हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला-फला : 'साहित्य, संस्कृति और भाषा'

01-02-2021

हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला-फला : 'साहित्य, संस्कृति और भाषा'

प्रवीण प्रणव  (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक शीर्षक: साहित्य, संस्कृति और भाषा  
लेखेक: प्रो. ऋषभदेव शर्मा   
प्रकाशक: अमन प्रकाशन, कानपुर 
पृष्ठ संख्या: 200  
प्रकाशन वर्ष:  2021  
आईएसबीएन नंबर: 978-8194541097
मूल्य: 495/- रुपये  

अज्ञेय ने अपने एक निबंध ‘साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया‘ में लिखा “कुछ साहित्य  समाज को बदलने के काम आ सकता है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य समाज को बदलता नहीं, उसे मुक्त करता है। फिर भी उस मुक्ति में समाज के लिए– और हाँ, संस्कृति के लिए, मानव मात्र के लिए-बदलाव के सब रास्ते खुल जाते हैं।“ जहाँ साहित्य है, वहाँ भाषा होगी ही। स्पष्ट है कि साहित्य, हमारी संस्कृति या हमारा समाज, और हमारी भाषा; तीनों आपस में इस कदर जुड़े हैं कि हमारी उन्नति और समृद्धि के लिए इनका समन्वय संगम की तरह जीवनदायी है। इसी विषय पर अमन प्रकाशन (कानपुर) ने प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) की किताब ‘साहित्य संस्कृति और भाषा’ (2021) शीर्षक से प्रकाशित की है। किसी नई बहू के लिए मुँह दिखाई की रस्म उसका पहला इम्तिहान होता है, वैसे ही प्रकाशन के बाद किताब का आवरण और आवरण चित्र, किताब के प्रति हमारी पहली धारणा बनाता है। अमन प्रकाशन की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने लेखक और इस किताब की विषयवस्तु के साथ न्याय करते हुए इसे एक बहुत सुंदर स्वरूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

बच्चे जब किसी चित्र पहेली को हल कर रहे होते हैं, तो पहेली के अलग-अलग टुकड़ों में कोई आकृति नहीं उभरती, लेकिन जैसे ही सारे टुकड़े अपने निर्धारित स्थान पर या जाते हैं, एक नयनाभिराम आकृति हमारे सामने आती है। इस किताब की भूमिका में प्रो. गोपाल शर्मा स्पष्ट करते हैं कि इस किताब के लेख समय-समय पर लिखे गए आलेख, व्याख्यान, स्वतंत्र लेखन आदि का संकलन है। चित्र पहेली से उलट, यहाँ विशेषता है कि स्वतंत्र इकाई के रूप में भी लेख सारगर्भित और महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इन सभी लेखों का ‘साहित्य संस्कृति और भाषा’ के रूप में संकलन इसकी उपादेयता कई गुणा बढ़ा देता है। साहित्य, संस्कृति और भाषा जैसे विषयों पर ये लेख अलग-अलग समय पर लिखे गए हैं, इसलिए कुछ बिंदुओं की पुनरावृति हुई है; लेकिन यह खलती नहीं, क्योंकि हर लेख में पाठकों के लिए बहुत कुछ नया है और जिन बिंदुओं की पुनरावृति हुई है, वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें बार-बार दुहराया ही जाना चाहिए। विपणन (Marketing) के क्षेत्र में ‘Rule Of 7’ एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो यह कहता है कि यदि आप चाहते हैं कि ग्राहक कुछ याद रखे तो कम से कम सात बार आप उसे ग्राहक के सामने लाएँ। इस संबंध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की भी चर्चा की जानी चाहिए। 1952 में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की एक किताब प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था ‘साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’। इस किताब की भूमिका में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने लिखा “समय-समय पर दिए गए मेरे कुछ भाषणों का यह संग्रह, मित्रों तथा सहकर्मियों के अनुरोध से प्रकाशित किया जा रहा है। ये भाषण पिछले 28-29 वर्षों में विभिन्न अवसरों तथा स्थानों पर दिए गए थे। जो रूप इनका उस समय था, ठीक उसी रूप में बिना किसी हेर-फेर के ये प्रकाशित किए जा रहे हैं, इसलिए इनमें एक-दूसरे के साथ कोई स्वाभाविक संबंध अथवा किसी प्रकार की एकसूत्रता कदाचित देखने में न आए पर मेरे विचारों में कोई विशेष महत्व का परिवर्तन नहीं हुआ है। इसलिए शायद विरोधाभास भी कहीं देखने में नहीं आएगा, पर ऐसी स्थिति में पुनरुक्तियों का होना स्वाभाविक है।” डॉ. ऋषभदेव शर्मा के लेख भी उनके दृष्टिकोण को लेख-दर-लेख बिना किसी विरोधाभास के आगे बढ़ाते हैं। किताब में 18 लेख हैं जिन्हें 4 खंडों में समायोजित किया गया है।

