ज़ंज़ीबार की लोककथा

किसी समय एक बहुत ग़रीब आदमी रहता था जिसका नाम हमदानी था। पेट भरने के लिए वह द्वार-द्वार भिक्षा माँगता था और कभी-कभी कुछ चीज़ें चुपके से उठा लेता था। कुछ समय बाद लोग यह बात जान गए और उसे भिक्षा देना बंद कर दिया ताकि वह उनके घरों से दूर रहे। अतः मजबूर होकर उसे गाँव के घूरे (कूड़े के ढेर) पर जाना पड़ा जहाँ से अनाज के दाने बीन कर लाने पड़ते ताकि वह अपनी भूख मिटा सके।

एक दिन भाग्य उस पर मुस्करा रहा था। उस दिन कूड़े के ढेर में उसे एक डाइम (दस सेंट का सिक्का) मिल गया जिसे उसने अपनी जेब में रख लिया। वह भोजन के लिए दानों की तलाश करता रहा पर उसे कुछ नहीं मिला।

"अरे ठीक तो है," उसने स्वतः कहा, "अब मेरे पास एक डाइम है। अब मैं ठीक से व्यवस्थित हो चुका हूँ। मैं घर जाऊँगा और एक झपकी लूँगा।"

अगली सुबह जैसे ही घूरे पर पहुँचा उसने देहात से आते हुए एक आदमी को देखा जो पेड़ की टहनियों से बना एक पिंजरा ले जा रहा था। उसने पुकारा, "ओ भाई, उस पिंजरे में क्या ले जा रहे हो?"

उसने बताया, "चिकारा (एक प्रकार का छोटा हिरन)।"

हमदानी ने बुलाया, "इनको यहाँ लाओ मैं देखना चाहता हूँ।"

कुछ सम्पन्न लोग वहाँ पास ही खड़े थे। उन्होंने उसे जाने से मना कर दिया।

"क्यों महाशय," उसने पूछा।

उन्होंने कहा, "उस ग़रीब आदमी के पास कुछ भी नहीं है- एक सेंट तक नहीं। प्रतिदिन वह इस कूड़े के ढेर को खंगालता है और जो थोड़ा बहुत अन्न मिल जाता है उसी से गुज़ारा करता है। यदि उसके पास धन होता तो क्या वह चिकारा की जगह अपना भोजन नहीं खरीद लेता! वह चिकारा देखकर आँखों को तृप्त करना चाहता है।"

लेकिन चिकारा विक्रेता ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हमदानी के पास पहुँचा। हमदानी ने पूछा, "एक चिकारा की क्या क़ीमत है? मैं एक डाइम तक में इसे ख़रीद लूँगा।"

आसपास खड़े लोग हँसने लगे। लेकिन हमदानी ने एक डाइम निकाला और व्यापारी को देते हुए कहा, "भले आदमी, इसके बदले मुझे एक चिकारा दे दो।"

इस पर व्यापारी ने एक छोटा चिकारा पिंजरे से निकाला और उसे पकड़ाते हुए कहा, "लो भाई, लो, इसे मैं किजिपा कहकर बुलाता हूँ।"

हमदानी बहुत प्रसन्न था और अपना जीवन वैसे ही चलाता रहा। रात होने पर वह और चिकारा साथ-साथ सोते। ऐसा एक सप्ताह तक चलता रहा।

तब एक रात को हमदानी जाग पड़ा। उसने सुना कोई कह रहा है। "मालिक" यह आवाज़ सुनकर वह उठकर बैठ गया और बोला, "मैं यहाँ हूँ, कौन बुला रहा है?"

चिकारा ने उत्तर दिया, "मैं बुला रहा हूँ।

यह सुनकर वह भिक्षुक इतना डर गया कि यह नहीं समझ पाया कि वह बेहोश हो जाए या उठकर खड़ा हो जाए या भाग जाए। उसने कहा, "क्या संसार में किसी ने सुना है कि चिकारा भी बोलता है?"

