हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति

01-01-2021

हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति

कविता झा (अंक: 172, जनवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

ख़ुद अँधेरे में रहती, दूसरों को रोशनी देती,
ख़ुद चिराग़ बन कर जलती रहती उम्र भर,
चारों तरफ़ का अंधकार समेट कर दूर करती,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।
 
माना तुझ में है बसती स्वयं शक्ति
या फिर काली से ऊर्जा मिलती,
अंदर से है सब्र कहीं मही सी
या फिर तू ही कहीं मही तो नहीं,
हैरान हूँ देख तुझे,
आँसू छुपाकर भी प्यार में
कैसे अपना सर्वस्व लुटाती,
एक हाथ से अश्रु पोंछती,
एक हाथ से बनाती रोटी,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।
 
अपने दुखों का बैठ सोचे,
इतना वक़्त कहाँ तुझे,
कल की बातें आज भूल,
लग जाती फिर परिवार में,
प्रताड़ित हुई थी अभी सुबह ही तू,
अभी शाम को देखा मैंने तुझे हँसते,
घात हुआ था आत्मसम्मान पर तेरे,
कैसे बिसरा दिया तूने मुस्कुरा के,
चोट तो लगी थी गहरी बहुत,
भरने में थोड़ा तो वक़्त लगाती,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।
 
सब कहते हैं तू मज़े से टी.वी. देखती है,
घर पर दिन भर आराम से सोती है,
ये क्या, अभी तो ऑफ़िस से आयी है,
लग गयी बनाने खाना सब के लिए,
घर आँगन की सफ़ाई की थी,
अभी निकल पड़ी कपड़े पसारने,
बच्चे को स्कूल से लाना है,
फिर माँजने हैं ढेर बर्तनों के,
मैंने तो तुझे देखा हर वक़्त बस काम करते,
थोड़ा सुस्ता ले कमर है तेरी रात से अकड़ी,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।
 
तुझे कहाँ समय कि तू सोचे अपनी,
रुक कर पूरा करे अपने अधूरे से सपने,
अपनी इच्छाओं को तो जैसे मार बैठी
और तू इतनी स्वार्थी भी तो नहीं,
बिना शिकन के कैसे कर लेती ऐसी चाकरी,
जिसमें हैं ना तारीफ़, ना छुट्टी, ना ही सैलरी,
बिना पदोन्नति के हमेशा एक ही दर्जे पे रहती,
और तू इतनी लोभी भी तो नहीं,
बिना रुके, बिना थमे, हर वक़्त सबका आधार बनती,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।
 
खुद पतंगा बन दूसरों के लिए जलती रहती,
दूसरों को इसका आभास तक ना होने देती,
इतनी प्रचंड प्रबल कैसे है तेरी आधार शक्ति,
हे नारी! तू कहाँ से लाती है इतनी शक्ति।


 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें