हरिवंशराय बच्चन की साहित्य-यात्रा

10-08-2009

हरिवंशराय बच्चन की साहित्य-यात्रा

डॉ. राजेन्द्र गौतम

’बच्चन‘ का सम्पूर्ण सर्जन एक ऐसा विराट् महाकाव्य है, जिसके नायक वे स्वयं है। आधुनिक महाकाव्यों में गीतात्मकता का सन्निवेश भर है, जबकि ’बच्चन‘ के जीवन का यह महाकाव्य पूर्णतः एक महागीत है। ’अभिनव सोपान‘ की भूमिका में पंत जी ने ठीक ही लिखा है कि बच्चन के अधिकांश काव्य में उसकी आत्मकथा के ही पन्ने बिखरे मिलेंगे। कविता के समानान्तर बच्चन की आत्मकथा गद्य रूप में भी विविध खंडो में उपस्थित है। कहना कठिन है कि यह कविता आत्मकथा का प्रतिबिम्ब है या आत्मकथा कविताओं की व्याख्या। कविता और जीवन का इतना संश्लेषण साहित्य-शास्त्र के नये सवाल भी खड़े करता है और उस अर्हता का स्पष्टीकरण भी चाहता है, जो इस नायकत्व का औचित्य सिद्ध कर सके। हमारी दृष्टि में यह औचित्य स्पष्ट है। बच्चन का जीवन संघर्ष-संकुल रहा है। कहीं यह संघर्ष बाह्य है और कहीं आतंरिक, कहीं भौतिक है, कहीं वैचारिक। सर्व सुख-सम्पन्न हो जाने पर भी बच्चन के अपने द्वन्द्व रहे हैं, लगभग दो दशक पहले जब उनका १९२९ से १९७९ के बीच की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ’मेरी कविताई की आधी सदी‘ छपा था तो उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा था :

और घर?
वह है भी अब कहाँ?
जो शब्दों का घर बनाते हैं। 
वे और सब घरों से निर्वासित कर दिये जाते हैं।

अवश्य ही कवि का यह अभिलषित घर लोहे-सिमेंट का घर नहीं है। वस्तुतः शब्द का घर बनाने के द्वन्द्वों ने ही बच्चन को उनके काव्य का नायकत्व प्रदान किया है। 

राजनीति, साहित्य और सिनेमा के क्षेत्र में बीसवीं शदी का इतिहास गढ़ने वाले इलाहाबाद में २७ नवम्बर १९०७ को एक साधारण कायस्थ परिवार में ’बच्चन‘ का जन्म हुआ। आरंभ में जो आर्थिक संघर्ष उन्होंने झेले थे, वे इस देश के साधारण परिवारों के युवकों के लिए नये नहीं हैं पर बच्चन को विशिष्ट बनाती हैं, उनकी संवेदनशीलता, क्रमशः काव्य के प्रति समर्पण, स्वाभिमान का ओज, जीवन के प्रति असीम अनुराग, उसको भोगने की ललक और इनके समानान्तर समाज की रूढ़ियाँ, बंधन और जीवन को व्यर्थता-बोध तक ले जाने वाला नियति का उत्पीड़न - कवि के मन में आरंभ में ही एक द्वन्द्व को जन्म देते हैं। उन्होंने १९२५ में हाईस्कूल पास किया था, १९२७ में श्यामा से उनका विवाह हो गया था। १९२९ में वे बी.ए. भी हो गये थे और यही दौर उनके जीवन का कठिनतम दौर था। अपना स्वास्थ्य खराब, श्यामा यक्ष्मा से पीड़ित, आर्थिक तंगी बेहद, एक के बाद एक नयी आपत्तियाँ! किशोर वय की कल्पनाएँ यौवन तक आते-आते यथार्थ की कठोर चट्टान से टकराती हैं किन्तु आश्चर्य! विषाद, निराशा और यंत्रणा के इस घोर संघर्ष में ’बच्चन‘ भोगवाद का संदेश सुना रहे थे। संसार की नश्वरता और नियति की क्रूरता के समानान्तर कवि एक फंतासी बुनता है। श्यामा के देहावसान (१७ नवम्बर १९३६) तक वह उस फंतासी से अपने को बहलाता हुआ मधुकाव्य की रचना में तल्लीन रहता है। वह दुःख की चिरता को जानकर भी उसको चुनौती देता हुआ उन्माद के गीत गाता है जबकि तब तक कवि का जीवन विषाद-बाँसुरी बन चुका था तथापि बच्चन का जीवन सुख या दुःख का एकतान आलाप नहीं है, उनकी जीवन-चदरिया सुख-दुख - दोनों के ताने-बाने से बुनी गयी हैं, अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करके विश्वविद्यालय में प्राध्यापन, तेजी से परिणय, कैंम्ब्रिज से डाक्ट्रेट, श्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कार, राज्यसभा की सदस्यता और अमिताभ का शीर्ष करियर जैसी बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ यदि उनके साथ जुड़ी हैं तो जीवन के कटुतम अनुभव भी उन्हें प्राप्त हुए हैं। अभिधा की शराब के स्वाद से अपरिचित इस मदपायी के प्याले में कटुतम और मधुतम पेयों का मिश्रण है। 

