ख़ालीपन जीवन का मन का धन का भरते भरते, सब खो गया चित्र भी चरित्र भी मित्र भी; अब निर्बल दुर्बल एकाकी हो, स्वयं से निरुत्तर शून्य में भविष्य निहारते यही सोचते हैं हम कितने ग़लत थे।