेगा। अकर्मण्यता छोड़ अपने स्वभाव के अनुरूप कुछ न कुछ करते रहने से जीवन सरल भी बना रहता है और जीवन स्वयमेव खुलता है— आपका कर्म ही आपके जीवन को अर्थवत्ता देता है। कहानीकार खैरु और उसके गूँगे पुत्र के व्याज से कहता भी है— “हमारी कथा तो इतनी है कि खैरु का बेटा मानव देह में जन्म लेकर भी सभी मानवीय क्षमताओं से वंचित है और यह कि माली के साथ खैरु और उसका बेटा इस गीले मौसम में भी हर रोज़ सत्संग के लिए जाते हैं।” (पृ.48) और बरसात के मौसम में रात्रि को घर वापसी के समय साँप और बिच्छू आदि के काटने के भय के बावजूद, यह दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। और सत्संग भी कैसा— “इन लोगों में विधिवत पाठ से जुड़े अनुष्ठान और तामझाम का ख़र्च उठाने की सामर्थ्य न था। सरल मन से यही निश्चय किया गया की शाम का भोजन निबटाकर, धूप जलाकर हिंदी टीका का पाठ किया जाए। नित्यपाठ के बाद इलायाचीदाने का प्रसाद। इतना संकल्प अवश्य किया गया कि पाठ पूरा होने के बाद हल्वे का प्रसाद भी बाँट देंगे।”(पृ.47) इस प्रकार “अब गिलहरी नहीं आती” और “पत्थर” कहानी के कथ्य एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।  

“आने वाले दिन” नामक छोटी सी कहानी में अतीत में ग्राम जीवन की कठिनाइयों का चित्रण करते हुए वर्तमान के लिए एक दिशा संकेत है। ग्राम्य परिवेश का एक चित्र दृष्टव्य है— “सूरज का कोई भी साथी वहाँ अकेला नहीं जाता था। दो-चार जनों की बात और थी। एक बार किसी ने उसे भिंटी यानि भेड़िया मानव की बात सुनाई थी। उसे लगता था कि अगले ही मोड़ पर भिंटी कहीं से आकर दबोच लेगी।”(पृ.88) और एक और देखिए— “कीचड़ के छींटों से उसकी पतली, सूखी टाँगों पर चित्रकारी-सी हो गई थी। ढीली ढीली निक्कर में उसकी टाँगें और भी पतली लगती थी। उसके पास एक ही निक्कर थी, खाकी निक्कर, जो स्कूल की वर्दी थी। कमीजें तो खैर दो थीं। गाँव के लड़कों में सिर्फ उसी के पास दो कमीजें थीं। ...... माँ इतवार को दोनों कमीजें धोकर इस्त्री कर के झोले में डाल देती।”(पृ.89) यह कहानी वास्तव में उस अतीत की ओर ले जाती है जहाँ आर्थिक तंगी थी, कठिनाइयाँ थीं, किन्तु थी एक जिजीविषा, जिससे हमारे वर्तमान का निर्माण हुआ है। ऐसी कहानियों को पढ़कर अपने अतीत को खोजा जा सकता है और अपने पाँव के नीचे की ठोस जमीन की मिट्टी को माथे लगाकर भविष्य को और सार्थक मोड़ दिया जा सकता है।

“पुल” कहानी में लेखक ने पारिवारिक संबंधों को सहेजने में पत्नी की भूमिका को रेखांकित किया है। वर्तमान पीढ़ी से पूर्व पिता और पुत्र के रिश्ते में सम्मान के साथ-साथ एक झिझक और संवादहीनता की जो स्थिति होती थी, उसे बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से कहानीकार ने इस कहानी में उकेरा है। कहानी की अंतिम पंक्तियाँ कहानी की वस्तु की दृष्टि से प्रासंगिक हैं— “उसे विश्वास है कि जब-जब पिताजी से उसका सामना होगा, वसुधा एक सेतु का काम करेगी और पिता और पुत्र दोनों को इस संवादहीनता से उबार लेगी।”(पृ.104) पिता जी जब गाँव से विविध प्रकार की सब्ज़ी, फल, मक्की, खीरे आदि से भरा थैला लेकर आते हैं तो शहर स्थित घर की ओर प्रस्थान करते हुए वे अपने पुत्र के कुली आदि करने अथवा बाहरी मन से थैला उठाने के प्रस्ताव को ठुकरा कर चल देते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वह प्रसंग भी अवलोकनीय है— “उसके भीतर का पुत्र भले ही शर्मसार हो किन्तु उसके अवचेतन में अवस्थित एक कनिष्ठ अधिकारी का अहं कहीं संतुष्ट था की पिता जी ने उसके परिचितों के शहर में, उसे एक गँवार सा दिखने वाला थैला उठाकर चलने की शर्मिंदगी और झेंप से बचा लिया था।”(पृ.103) ऐसे प्रसंग पद्म गुप्त की कहानियों को नई अर्थवत्ता से भर देते हैं। 