’जाल समेटा‘ के बाद बच्चन की पाँच-सात कविताएँ ही प्रकाश में आ पाईं। उनकी साहित्यिक सक्रियता का काल लगभग चार दशक का है पर इन चार दशकों में उन्होंने जितना मौलिक और अनूदित गद्य और पद्य लिखा है, उसके मात्रात्मक विस्तार की समता भी बहुत कम ही लेखक कर पाते हैं, गुणों के विश्लेषण का प्रश्न तो अलग है।

साधारण पाठक और श्रोता के लिए तो बच्चन एक कवि के रूप में ही ख्यात रहे हैं परन्तु उनके पत्र, निबन्ध-संग्रह, आत्मकथा के कई खंड और उनकी काव्य-कृतियों की भूमिकाएँ उन्हंव सशक्त गद्य लेखक प्रमाणित करने में सक्षम हैं। बच्चन का काव्येतर लेखन कितना विपुल है, इसका पता इसी तथ्य से चल जाता है कि उनकी ’रचनावली‘ के जो नौ विराट् खंड प्रकाशित हुए हैं, उनमें से पाँच खंड केवल गद्य के हैं, जिनमें एक पूरा खंड शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद का है। इसी प्रकार चौथे खंड में खैयाम की मधुशाला, जनगीता और नागरगीता के साथ चौंसठ रूसी कविताओं के अनुवाद भी संकलित हैं। बच्चन के अनुवाद की विशेषताएँ है - उसका मूल से अभीष्ट साम्य, मूल रचना-सा प्रवाह आौर सहज सम्प्रेषणीयता। 

बच्चन भले ही कायदे से निरन्तर आलोचना न लिखते रहे हों तथापि ’कवियों में सौम्य संत‘ उनकी बाकायदा एक आलोचना पुस्तक है। ’नये पुराने झरोखे‘ में अधिकतर संस्मरण-लेख हैं पर इनमें साहित्य पर टिप्पणियाँ मौजूद हैं, उनके कई असंकलित लेख रचनावली में ही आ पाए हैं, जिनमें तुलसी की एक चौपाई - “विधु बदनी सब भाँति सँवारी, सोहन वसन बिना वर नारी” को लेकर लिखे लेख के अतिरिक्त गुलाब राय, राहुल सांस्कृत्यायन, दिनकर एवं भगवतीचरण वर्मा विषयक लेख विशिष्ट हैं। बच्चन का साहित्यालोचन उनके पत्रों, साक्षात्कारों एवं पुस्तकों की भूमिकाओं में भी उपलब्ध होता है।

बच्चन ने जिस साहस से अपने जीवन को अपनी कविताओं का कथ्य बनाया है, उतने ही साहस से उन्होंने कथ्य की और व्याख्या प्रस्तुत करते हुए अपने जीवन का आख्यान गद्य में भी लिखा है। गीत घटना का प्रभावशेष तरल होता है और आत्मकथा घटना के स्थूल तंतुओं से निर्मित होती है। बच्चन ने  ’क्या भूलूँ क्या याद करूँ !‘ ’नीड़ का निर्माण फिर‘, ’बसेरे से दूर‘, तथा ’दशद्वार से सोपान तक‘ के रूप में जो आत्मकथा प्रस्तुत की है, वह अनके अर्द्धशती के जीवन के चार-अध्याय हैं। बच्चन ने अपने एक लेख में आत्मकथा-लेखन की कठिनाइयों पर गंभीरता से विचार किया है। वास्तव में बच्चन की आत्मकथा जितनी विशद तथ्यात्मक है, उतनी ही औपन्यासिक रोचकता से सम्पन्न भी है। बच्चन से पूर्व हिन्दी कवियों की इतनी बेबाक आत्म-स्वीकृतियाँ कम ही उपलध होती है। ’उग्र‘ की ’अपनी खबर‘ जरूर एक अपवाद है। बच्चन की आत्मकथा भविष्य में अनेक रचनाकारों के लिए प्रेरणा बनी है। यह रचनात्मक साहित्य का यह उत्कृष्ट रूप है। गद्य यदि कवियों की कसौटी है तो निःसंदेह बच्चन अपने गद्य में भी कवि होने का ही प्रमाण देते हैं। उनकी साहित्य-यात्रा का मूल्यांकन उनके गद्य-लेखन की उपेक्षा करके नहीं किया जा सकता। 