चिकारा हँसा, "बस कह चुके? इससे भी अधिक आश्चर्यजनक चीज़ें संसार में हैं। लेकिन अब सुनो मैंने तुम्हें क्यों पुकारा!"

"अवश्य; मैं तुम्हारा एक-एक शब्द सुनूँगा," आदमी ने कहा।

"ठीक है।" किजिपा ने कहा, "अब तुम मेरे मालिक हो और मैं तुमसे छूटकर भाग भी नहीं सकता। लेकिन तुम बहुत ग़रीब हो और अनाज के कुछ दानों के लिए कूड़े के ढेर को खंगालना तुम्हारे लिए बहुत अच्छा हो सकता है पर मेरे लिए नहीं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो मैं भूख से मर जाऊँगा। अतः प्रत्येक दिन सुबह मुझे जाने की आज्ञा दो ताकि मैं अपना भोजन प्राप्त कर सकूँ और शाम को तुम्हारे पास लौट आऊँ, यह मेरा वादा है।"

"ठीक है, मैं अपनी सहमति देता हूँ।"

तब से किजिपा हर सुबह चला जाता और रात तक लौट आता। लेकिन छठे दिन की बात है कि जब किजिपा झाड़ियों में घुसकर पत्तियाँ और एक विशाल वृक्ष के नीचे घास खा रहा था उसने एक चमकता हुआ काफ़ी बड़ा हीरा देखा। किजिपा ने कहा, "ओऽ होऽ, यहाँ तो एक बादशाहत के मूल्य की संपत्ति पड़ी है। अगर मैं इसे अपने मालिक के पास ले जाता हूँ तो अवश्य ही वह मारा जाएगा। मैं किसी शक्तिशाली व्यक्ति की तलाश करूँगा जो इसका उचित प्रयोग कर सके।“

और इस तरह, उस रात किजिपा वापस नहीं लौटा। वह महानगर में सीधे सुलतान के महल की ओर चल पड़ा। रास्ते से गुज़रने वाले लोग ठहर कर इस हैरतअंगेज़ नज़ारे को देखते कि एक चिकारा अपने दाँतों से हरे पत्तों में लिपटी कोई चीज़ दबाए मुख्य मार्ग पर दौड़ रहा है।
सुलतान अपने महल के दरवाज़े पर बैठा था तभी किजिपा ने अपने मुँह में दबाया हुआ हीरा वहाँ डाल लिया और वहीं पास में लेट गया और हर्ष से चीखते हुए कहा, "मालिक, आदाबअर्ज़ है।"

"सुलतान ने कहा, "ख़ुदा ख़ैर करे! आओ, मेरे पास आओ।"

और किजिपा ने कहा, "मालिक, जो समाचार मैं लाया हूँ पता नहीं आप उसे कैसे लें! मैं यहाँ एक पारिवारिक संबंध के लिए अधीर हूँ।"

सुलतान ने कहा, "अपना संदेश कहो।"

किजिपा ने कहा, "ठीक है, मेरे द्वारा लाई गई इस धरोहर को देखिए," और पत्तों में लिपटा हुआ हीरा उसने सुलतान की गोद में डाल दिया। सुलतान आश्चर्य से अभिभूत हो उठा।

चिकारे ने कहा, "मैं यह धरोहर अपने मालिक सुलतान दाराई की ओर से लाया हूँ। उसने सुना है कि आपकी एक विवाह-योग्य कन्या है।"

"अपनी बेटी से शादी करने के लिए मैं सुलतान दाराई को सहमति देता हूँ। मुझे उनसे अब कोई भी और चीज़ नहीं चाहिए। वे खाली हाथ चले आएँ क्योंकि वे अच्छे आदमी होंगे।"

किजिपा ने उनसे विदा ली और भिखारी के पास लौट आया।

उसने हमदानी को रोते हुए पाया। वह प्यार से उसके गले लगा फिर कहा, "चलो, चलो, चुप हो जाओ मेरे मालिक। मैं तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी लाया हूँ।" फिर उसने सारी बात बताई।