विवेच्य कहानी-संग्रह का कहानीकार भी नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच एक पुल अथवा सेतु निर्माण का ही कार्य कर रहा है, क्योंकि इस कहानी-संग्रह कि कुछ एक कहानियाँ कहानीकार की युवावस्था की स्मृतियों से प्रभावित हैं अथवा उन कहानियों का परिवेश कहानीकार की युवावस्था अर्थात् पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक का है। यह वही समय है जब नई कहानी का दौर अपने चरम पर था और कहानीकार काम-कुंठा, निराशा, संत्रास, अकेलेपन, अजनबीपन, तनाव, विसंगति, विडम्बना, टूटन और बिखराव को अभिव्यक्ति दे रहे थे। पद्म गुप्त अमिताभ ने भी उस युग को जीया है, भोगा है, उस समय के हिंदी साहित्य का अध्ययन किया है और उससे आगे बढ़कर उस समय, पश्चिम के उन चर्चित रचनाकारों का भी अनुशीलन किया है जो उस समय के हिंदी के रचनाकारों के भी प्रेरणास्रोत रहे हैं। तब यह देख कर सुखद आश्चर्य होता है कि उनसे प्रेरणा पाकर भी पद्म गुप्त की रचनाओं का भाव-बोध और अभिव्यक्ति निजी है अथवा उनके कथ्य और अभिव्यक्ति में एक मौलिकता विद्यमान है। कारण शायद यही कि पद्म गुप्त ने हिन्दी के उन रचनाकारों की व्यक्तिगत कुंठाओं और वैचारिक दबाव को भी पहचान लिया है, जिसके दम पर वे पश्चिम के साहित्यकारों के समकक्ष दीखने के लिए लालायित थे। 

कुल मिलाकर “देव” और “शर्म” नामक कहानियाँ स्वेच्छाचार की अपेक्षा पारिवारिक संबंधों के महत्त्व और आवश्यकता को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त करती हैं। “पुल” कहानी तो वैसे भी रिश्तों की गरिमा की ही कहानी है। “आने वाले दिन” कहानी में जहाँ एक ओर ग्राम्य परिवेश जीवंत हो उठा है, वहीं अतीत की कठिनाइयों की ओर कहानीकार ने ध्यान आकृष्ट किया है; कदाचित् इसलिए की नई पीढ़ी समझे कि वर्तमान की सुख-सुविधाओं के लिए अतीत ने क्या मूल्य चुकाया है। “अब गिलहरी नहीं आती” केवल पर्यावरणीय चिंता की कहानी नहीं है बल्कि अपने छोटे से कलेवर में बहुत कुछ कह जाती है। “हिल स्टेशन की शाम”, “गैलीलियो की बेटी”, “बाढ़”, “सुरंग” और “सुनो कांट! यह उधार ही रहने दो” जीवन के मूलाधार प्रेम को विविध कोणों से देखते हुए जीवन के विविध रंगों को ही समझने का प्रयास करती हैं। “हिल स्टेशन की शाम”, “सुरंग”, “सुनो कांट! यह उधार ही रहने दो” आदि कहानियों में शिमला का परिवेश जीवंत हो उठा है। वास्तव में देशकाल और वातावरण के चित्रण में कहानीकार को अतीव सफलता मिली है। वास्तव में देश-काल और वातावरण का सहज चित्रण कहानी के कथ्य को आधार, प्रासंगिकता और विश्वसनीयता प्रदान करता है और पद्म गुप्त जैसे कहानीकार, जो जीवन-सत्य को सहज अनुभव से, कल्पना की उड़ान भरे बिना अभिव्यक्ति के लिए संकल्पित हों, उनके लिए तो यह और भी महत्त्वपूर्ण है। कहना न होगा अपने आस-पास के परिवेश पर गहरी दृष्टि, सहज-गहन अवलोकन, हर घटना में जीवन को गहरे में देखने की चाहत और फिर उस प्रभाव को प्रसंगानुकूल भाषा में पिरोकर पूरी सजगता के साथ प्रस्तुत करना— यह इस कहानीकार का वैशिष्ट्य है, जो एक सामान्य पाठक के रूप में मुझे, इस कहानी-संग्रह से गुज़रते हुए अनुभव हुआ। क्योंकि कहानीकार बहुपठित हैं, इसलिए कहीं-कहीं कहानियों में विचार और दर्शन हावी हो जाता है, किन्तु वह खटकता है एकाध ही कहानियों में, जहाँ कहानी के साथ विचार का समुचित संयोजन नहीं हो पाया है। कुल मिलाकर कहानी-संग्रह पठनीय है और संग्रहणीय भी, क्योंकि— इन कहानियों की एक दुनिया है, जो कहानीकार की अपनी दुनिया है— जो हिमालय के अंचल में, विशेषतः शिमला और उसके आस-पास के ग्राम्य-परिवेश में विकसित हुई है, जिससे कहानीकार का भाव-लोक समृद्ध हुआ है और कहानीकार की सहज-सचेतन अभिव्यक्ति के माध्यम से उस दुनिया को बहुत समीप से देखा जा सकता है। 

डॉ. राजेन्द्र वर्मा 
“श्यामकला” ग्राम: कठार, पत्रालय: बसाल, बसाल रोड, तहसील व ज़िला सोलन, हिमाचल प्रदेश, 173213    (चल-भाष नं. +91-94180-36171) 

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