बच्चन की आरंभिक रचनाएँ छायावाद के वैराट्य की तुलना में जीवन के अधिक नजदीक हैं। इनकी भाषा भी जन-संवेदना से अधिक जुड़ी हैं। इनमें उनकी भावी कविता के संकेत भी छिपे हैं। बहुत शुरू में बच्चन ने लिखा था : 

मैं एक जगत को भूला,
मैं भूला एक जमाना
कितने घटना-चक्रों में, 
भूला मैं आना-जाना
पर दुख-सुख की वह सीमा, 
मैं भूल न पाया साकी
जीवन के बाहर जाकर
जीवन में तेरा आना

जिस मधुकाव्य ने बच्चन को कवि रूप में प्रतिष्ठित (और ’अप्रतिष्ठित‘ भी!) किया था, उसके बीज इन पंक्तियों में है। ’मधुशाला‘, ’मधुबाला‘ और ’मधुकलश‘ में साकी, प्याला, बुलबुल और तमाम एक खास तरह की दुनिया प्रतीकों की ही बसा दी हैं कवि ने! प्रतीक जन-संवेदना की शाण पर चढ़कर विशेष अर्थवत्ता प्राप्त करते हैं। 

इस संदर्भ में बच्चन का कथन है – “मेरे काव्य जीवन में ’रोबाइयात उमर खैय्याम‘ का अनुवाद एक विशेष स्थान रखता है। उमर खैय्याम के रूप, रंग, रस की एक नई दुनिया ही मेरे आगे नहीं उपस्थित की, उसने भावना, विचार और कल्पना के सर्वथा नये आयाम मेरे लिए खोल दिये, उसने जगत्, नियति और प्रकृति के सामने लाकर मुझे अकेला खडा कर दिया..... खैय्याम से जो प्रतीक मुझे मिले थे, उनसे अपने को व्यक्त करने में मुझे बड़ी सहायता मिली।” बच्चन ने इन प्रतीकों के द्वारा मध्यकालीन, आध्यात्मिकता, द्विवेदीयुगीन, मर्यादावादिता तथा छायावादी अतीन्द्रियता के प्रति विद्रोह किया। बच्चन की ’मधुशाला‘ चिर-दग्ध हृदय की वाणी है। इसके पूर्वाद्ध में यदि कवि ने मरणोपरांत क्रियाओं में भी मधु की महत्ता स्थापित की है तो इसके उत्तरार्द्ध में गहरी टीस, अस्थिरता और मोह भंग का यह रूप भी है -

कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गई सुरभित हाला
कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला
पीने वालों ने मदिरा का मूल्य हाय कब पहचाना
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला 

पूर्वोक्त प्रतीक-माला १९३६ में प्रकाशित पंद्रह गीतों के संग्रह ’मधुबाला‘ में भी उपस्थित है। जीवन-दृष्टि के प्रतिपादन के कारण ’इस पार-उस पार‘ कविता विशिष्ट है। नियति की निष्ठुरता जगत् की नश्वरता और अतृप्ति की वेदना ने आकांक्षापूरित हृदय को मथा है। छायावाद की इस पुकार - “तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है” के प्रतिरोध में आहत हृदय बिलख उठता हैः “इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा”। कवि जब देखता है “इस पार नियति ने भेजा है असमर्थ बना कितना हमको” तब अविश्वास की गहन वेदना का साक्षात्कार उसे होता हैः “प्याला है पर पी पायेंगे है ज्ञात नहीं इतना हमको,” कवि सोचता हैः “कुछ भी न किया जब हमने तब उसने जग में काँटे बोये/वे भार दिये धर कंधों पर जो रो-रो कर हमने ढोये।” कवि मार्मिक प्रश्न कर उठता हैं :- 

जब इस लम्बे चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पायेगा
तब हम दोनों का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा।

लालसा और यौवन के उद्वेग से भरी तथा पंडित और मोमिन को फटकारतीं ये रचनाएँ दिखलाती हैं कि जीवन अस्थिर और क्षणभंगुर है, जड़-चेतन में प्यास भरी हैं, प्रत्येक प्यास बुझाने का प्रयत्न भी करता है पर शेष सृष्टि की तुलना में कृत्रिम आवरणों से घिरा मानव ही बंधनग्रस्त है जब कि पाटल-दल नित्य मधु पीने को आमंत्रित करते हैं।

’मधुकलश‘ के संतुलित एवं सुगठित प्रगीतों में प्रतीकों के आवरण की अपेक्षा सीधी अभिव्यक्ति है। अब तक साहित्य समाज में कवि की जो कटु आलोचना हुई थी, अधिकांश रचनाओं में उसका प्रत्युत्तर है। उसे क्षोभ है कि वृद्ध जग को उसकी क्षणिक जवानी अखरती है जबकि उसका कथन है : 