शीघ्र ही दोनों महानगर के रास्ते पर थे। किजिपा ने अपने मालिक को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि वह एक चश्मे में स्नान कर ले ताकि वह साफ़-सुथरा नज़र आए। जब वे जंगल में पहुँचे तो चिकारे ने अपने मालिक से कहा, "यहीं लेट जाएँ।" जब हमदानी लेट गया तो चिकारे ने एक छड़ी से उसकी ख़ूब पिटाई की।

फिर चिकारे ने कहा, "अब मैं जा रहा हूँ लेकिन आप इस जगह से हिलना तक नहीं।"

इसके बाद वह दौड़ता हुआ गया और सुलतान के महल में जा पहुँचा जहाँ हर कोई सुलतान दाराई का इंतज़ार कर रहा था। लेकिन चिकारा अकेले ही प्रकट हुआ और सुलतान से कहा, "मेरे मालिक, आपका दिन शुभ हो।" सुलतान ने उसके अभिवादन का उत्तर देने के बाद पूछा कि क्या समाचार है! किजिपा ने उसाँस लेते हुए कहा, "कुछ मत पूछिए! मैं मुश्किल से चलकर आ पाया हूँ। समाचार दुखद है।"

"आख़िर हुआ क्या?" सुलतान ने पूछा।

और किजिपा ने एक दुर्भाग्यपूर्ण कहानी गढ़ी कि कैसे घने जंगल में लुटेरों ने मालिक को पीटा और लूटा। यहाँ तक कि उसका आखिरी कपड़ा तक उतार लिया।

सुलतान ने तत्काल नौकरों को ढेर सारे कपड़े लाने का आदेश दिया। आ जाने पर उनमें से बढ़िया पोशाकें छाँटी। उन्होंने इसके अतिरिक्त चिकारे को उसके मालिक के लिए एक घोड़ा भी दिया। सामान और घोड़े के साथ चिकारा रवाना हुआ।

किजिपा ने अपने मालिक को बढ़िया वस्त्र पहनाए और घोड़े पर बिठा दिया। वे कुछ ही दूर चले थे कि चिकारे ने रोककर कहा, "सुनो, अब तुम्हें देखने वाला कोई व्यक्ति नहीं कह सकता कि तुम वही हो जो कल तक घूरा खंगालता था।"

महल में सुलतान ने बहुत बड़ी दावत दी और शीघ्र ही हमदानी और अपनी बेटी का विवाह कर दिया। हमदानी के सुख के दिन शुरू हो गए।

किजिपा ने यह कहते हुए अपने मालिक से विदा ली कि वह शीघ्र ही लौटकर आएगा। मालिक ने उसे विदा देने और अपनी ख़ूबसूरत बीबी के साथ अकेले रहने में प्रसन्नता का अनुभव किया।

चिकारा जंगल में भटकने लगा। एक दिन उसने स्वयं से कहा, "मेरे विचार से मेरे मालिक का आचरण बड़ा विचित्र था। मैंने तमाम समय उनके साथ अच्छाई ही की है। मैं इस क़स्बे में आया, उसके लिए कितने ख़तरे उठाए और उसे सब कुछ दे दिया। तथापि उसने कभी नहीं पूछा, "यह मैंने कैसे किया?" इसके विपरीत उसने मेरे लिए कुछ नहीं किया। मैं चाहूँगा कि वह भी मेरे लिए कुछ करे!"