प्रथम खंड में 6 लेख हैं, जो मुख्यतः भाषा और हिंदी से संबंधित हैं। हिंदी के लिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था "हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में समासीन हो सकती है।" इस खंड के सभी लेखों में लेखक,  मैथिलीशरण गुप्त जी के इस कथन को अपने तर्कों और साक्ष्यों के साथ स्थापित करते हैं। किताब का पहला लेख ‘भारतीय संस्कृति : आज की चुनौतियाँ’ है जो साहित्य, संस्कृति और भाषा तीनों की ही बात करता है और इस किताब के शीर्षक को चरितार्थ करता है। भारतीय संस्कृति की ‘अनेकता में एकता’ की बात करते हुए लेखक लिखते हैं “कई बार लोग यह कहते सुने जाते हैं कि भारत में ‘कई’ संस्कृतियाँ हैं। हम कहना चाहते हैं कि भारतीय संस्कृति तो ‘एक’ ही है, लेकिन उसका सृजन करने वाली सांस्कृतिक धाराएँ अनेक हैं। महासमुद्र में मिल जाने पर अलग-अलग नदियों की धाराओं की पहचान खोजना पानी पर नाम लिखने जैसा व्यर्थ प्रयास कहा जाएगा। इन विभिन्न धाराओं में जो ‘अविरोधी भाव’ है वही भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य है।“ इस लेख में लेखक ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को सामने रखते हुए न सिर्फ़ भारत बल्कि समस्त पृथ्वीवासियों की चिंता करते हुए इस बात पर बल देते हैं कि संस्कृति की रक्षा से ही हम पृथ्वी को लंबे समय तक मनुष्य के रहने योग्य रख सकेंगे। भारतीय संस्कृति की बात करते हुए लेखक लिखते हैं, “भारतीय मूल्यदृष्टि, जीवन के दो मुख्य लक्ष्य मानती है – अभ्युदय (prosperity) और निःश्रेयस (liberation)। अभ्युदय से जुड़े हैं धर्म, अर्थ और काम; तथा निःश्रेयस से जुड़ा है मोक्ष।” धर्म के मार्ग पर चलते हुए ज़रूरत जितना ही भौतिक साधनों का अर्जन और अपने हित से पहले विश्व के हित की चिंता करने का भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र, विश्व संस्कृति को दिशा दे सकता है। और संस्कृति के इस वैश्विक प्रचार-प्रसार के लिए साहित्य और शिक्षा की अनदेखी नहीं की जा सकती।  

प्रो. ऋषभदेव शर्मा लंबे समय तक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में अध्यापन से जुड़े रहे हैं और कई अन्य माध्यमों से इन्होंने हिंदी की सेवा की है। ऐसे में हिंदी भाषा के प्रति इनका समर्पण और हिंदी की उपेक्षा पर दर्द, दोनों ही इनके लेखों में परिलक्षित होता है। भारत के विभिन्न प्रांतों और इन प्रांतों में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओं के संदर्भ में लेखक मानते हैं कि सामान्य जनमानस को सूचनाएँ उनकी प्रांतीय भाषा में मिलनी चाहिएँ, लेकिन इस सूचना की स्रोत भाषा हिंदी होनी चाहिए। और इसका कारण स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में भले ही हिंदी में सूचनाएँ कम हों, लेकिन वे ज़्यादा प्रामाणिक हैं। भारत में हिंदी आधारित अन्य बोलियों/भाषाओं को अलग भाषा के रूप में मान्यता देने पर भी लेखक ने इसे हिंदी के विस्तार को कम करने के प्रयास के रूप में देखा है। चीन का उदाहरण देते हुए लेखक लिखते हैं कि चीन में आपस में बोली जाने वाली भाषाएँ अलग-अलग हैं, लेकिन इन सभी भाषा-भाषी लोगों को मंदारिन भाषा के अंतर्गत गिना जाता है। भारत के लिए भी लेखक लिखते हैं “आज ज़रूरत इस बात की है कि एक ऐसा जागरूकता अभियान चलाया जाए जिसके तहत हम जाएँ राजस्थानी लोगों के बीच, मैथिली लोगों के बीच, भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी के लोगों के बीच; और उन्हें कहें कि आपकी अपनी अस्मिता अपनी जगह है जिसके संघर्ष में हम आपके साथ हैं, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में आप अपनी भाषा को ‘हिंदी’ कहें।”  रामधारी सिंह दिनकर ने भी 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा “भाषा को लेकर देश के भीतर भयानक द्वंद्व है। प्रांतीय धरातल पर इस द्वंद्व के प्रमाण असम और पंजाब में देखे गए हैं। किंतु राष्ट्रीय धरातल पर यह द्वंद्व हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच है।”  