राग की पीछे छिपा चीत्कार कह देगा किसी दिन
हैं लिखे मधुगीत मैंने हो खड़े जीवन-समर में।

तत्कालीन राष्ट्रीय संदर्भों में ’मधुकलश‘ की रचना ’लहरों का निमंत्रण‘ एक भिन्न प्रतीक भूमि पर स्थित है। कवि का उद्दाम यौवन सक्रिय होकर ’उस पार‘ की कुछ विभा को ’इस पार‘ लाना चाहता है।

बच्चन के काव्य में हलाहल और मधु परस्पर विरोधी नहीं है। उनकी हाला जहाँ उल्लास और वेदना के बीच सांमजस्य खोजती है, वहाँ उनकी परवर्ती रचना में हलाहल कटुता की संज्ञा को ही नष्ट कर देता है। कवि पीड़ा के हलाहल को पी जाना ही श्रेयस्कर समझता है। कवि मानता है कि जो हलाहल नहीं पी सकता, जो केवल मदिरा पिपासु है, वह कायर है। बच्चन की काव्य-यात्रा में इस मधुकाव्य की भूमिका कवि की वेदना के क्षरण की है। कल्पना का लोक बुनकर कुछ समय के लिए कवि ने यथार्थ की कठोरता को भुलाने का जो प्रयास किया है, उसी का यह प्रतिफल है। ’निशा-निमंत्रण‘ बच्चन के जीवन के नये अध्याय का त्रासद आख्यान है। कवि संघर्षों से जूझ ही रहा था कि उसके स्वप्न की आधार, उसकी कल्पना की अवलम्बन, उसकी जीवन-संगिनी उसे निविड़ तम में एकाकी छोड़कर चली जाती है। इस निष्ठुर आघात से कवि-हृदय चूर-चूर हो गया। जीवन-समर में खड़ा रह कर सुरा के गान गाने वाला कवि, संसार को ललकारने वाला कवि श्यामा के चले जाने पर बिलख उठा - “तुम जीतो उस ठोर जहाँ पर हमने जीती बाजी हारी!” यह वेदना ’निशा-निमंत्रण‘ के बाद ’एकांत संगीत‘ और ’आकुल अंतर‘ तक फैलती चली गई है। 

’निशा-निमंत्रण‘ के सौ गीत एक विषादावृत्त रात्रि का चित्र हैं। इसे एक महागीत भी कह सकते हैं। जिसमें एकाकी विधुर मन की सघन पीड़ा का चित्रण है। प्रकृति की छोटी-छोटी घटनाएँ कवि को आंदोलित कर देती हैं। गहराती संध्या में नीड़ों की ओर द्रुत गति से उड़ते खगों की प्रतीक्षा में तो उनके शावक हैं पर कवि स्वयं को कुछ इस स्थिति में पाता है : “पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछड़ा पंछी एक अकेला।” ’निशा-निमंत्रण‘ के “तुम तूफान समझ पाओगे ? “साथी सो न कर कुछ बात!” यह पतझड़ की शाम, सखे, “बीते दिन कब आने वाले”, “मधुप नहीं अब मधुबन तेरा”, जैसे मार्मिक गीत अपनी सहजता में ही श्रेष् हैं। निशा निमंत्रण के गीत शिल्प की नयी जमीन भी तोड़ते हैं। संवाद-सापेक्ष सहज सम्प्रेष्य भाषा इस संकलन की बहुत बड़ी देन है।

’एकांत संगीत‘ में भी भाव-सूत्र से गुंफित सौ गीत संग्रहीत हैं। उदासी, अन्तमुर्खता और निराशा से पूर्ण ये गीत ’मधुबाला‘ की इस आशंका के सत्य हो जाने का परिणाम हैं कि “प्याला है पर पी पाएँगे है ज्ञात नहीं इतना हमको”। एकाकी और विवश कवि पुकार उठता हैः “हे कुंभकर मेरी मिट्टी को और न अब हैरान करो।” कवि का प्रश्न मार्मिक है :

जब जग पड़ी तृष्णा अमर
दृग में फिरी विद्युत लहर
आतुर हुए ऐसे अधर
पीलें अतल सिंधु को तुमने कहा मदिरा खतम
सोचा, हुआ परिणाम क्या ?