अतः वह जंगल में रहने वाली एक बुढ़िया की झोपड़ी में पहुँचा और उसे बताया कि उसके पेट में दर्द है, बुखार-सा लग रहा है और शरीर में भी दर्द है। उससे कहा, "आप मेरे मालिक से जाकर कहिए कि मैं बहुत बीमार हूँ और मुझे उसकी ज़रूरत है।" औरत चली गई और वहाँ पहुँचकर देखा कि मालिक और मालकिन संगमरमर के काऊच पर बैठे हैं, वे भारत से आए रेशमी परिधान धारण किए हैं। उसने चिकारे के कष्टों के बारे में बताया। लेकिन मालिक ने सिर्फ़ इतना किया कि एक कटोरा सस्ते किस्म का दलिया भेज दिया। इसे पा चिकारा निराश हो गया। उसने मालिक को दूसरा अवसर देना चाहा।

उसने बुढ़िया से कहा, "मेरे मालिक के पास एक बार फिर जाओ और बताओ मैं इतना बीमार हूँ कि दलिया नहीं खा सकता।"


जब बुढ़िया दुबारा पहुँची तो मालिक बहुत क्रोधित हो उठा। उसकी पत्नी, सुलतान की बेटी, तो रोने लगी और कहा, "किसी आदमी की एहसान फ़रामोशी ही उसकी तबाही होती है।"
आदमी गरज उठा, "मुझसे इस तरह बात करने का मतलब क्या है?"

"अगर सलाह ठीक से ली जाए तो आशीर्वाद-स्वरूप होती है। एक पति को अपनी पत्नी को और पत्नी द्वारा पति को सलाह दी जानी चाहिए," पत्नी ने कहा।

"मैं उस चिकारे के लिए कुछ नहीं करना चाहता जिसे मैंने एक डाइम में खरीदा था।" उसने बुढ़िया को फिर वापस भेज दिया।

इस प्रकार वह बुढ़िया जंगल वापस पहुँची और पाया कि चिकारे की हालत वास्तव में ख़राब है। हमदानी की बीबी ने चुपके से खाने के लिए कुछ चावल और लेटने के लिए एक तकिया भिजवा दिया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी क्योंकि इस बीच चिकारे ने दुखी होकर प्राण त्याग दिए थे।

जब लोगों ने यह सुना कि चिकारे की मृत्यु हो गई है तो वे रोने लगे। हमदानी की पत्नी भी रोने लगी। लेकिन हमदानी के क्रोध की सीमा नहीं थी। उसने कहा, "तुम लोग एक चिकारे पर, जिसे मैंने एक डाइम में ख़रीदा था, इतना तूफ़ान तो ऐसे खड़ा कर रहे हो, जैसे मैं ही मर गया हूँ।"

इस बीच अपने पति को निर्दयी पाकर उसकी पत्नी ने अपने पिता को पत्र लिखा कि वे सीधे उसके पास आएँ। पत्र पाकर सुलतान अपने अनुचरों के साथ शीघ्रता से अपनी बेटी के पास पहुँचा। वहाँ उसे किजिपा की मृत्यु के बारे में पता चला और यह भी कि हमदानी ने किजिपा का शव एक कुएँ में फेंक दिया है। वह बहुत रोया, अपने नौकरों को कुएँ में उतारा ताकि वे किजिपा का शव ऊपर ला सकें और वह उसे अपने साथ ले जाकर दफ़ना सके।

उस रात महिला ने सपना देखा कि वह अपने पिता के घर वापस आ गई है और जब वह सोकर उठी तो उसने पाया कि वह बिस्तर पर है और अपने शहर में फिर आ गई है।

और उसके पति ने भी सपना देखा कि वह घूरे के ढेर पर पहुँच गया है और उसे खंगाल रहा है। अनाज के दानों की तलाश में उसके दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं। बच्चे पास से गुज़र रहे हैं और उसे देखकर उस पर हँस रहे हैं और उससे पूछ रहे हैं, "अरे हमदानी, तुम कहाँ थे? हम तो सोचते थे कि तुम मर चुके हो।"

इस तरह, सुलतान की बेटी आख़िर तक प्रसन्नतापूर्वक रही और भिखारी, पहले की तरह, मरने तक घूरे को खंगालता रहा।

यदि यह कहानी अच्छी है तो इसकी अच्छाई के सभी भागीदार हैं और यदि यह बुरी है तो इसकी बुराई कहने वालों के ज़िम्मे है।

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