हैप्पी दीवाली

01-11-2020

हैप्पी दीवाली

अमिताभ वर्मा (अंक: 168, नवम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

सुबह-सुबह इक झपकी आयी, फिर इक सपना आया
सपने में जो कुछ दीखा वह हमको इक न भाया
हमको इक न भाया, भाता भी तो कैसे
दृश्य हमारे सपने के थे हॉरर फ़िल्मों जैसे
 
घुप्प अँधेरे जंगल में हम राहें खोज रहे थे
बदहवास था हाल, खुपड़िया नोच रहे थे
चमगादड़ थे कहीं लपकते और कहीं कंकाल
घबराहट के मारे भैया बुरा था अपना हाल
 
बुरा था अपना हाल, न था कुछ समझ में आता
सिर्फ़ अँधेरा ही होता तो शायद कम घबराता
पर यहाँ तो जैसे कोई छाती पर बैठा जाता था
साँसें नहीं, हमारे अन्दर सिर्फ़ धुआँ आता था
 
तभी भयानक उस जंगल में कुछ प्रकाश-सा आया
हुआ भयंकर शोर एक, हम समझे परलय आया
भालू-चीता-हाथी-बन्दर सभी जानवर भागे
एक गधे के पीछे थे हम, वह था थोड़ा आगे
  
पस्त हो गई हालत जल्दी, जलते थे दोनों पहलू
ठोकर खा कर गिरे, तो देखा शाख के ऊपर उल्लू
शाख के ऊपर के उल्लू ने किया हमें हैरान -
"सचमुच, उल्लू ही है! इसको नहीं प्रलय का ज्ञान

"रत्ती-भर भी अक़्ल जो होती तो यह भी उड़ जाता
"दूर गगन की ऊँचाई में अपने प्राण बचाता"
इसी तरह हम तरस थे खाते उल्लू की बुद्धि पर
तभी वो बोला, "देख, एक तो हूँ मैं ड्यूटी पर
 
"दूजे, परलय नहीं है, ये हड़कम्प मचा है
"बम-फोड़ू दीवाली का तो यही मज़ा है!"
उल्लू के ड्यूटी पर होने से मैं थोड़ा चकराया
वर्दी देखी उसकी तो फिर अपनी समझ में आया
 
बड़े अक्षरों में लिखा था ’लक्ष्मी की सेवा में’
होंगे देवी के दर्शन! - हम बैठ गये आशा में
हाथ जोड़ कर पूछा हमने "कहाँ तुम्हारा है पैसेंजर"
बोला उल्लू "अभी तो मैडम खड़ी हुई थीं उसी मोड़ पर"
 
’उसी मोड़’ पर किया ग़ौर तो दिखी हमें इक कंकालिन
गहने तो पहने थे लेकिन काया थी उसकी बड़ी मलिन
मुँह के ऊपर जड़ा मास्क था, कानों में थे ईयर प्लग
ग्लास चढ़ा था आँखों पर, चलती थी वह डगमग-डगमग
 
विश्वास न होता था लक्ष्मी की ऐसी हालत होगी
हमने सोचा शायद माताजी डायटिंग पर होंगी
नए ज़माने में देवी भी तो मॉडर्न ही होंगी
यही सोच कर शेक-हैण्ड की हमने युक्ति सोची
 
हाथ मिलाया देवी ने, बोलीं "हाँ, मिस्टर वर्मा?
"मिस्टर ही कहलाते हैं अब भल्ला हों या शर्मा
"’श्री’ का स्वर अब देश में अपने देता नहीं सुनाई
"क्यों ’श्री’ की आशा करते हो व्यर्थ में मेरे भाई
 
"पुस्तक पढ़ कर ज्ञान-प्राप्ति कर लेना फिर से सीखो
"व्हाट्स ऐप और ट्विटर के अंधे जाल में यूँ न उलझो
"त्योहारों के नाम पे क्यों इतनी बारूद उड़ाते हो
"पूजा करते हो या मृत्यु का कर्कश बिगुल बजाते हो
 
"फाड़े कान के पर्दे और आँखों से ज्योति छीनी
"दमे और दिल के रोगी की कैसी हालत कीन्ही
"नासमझी में मानव ऐसे कब तक प्राण गवाँएगा
"लाभ नहीं होगा बेटा कुछ, सर्वनाश हो जाएगा"
 
सिहर गये हम सोते-सोते, सपना अपना टूटा
होश उड़ गये जब कमरे में ज़ोरों से बम फूटा
गली में कोई चिल्लाया "अंकल, हैप्पी दीवाली"
डरे-डरे से हम बोले, "बेटा, हैप्पी दीवाली"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
नाटक
किशोर साहित्य कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
एकांकी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में