परन्तु संघर्षों में टूट कर भी कवि आध्यात्मिकता की शरण में नहीं जाता। “प्रार्थना मत कर” का संदेश मन को देकर कहता है : “मनुज पराजय के स्मारक हैं, मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर।”

’आकुल अंतर‘ तक आते-आते वेदना का यह आवेग मंदतर हो जाता है। यह विश्वास हो जाने पर कि दुख सहना ही है, कवि सुख-दुख में समरसता खोजने लगता है। वह जान गया है कि संसार की संवेदना में दिखावा अधिक है। अतः हार मानने की अपेक्षा वह संघर्ष के पथ को अपनाकर कहता है : 

कितनी बार धरा के ऊपर
अटल प्रणय के बंधन टूटे
कितनी बार गगन के नीचे
प्रेयसि-प्रियतम के प्रण टूटे

’संतरंगिणी‘ (१९४५) तक आते-आते ’निशा-निमंत्रण‘ काल के बादल और भी छँटते दिखाई देते हैं। कवि का रचना-संसार विविधमुखी हो जाता है। ’बंगाल का काल‘, ’सूत की माला‘ और ’खादी के फूल‘ में कवि अपनी वेदना से बाहर झाँकता है तो ’प्रणय-पत्रिका‘ और ’आरती और अंगारे‘ में ’संतरंगिणी‘ का उल्लास और मुखर होता है। ’बच्चन‘ के जीवन में तेजी का प्रवेश नये उल्लास और आनंद का संचार करता है। उनके जीवन में आया घोर गर्जनमय तूफान विनाश का तांडव रच कर चला गया था पर अब वह विगत होकर स्मृति की बात बन गया है। बादलों के छँट जाने पर गगन फिर उत्फुल्ल हो उठा है। जिन करों में चिता की राख थी, उनसे नीड़ का निर्माण फिर शुरू हो गया है। कवि के जीवन में ’नागिनी‘ और ’मयूरी‘ का नृत्य आरंभ हो गया है। कल कवि ने लिखा था - “है चिता की राख कर में माँगती सिंदूर दुनिया”। आज उसी दुनिया से कवि प्रश्न करता है : 

किन्तु ए निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।

’जो बीत गई‘, ’नई झनका‘, ’मुझे पुकार लो‘, ’तुम गा दो‘ जैसी रचनाएँ इसी संदर्भ से जुड़ीं हैं। प्राकृतिक घटनाओं का जीवन से सामंजस्य स्थापित कर अनुभूतियों को एक तात्विक धरातल प्रदान करना, निर्वैयक्तिकता में वैयक्तिकता का समावेश करना बच्चन की विशषता है। ये कविताएँ इसी का उदाहरण हैं। ’जो बीत गई‘ में अम्बर, मधुबन और मदिरालय की घटनाओं से सामंजस्य स्थापित करना कोरी प्रतीकात्मकता नहीं, वरन् रागात्मक सर्जना का सुंदर उदाहरण है। 

बच्चन जिजीविषा के कवि हैं। तभी उन्होंने लिखा है : “प्यार, जवानी, जीवन इनका जादू मैंने सब दिन माना!” ’मिलन यामिनी‘ में यह जिजीविषा मुखर है। जिसका मधुघट छलक कर मिट्टी में मिल गया था, उसकी तृष्णाकुल शृंगार-चेतना इसमें व्यक्त हुई। ’निशा-निमंत्रण‘ यदि अपनी वेदना से करुणतम है तो ’मिलन यामिनी‘ अपने उद्दाम शृंगार में मधुरतम। गगन में चाँदनी फैलने के साथ उसके मन में आह फैलने लगती है। उसके प्राण प्रेयसी का निमंत्रण देते हुए कहते हैं : 

शिथिल पड़ी है नभ की बाँहों में रजनी की काया
चाँद चाँदनी की मंदिरा में है डूबा भरमाया।

’मिलन-यामिनी‘ में छंदों की झनकार के साथ अैर भावनाओं के समानान्तर पदों का संकोच और विस्तार प्रशंसनीय है। लालित्य की दृष्टि से यह कृति उल्लेखनीय है। 

बच्चन ने लंदन-प्रवास में जब पहला-गीत “याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा” लिखा थी, तभी ’प्रणय-पत्रिका‘ की योजना बन गई थी (प्रवास की डायरी, पृ. ३६९)। प्रवास में कवि के उदास एकान्त क्षणों में मनवीणा - कविता - ही उसकी सहचर है। “सो न सकूँगा और न तुझको सोने दूँगा हे मन वीणे”, “अनमिल तार सभी बाहर के भीतर के कुछ तार मिला लूँ।” जैसे गीत इसकी ही अभिव्यक्ति हैं। विरह-वेदना तो यहाँ है पर इन गीतों का स्वर ’निशा-निमंत्रण‘ जैसा ’मारबिड‘ (मुमूर्षू) नहीं है। “मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय तेरे सब मौन संदेशे।” “आज मल्हार कहीं तुम छेड़ो मेरे नयन भरे आते हैं।” “तन के सौ सुख सौ सुविधा पर मेरा मन बनवास दिया-सा।” जैसे गीत इसका उदाहरण हैं। इस संग्रह की हंस संबंधी सात कविताओं की तुलना पंत ने सप्तऋषियों से की हैं। अर्थध्वनि, शब्द-झंकृति एवं भाव-प्रसार की दृष्टि से बच्चन की ये रचनाएँ विशिष्ट हैं। इनके उदात्त बिम्ब-विधान को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है : 