अनेक भारतीयों ने विदेशों में इस बात को महसूस किया है कि भारत के बाहर हमारी पहचान पंजाबी, तेलुगु, तमिल और बंगाली नहीं है। भारत के बाहर हमारी पहचान ‘हिंदी’ है। ‘हिंदी’ अर्थात हिंद का; अर्थात हम हिन्द के हैं, भारत के हैं। हालाँकि कई जगह राजनीतिक कारणों से हिंदी को हिंदू से जोड़कर देखने की बेवजह आवाज़ उठी। डॉ. रामविलास शर्मा ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति’ नामक किताब में लिखते हैं, “राष्ट्रों की तरह भाषा का विकास भी जनतांत्रिक आधार पर होता है, जनता की उपेक्षा करके फासिज़्म को आधार बनाने पर राष्ट्र की तरह भाषा का भी सर्वनाश होना अनिवार्य है। हिंदी का सत्यानाश करना तो विधाता के लिए भी कठिन होगा। विधाता की इच्छाओं के एकमात्र टीकाकार ये हिंदू-राष्ट्रवादी उसके विकास में कुछ देर के लिए बाधा ज़रूर डाल सकते हैं।” हिंदी को सरल और लचीला बताते हुए लेखक लिखते हैं, “हिंदी का हाज़मा तो बहुत ही बढ़िया है, बिल्कुल भारतीय संस्कृति की तरह। अनेक प्रवाह आकर इसमें समा गए, न जाने कितनी धाराएँ आकर इस धारा में मिल गईं और एक हो गईं। कोई ज़बरदस्ती अपने आप को अलग बनाए रखे तो अलग बात है, नहीं तो यह देश सारी संस्कृतियों को समा लेने वाला देश है। ऐसी ही हमारी भाषा हिंदी है, चाहे जो शब्द ले आइए। थोड़ा सा कहीं से उसको रंदा लगाकर, कहीं से रगड़कर और कहीं ज्यों का त्यों लेकर, कहीं हम उसे अंगीकार कर लेते हैं, कहीं  स्वीकार कर लेते हैं, कहीं ज्यों का त्यों उसका अनुवाद कर लेते हैं, कहीं थोड़ा सा अदल-बदल लेते हैं, अनुकूलन कर लेते हैं।” डॉ. रामविलास शर्मा भी हिंदी और उर्दू में एक दूसरे की शब्दावली को सहजता से उपयोग करने का उदाहरण देते हुए लिखते हैं, “हिंदी और उर्दू का मौलिक धरातल एक है। दोनों के 80 फ़ीसदी शब्द साधारण बोलचाल के हैं। जब हम हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे की विरोधी भाषा मान लेते हैं, तब हम उनकी इस 80 फ़ीसदी समानता पर ही आघात करते हैं। इस विरोध को बढ़ाने का मतलब है हिंदी और उर्दू को क्लिष्ट बनाना, ऊपर से उन्हें जनता की भाषा कहना लेकिन वास्तव में उन्हें जनता से कोसों दूर ले जाना। भारतेंदु और प्रेमचंद ने इस तरह की भाषा का कभी समर्थन नहीं किया।”

