हम तीन

मनोज शर्मा (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

शहर में रहकर
बहुत कुछ बदल गया
आज सोते सोते
लगा मैं सोया नहीं
वरन् अपने गाँव
में हूँ
उन दरख़्तों तले
जो उगाये थे
मैंने और हरिमोहन ने
बचपन में
जब कभी हम
छोटे थे
लघु पौधे से
बढ़ते गये
रोज़
जमीं पक गयी
पेड़ भी फल फूल गया
अब तो वो भी
बुढ़ा गये
मुझ जैसे हो गये दोनों
बाल पके आँख गयी मेरी
और पीले पत्ते सूख गये दरख़्त के
हरिमोहन तो खाँस खाँस के
चल बसा
परसों रोज़
मिल भी न सका
उससे अंत तक
सोचता रहा
कि वो मिलेगा
पर पेड़ अभी भी है
शायद मेरी तरह है बूढ़ा
सोचता हूँ अब
कल हो ही आऊँ
उस दरख़्त को तो देख आऊँ
फिर हम दोनों में कभी
कोई एक भी न बचे
शायद वो भी सूख गया होगा
मुझ जैसा लगता होगा
मैंने कभी कहा था बचपन में
हरिमोहन से
हम तीनों संग होंगे एक दिन
पर अब दो ही बचे हैं
शायद अब
दरख़्त ही बचेगा
मैं भी नहीं
कल तक
जाने होऊँ न होऊँ

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