झाँकती संकेत करती जो गगन से एक पावक अँचला है,
झन झनाती पायलें जिसके पगों की बादलों में चंचला है।
तू बढ़ा गर्दन चला पश्चिम तरफ है, है पूर्व में मुस्कान उसकी
व्योम पर छाया हुआ तम-तोम हे हिम हंस तू जाता कहाँ है। 

’उर्वशी‘ के पुरूरवा का यह द्वंद्व ’मृति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर‘ और बच्चन का यह निष्कर्ष “लाख आकर्षित किसी को भी करे आकाश अपनाता कहाँ है” कितने एक स्वर होकर निकल पड़े हैं

’आरती और अंगारे‘ में संघर्ष और अंतर्द्वन्द्व की सह-उपस्थिति ह। “पीठ पर धर बोझ अपनी राह नापूँ या किसी कलि कुंज में रम गीत गाऊँ?” में द्वंद्व का जो भार है, वह यों भी व्यक्त हुआ हैः “दे मन का उपहार सभी को ले चल दिल का भार अकेले।” दुख न बँटा पाने की विवशता में एक ही उपाय है : “कटती है-हर एक मुसीबत एक तरह बस झेले-झेले।” सन् १९४५ से १९५८ तक की बच्चन की इन कृतियों का दौर प्रौढ़ता का दौर है।

बच्चन स्वयं को तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं से निरपेक्ष नहीं रख पाये। द्वितीय महायुद्ध, बंगाल का अकाल, देश का विभाजन और गांधी जी की हत्या जैसी महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने उनको प्रभावित किया। उस दौर में एक ही बैठक में निरंतर ३६ घंटे जाग कर प्रथमतः मुक्त छंद में लिखी एक हजार पंक्तियों की कविता ’बंगाल का काल‘ में उनकी सामाजिक चेतना का सर्वप्रथम उन्मेष हुआ है। इसमें भूख के माध्यम से विद्रोह की शक्ति की अभिव्यक्ति है। गांधी जी की हत्या के बाद बच्चन ने २०४ गीत लिखे थे जिनका प्रकाशन पंत जी के साथ मिल कर उन्होंने ’सूत की माला‘ और ’खादी के फूल‘ संग्रहों में किया है। इन आदर्शवादी कविताओं से यह तो प्रमाणित होता है कि बापू की हत्या से कवि के हृदय पर गहरा आघात लगा है परन्तु इनका काव्य-स्तर सामान्य है। फिर भी कवि का बाहर से बढ़ता जुड़ाव उल्लेखनीय है। ’धार के इधर-उधर‘ में कविताओं का स्वर समाजोन्मुखी है। ’रक्त स्नान‘, ’आप किनके साथ हैं‘ और ’व्याकुलता का केन्द्र‘ जीवन के भीषण संघर्ष को व्यक्त करने वाली कविताएँ हैं। नए संदर्भ में मनुष्य की करतूतों का खुलासा ’मनुष्य की मूर्ति‘ कविता में हुआ है : 

रचता मुख जिससे निकली हो वेद उपनिषद की वर वाणी
काव्य माधुरी राग रागिनी जग जीवन के हित कल्याणी
हिंस्र जंतु के दाढ़ युक्त जबड़े सा पर वह मुख बन जाता
देवलोक से मिट्टी लाकर मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता

इस संग्रह की ’आजाद हिंदुस्तान‘, ’देश के नाविक‘ और ’आजादी की दूसरी वर्षगांठ‘ में स्वतंत्रता, संघर्ष और राष्ट्रप्रेम की अभिव्यक्ति नए संदर्भों में प्रासंगिक है। 