लेखक ने दुनिया के सभी देशों के बीच सामंजस्य और समन्वय बढ़ाने के लिए एक विश्वभाषा की आवश्यकता पर बल दिया है – “भाषा के द्वारा ही विभिन्न राष्ट्रों के बीच आपसी समझदारी बढ़ाई जा सकती है, ग़लत सूचनाओं और मिथ्या धारणाओं को निर्मूल किया जा सकता है और एक दूसरे की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा सीमाओं का सही परिचय विकसित किया जा सकता है।” विश्व में पहले या दूसरे स्थान पर बोली जाने वाली भाषा के रूप में हिंदी को लेखक एक ऐसी भाषा के रूप में देखते हैं, जो विश्वभाषा बन सकती है। विश्वभाषा के रूप में हिंदी की उपलब्धि लेखक इस रूप में देखते हैं कि वह एक दूसरे से डरे हुए देशों के बीच आपसी समझ पैदा करके विश्व शांति की राह को सुगम बना दे। हालाँकि तकनीक के इस दौर में जहाँ किसी भी भाषा को किसी अन्य भाषा में आसानी से बदला जा सकता है, किसी एक भाषा को विश्वभाषा की मान्यता मिलना या इस रूप में स्वीकार किया जाना व्यावहारिक नहीं लगता।   

वैश्विक स्तर पर हिंदी की उपेक्षा की बात करते हुए लेखक लिखते हैं कि 1940 के दौर में जब दुनिया के देशों को लगा कि आज़ाद होते ही भारत में सभी काम हिंदी में होंगे तो उन्होंने अपने यहाँ हिंदी सीखना-सिखाना शुरू कर दिया था। लेकिन एक दशक के भीतर ही जब उन देशों ने देखा कि भारत में ही हिंदी सभी प्रांतों में स्वीकार नहीं की गई, तो उन्होंने भी हिंदी से मुँह मोड़ लिया और अंग्रेज़ी को हम पर थोपने का प्रयास शुरू कर दिया। लेखक ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता पर भी लिखा है, “विश्व राजनीति में भारत के भावी महत्व को ध्यान में रखते हुए 1950 और 1955 में क्रमशः अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत का दो बार मन टटोला कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ले ले। लेकिन भारत ने आदर्शवादी रुख अपनाया और अपनी दावेदारी चीन के लिए छोड़ दी। वैसा न होता और भारत उस समय सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन गया होता, तो हमारी भाषा हिंदी, स्वतः ही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बन गई होती।” लेखक की इस पीड़ा को रामधारी सिंह दिनकर ने भी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में मुखरित किया था, “पिछले सौ वर्षों से हम यह सोचते आ रहे थे कि भारत जब स्वाधीन होगा, हम भारत की ही किसी भाषा को अपनी अंतरप्रांतीय भाषा बनाएँगे। वह भाषा भारत की एकता को पुष्ट बनाएगी, क्योंकि अंग्रेज़ी सीखने की अपेक्षा किसी भारतीय भाषा का सीखना अधिक सुगम कार्य होगा। हर प्रांत अपनी भाषा में चलेगा और सभी प्रांतों के आपसी व्यवहार की भाषा हिंदी होगी। किंतु अब सन 1962 ई. में आकर देश अलसा रहा है और लोग यह सोचने लगे हैं कि अंग्रेज़ी ही भली है, क्योंकि वह तटस्थ भाषा है। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित नहीं करके हम संसार के सामने यह बात स्वीकार कर रहे हैं कि हमारा राष्ट्रीय जोश ठंडा हो रहा है।” लेकिन लेखक निराश नहीं हैं। हिंदी के विकास के लिए लगातार प्रयत्नशील रहने की आवश्यकता और इसकी उपयोगिता पर बल देते हुए लेखक लिखते हैं, “1918 के व्याख्यान में महात्मा गांधी ने कहा था कि इस देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, प्रशासनिक इत्यादि कार्यों के साथ यदि कोई एक भाषा ऐसी हो सकती है जो पूरे देश की सांस्कृतिक विरासत को व्यक्त कर सके, तो वह हिंदी ही हो सकती है। यह बात 1918 में भी सच थी और आज भी सच है।”