’बुद्ध और नाच घर‘ कविता बच्चन के भावात्मक काव्य के बरक्स एक बौद्धिक रचना-संसार के रूप में प्रस्थान-बिंदु बन कर उभरती है। उनकी गीतात्मक चेतना यहाँ आकर शिथिल पड़ जाती है। मुक्त छंद उनकी कविता के केन्द्र में आ बैठता है। लोकगीतों का एक संदर्भ ’त्रिभंगिमा‘, ’चार खेमे और चौंसठ खूँटे’ में उभरता जरूर है पर वह ’मधुशाला‘ से लेकर ’आरती और अंगारे‘ तक प्रवाहित गीत-धारा से भिन्न है। ’बुद्ध और नाच घर‘ में व्यंग्य कटुता और आक्रोश का पैना स्वर है। ’नया चांद‘, ’पपीहा और चील कौए‘, ’युग का जुआ‘, ’शैल विहंगिनी‘ और ’डैफोडिल‘ जैसी कई कविताएँ इस संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं। ’बुद्ध और नाच घर‘ कविता में यथार्थ की जैसी पकड़ है, वह बच्चन काव्य में अन्यत्र दुर्लभ है। बुद्ध का जीवन-दर्शन, उसकी प्रतिमा की प्रतिष्ठा, फिर मानव द्वारा देवत्व का उपहास, बुद्ध के सिद्धांतों का विपर्यास, आधुनिक मनुष्य की निम्नगामी परवृत्ति और उसके दोहरे जीवन का - दिखावे की विडम्बना का - सप्राण चित्रण इस कविता में मिलता है। 

बच्चन ने उत्तरप्रदेश की लोकधुनों और अंशतः आँचलिक भाषा में जिन लोकगीतों की रचना की है, उनसे पूर्व नवगीत की पृष्ठभूमि बनने वाले ’नयी कविता‘ धारा के कवियों के आँचलिकता-प्रधान गीत भी आ चुके थे। अतएव यह बच्चन का मौलिक प्रयास तो नहीं है पर यह स्वर उनकी कविता में एक नया उत्साह जरूर भरता है। पगला मल्लाह, सोनमछरी, नीलपरी, महुआ के नीचे, जामुन चूती है, मालिन बीकानेर की तथा हरियाणे की लली जैसे सरस गीत ध्यानाकर्षक हैं। इन संग्रहों में मौन योगी, जादूगर का जादू, चिड़िया और चुरगुन, तुम्हारी नाट्यशाला, चल बंजारे, चलने की मजबूरी, कैसा मोह जग का, नभ का निमंत्रण पारम्परिक गीत धारा की रचनाएँ है पर इन पर वैराग्य और उदासी की गहरी छाया है। 

बच्चन के काव्य का समाहार अन्तर्दर्शन - इन्ट्रोस्पैक्शन- के रूप में होता है। दो चट्टानें, बहुत दिन बीते, कटती प्रतिमाओं की आवाज, उभरते प्रतिमानों के रूप ओर जाल समेटा संग्रहों में यही प्रवृत्ति है। बच्चन ’नयी कविता‘ शैली की ओर तब आते हैं, जब इसका शोर थमने लगा था तथापि वे कई ऐसे विषयों को भी छूते हैं जो नयी कविता में अछूते रह गये थे। ’२७ मई‘, २६.०१.६३‘, ’सार्त्र के नोबेल पुरस्कार ठुकराने पर‘, ’सूर समर करनी करहीं‘, ’उघरहिं अंत न होई निबाहू‘, ’खून के छापे‘, जैसी ऐसी बहुअर्थस्तरीय एवं चिंतन-प्रधान रचनाएँ हैं। कवि का प्रश्न मार्मिक हैः “यह बेपनाह खून किसका है ? क्या उनका ? जो तवारिख की रेख से अपने ही वतन में जलावतन हैं। जो बहुमत के आवेश पर, सनक पर, पागलपन पर, अपराधी, दण्ड्य, और बाध्य करार दिए जाते हैं। निर्वास, निर्धन, निर्वसन, निर्मम, कत्ल कर दिये जाते हैं। उनको रक्त की छाप लगानी थी....के द्वार पर..” कवि बाहर से ही निराश नहीं है, अपने से भी खुश नहीं है। इसीलिए “बहुत दिन बीतें” में लिखता है :”मैं कटे हुए पाषाण खंडों को/उठाकर देखता हूँ....अरे यह तो “हलाहल”, “संतरंगिनी” यहः/देखता हूँ “निशा संगीत”....”खेमे चार खूंटे”, क्या अजब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में/”आरती” उलटी “अंगारे” दूर छिटके, धराषायी वहाँ मधुशाला की “चट्टानें” पड़ी “दो”/आँख से कम सूझता अब उस तरफ “मधुकलश” लुढ़के पड़े रीते/”तुम बिन जियत”, “बहुत दिन बीते”। ’कटती प्रतिमाओं की आवाज‘ में ’पाँच पीढ़ियाँ‘ कविता में समकालीन काव्य संदर्भों के ह्रास का जो व्यंग्यात्मक चित्रण किया है, उसके समानांतर ’उभरते प्रतिमानों के रूप‘ में भी पैनी मार करते हुए वे लिखते हैं : 

तीन सतर की कविता निकली
तीन पेज का निकला लेख
तीन टांग की बछिया ब्याई
ताऊ गाड़े छत्तीस मेख
सींग हिलाता है पगुराता
दुनिया देखा बुढ़वा बैल
अब्बर देबी, जब्बर बकरा
तागड़ धिन्ना नागर बेल

यद्यपि बच्चन मानते हैं कि एक रचनाकार के लिए जाल समेटने का कोई अर्थ नहीं होता तथापि ’जाल समेटा‘ को अपनी अंतिम कृति घोषित करते हुए वे लिखते हैं :

जाल समेटा करने में भी
समय लगा करता है माँझी
मोह मछलियों का अब छोड़!