‘प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल’ शीर्षक से लिखे लेख में लेखक ने भारत से बाहर रहकर हिंदी की सेवा करने वाले कुछ चुनिंदा कवियों का परिचय पाठकों से करवाया है, जिन्होंने हिंदी भाषा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। इन कवियों में अभिमन्यु अनत, डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, दिव्या माथुर, ज़ेबा रशीद, डॉ. मृदुल कीर्ति, अनूप भार्गव, डॉ. कविता वाचक्नवी, अंजना संधीर, डॉ. पूर्णिमा बर्मन और मोहन राणा हैं। इन कवियों के काव्य की बात करते हुए लेखक लिखते हैं, ‘मानवीय सरोकारों की दृष्टि से यदि नरलोक से किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी), तो यह स्वाभाविक ही है कि प्रवासी हिंदी कविता के मुख्य सरोकार बड़ी सीमा तक वही हैं, जो भारत में लिखी जा रही हिंदी कविता के हैं। यही कारण है कि अलग-अलग देशों में रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य, समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं।‘ 

किताब के दो लेख व्यक्तिपरक हैं। ‘अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक-आर्थिक चेतना’ शीर्षक से लेख, जिसकी सह-लेखक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा हैं, में लेखक ने मॉरीशस के प्रसिद्ध कथाकार और कवि अभिमन्यु अनत की कई साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से उनके विचारों को सामने रखा है, जिसने मॉरीशस के  सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में सशक्त हस्तक्षेप किया। ‘आलूरि बैरागी चौधरी का कविकर्म’ शीर्षक से लिखे आलेख में लेखक तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार आलूरि बैरागी चौधरी से हमारा परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से करवाते हैं। मात्र कक्षा तीन तक की औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर स्वाध्याय से तेलुगु, हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार प्राप्त करने वाले आलूरि बैरागी चौधरी ने इन तीनों ही भाषाओं में लेखन किया। इन्होंने हाई स्कूल में अध्यापन किया, प्रतिष्ठित पत्रिका ‘चंदामामा’ के संपादक रहे, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (मद्रास) के हिंदी प्रशिक्षण विद्यालय में आचार्य भी रहे; लेकिन कभी कोई काम टिक कर नहीं किया। इनके निधन के पश्चात तेलुगु कविता संग्रह ‘आगम गीति’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया। इनके कई हिंदी काव्य संग्रह भी प्रकाशित हैं। सुमित्रानंदन पंत या सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से तुलनीय आलूरि बैरागी चौधरी से हिंदी जगत के बहुत पाठक परिचित नहीं हैं। ऐसे में ऋषभदेव शर्मा का यह आलेख आलूरि बैरागी चौधरी के लिए एक नया पाठक/प्रशंसक  वर्ग तैयार करेगा इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए।  

‘भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : विविध आयाम’ शीर्षक लेख में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली किसी बड़ी घटना के संदर्भ में लेखक लिखते हैं कि ऐसा होते ही घटना के संबंध में वैज्ञानिक लेख लिखे जाते हैं, घटना पर फ़िल्में बनती हैं और साथ ही साहित्य भी लिखा जाता है। भारत में घटनाप्रधान फ़िल्में तो बननी शुरू हुई हैं, लेकिन क्या भारतीय साहित्य भी इन घटनाओं को ग्रहण कर रहा है; इस सवाल पर लेखक स्पष्ट करते हैं कि घटनाएँ या तो सीधे-सीधे ग्रहण की जा सकती हैं, या प्रवृतियों के रूप में। भारतीय साहित्य ने भी उन प्रवृतियों को ज़्यादा अपनाया है, जो हमारी संस्कृति और हमारे मूल्यों के अनुरूप हैं। 

‘आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता’ शीर्षक से अविभाजित आंध्र प्रदेश के पत्रकारिता इतिहास की विस्तृत जानकारी है, जो इस विषय के शोधार्थियों के लिए विशेष महत्व की है। यह लेख (अविभाजित) आंध्र प्रदेश में तेलुगु, उर्दू और हिंदी तीनों ही भाषाओं के पत्रकारिता इतिहास की (स्वतंत्रता पूर्व से आज तक की) इतनी विस्तृत जानकारी देता है, जो शायद ही कहीं और उपलब्ध हो।