’जाल समेटा‘ के बाद कवि की मृत्यु तक दस-एक कविताएँ ही आई होंगी। इस लम्बी चुप्पी का कारण स्पष्ट है। बच्चन आत्माभिव्यक्ति के कवि हैं। खराब स्वास्थ्य के कारण उनके जीवन के अंतिम वर्ष सामाजिक भागीदारी के न होकर विश्रांति के रहे हैं। इसलिए यह उनकी कविता का विराम काल बहुत पहले आ गया था। 

बच्चन के काव्य के मूल्यांकनकर्त्ताओं के दो ध्रुवान्त वर्ग हैं। कुछ आलोचक  उनके काव्य से ही समृद्ध छायावादी काव्य के पतन का आरंभ मानते हैं और कुछ अन्य का मत है कि लोक-विमुख छायावाद की तुलना में ऐहिक अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति को गीत की अद्वितीय भंगिमा और कविता भी युग-निर्मात्री उपलब्धि का आधार बच्चन ने ही बनाया। पर किसी कवि का मूल्यांकन अतिवाद से संभव नहीं होता। यह सही है कि बच्चन के गीतों में प्रसाद के काव्य जैसी सांस्कृतिक चेतना और बिम्बात्मकता, निराला के काव्य जैसी संश्लिष्टता और विराटता तथा पंत के काव्य जैसी भाषागत सूक्ष्मता उपलब्ध नहीं है पर मध्यवर्गीय चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से वे अद्वितीय कवि हैं। यों केवल लोकप्रियता को साहित्यिक श्रेष्ठता का आधार नहीं माना जा सकता पर अपनी सम्प्रेष्ण-क्षमता के आधार पर बच्चन ने जितना विशाल पाठक एवं श्रोता समुदाय हिन्दी को दिया है, उसका ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद है। 

बच्चन का श्रेष्ठतम प्रदेय जिन कृतियों में संकलित है, वे हैं: ’निशा-निमंत्रण‘, ’प्रणय पत्रिका‘, और ’दो चट्टानें‘। ये कृतियाँ उनके विविध छटाओं वाले जीवनानुभवों का प्रतिबिम्ब हैं। ’निशा निमंत्रण‘ गहन विषाद, चरम वेदना और एकांत टूटन का परिणाम है, वह अपनी करुण परिणति में ही श्रेष्ठ है। ’प्रणय-पत्रिका‘ भी मिलन का काव्य नहीं है, विछोह और वेदना इसमें भी है पर इसमें आशा की डोर टूटी नहीं है। संवेग और कल्पना के मिश्रण से जिस समृद्ध शिल्प की उपस्थिति इसमें वह चिरकाल तक प्रभावित करती है। ’दो चट्टानें‘ बच्चन को अपने सीमित जीवन से बाहर निकलने को विवश करने वाली कृति है। यथार्थ का सशक्त चित्रण इसे विशिष्ट बनाता है। बच्चन का काव्य एक जीवन-दर्शन का प्रतिपादन है। चरम निराशा के क्षणों में उसने लिखा था : 

नंगी डालों पर नीड़ सघन
नीड़ों में है कुछ-कुछ कम्पन 
मत देख नज़र लग जाएगी यह चिड़ियों के सुखधाम सखे
यह पतझड़ की शाम सखे

वही कवि ’मिलन यामिनी‘ की भी रचना करता है, जिसमें वह गाता है।

सखि, यह रागों की रात नहीं सोने की
बाट जोहते इस रजनी की वज्र कठिन दिन बीते
किन्तु अंत में दुनिया हारी और मी तुम जीते
नर्म नींद के आगे अब क्यों आँखें पाँख झुकायें
सखि, यह रातों की रात नहीं सोने की!

ऐसा वही कुंठा-मुक्त कवि ही लिख सकता है, जो ’नील झील से नयनों‘ और ’नीर निर्झ्रर से लहरे केशों‘ की अकुंठ प्रशंसा कर सकता है। बच्चन राग के कवि हैं। राग की यह आग ही उनकी कविता की द्रवणशीलता का कारण-तत्व है।
 

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