किताब के तीन लेखों – ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य: अवधारणा और मूल्य’, ‘हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: रीतिकाल पर्यंत’ और ‘समकालीन हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना’ को यदि इस किताब की आत्मा कहा जाय तो ग़लत न होगा। तुलनात्मक भारतीय साहित्य में जहाँ सामान्य साहित्य, राष्ट्रीय साहित्य, विश्व साहित्य और भारतीय साहित्य में भारतीयता जैसे खंडों के माध्यम से भारतीय साहित्य पर प्रकाश डाला  गया है, तो हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, हिंदी साहित्य के आरंभ से रीतिकाल तक के इतिहास का क्रमबद्ध और विस्तृत विवरण देता है। समकालीन हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना लेख, कविता में राष्ट्रीयता, देश-प्रेम, अंधराष्ट्रभक्ति का विरोध आदि जैसे विषयों पर बेलाग और निष्पक्ष राय प्रस्तुत करता है।

दलित विमर्श पर बीते कुछ दशक्यों में बहुत काम हुआ है और इसकी बहुत चर्चा हुई है। ‘भारतीय साहित्य में दलित विमर्श: मणिपुरी समाज का संदर्भ’ शीर्षक से लेखक ने वर्तमान जातिप्रथा पर सवाल उठाते हुए लिखा है, “यह विडंबना ही है कि समस्त प्राणियों में एक ही परम तत्व के दर्शन करने वाला तथा वर्ण व्यवस्था को गुण और कर्म के आधार पर निर्धारित करने वाला समाज एक समय इतना कट्टर हो गया कि निम्न वर्ण या  जाति में जन्म लेने वालों को सब प्रकार के अवसरों से, मनुष्य और मनुष्य में जन्म के आधार पर भेदभाव करते हुए, वंचित किया जाने लगा। इस सारी व्यवस्था के लिए आज प्रायः मनुस्मृति को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है और उन ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों एवं घात-प्रतिघातों की उपेक्षा कर दी जाती है, जिन्होंने एक सुचिंतित सामाजिक व्यवस्था को जड़, प्रगतिविरोधी, मानवविरोधी एवं समाजविरोधी रूढ़ि में बदल दिया।” लेखक दलित विमर्श पर लिखे गए साहित्य और साहित्यकारों का विवरण देते हुए लिखते हैं “दलित साहित्य का उद्देश्य एकदम साफ़ है और वह है : दलित मुक्ति।” 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना में जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था कि, “हमारे भीतर कुछ ऐसे रिवाज़ों का चलन हो गया, जिन्हें बाहर के लोग न तो जानते हैं, न समझ ही पाते हैं। जाति प्रथा के असंख्य रूप भारत के इसी विचित्र स्वभाव के उदाहरण हैं। किसी भी दूसरे देश के लोग यह नहीं जानते कि छुआछूत क्या चीज़ है तथा दूसरों के साथ खाने-पीने या विवाह करने में, जाति को लेकर किसी को क्या उज्र होना चाहिए। इन सब बातों को लेकर हमारी दृष्टि संकुचित हो गई।” जब  मणिपुर की बात करते हुए लेखक लिखते हैं कि मणिपुर में दलित विमर्श का साहित्य न के बराबर है और इसका कारण है मणिपुर में जातिप्रथा का न होना, तो अचानक मणिपुर एक ऐसे मॉडल के रूप में उभरता है जिसकी समस्त भारत को आवश्यकता है। हालाँकि लेखक स्पष्ट करते हैं कि आर्थिक वर्गभेद के कारण उच्च वर्ग जिस प्रकार अन्यत्र निम्न वर्ग का शोषण करता रहा है, मणिपुर भी उसका अपवाद नहीं है। अर्थात शोषित वर्ग यहाँ भी है, परंतु उसे दलित विमर्श के अंदर नहीं रखा जा सकता, अन्यथा ‘दलित’ शब्द की परिभाषा को बदलकर उसे ‘शोषित’ के व्यापक अर्थ में रखना होगा। 

'रामकथा आधारित एनिमेशन सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़: एक अध्ययन' शीर्षक लेख में लेखक ने 2008 में नीना पेले द्वारा निर्देशित फिल्म 'सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़' पर समीक्षात्मक टिप्पणी की है। रामायण और राम कथा भारतीय जनमानस के रोम-रोम में बसे हैं।  समय-समय पर इस कथा में कई अंश जुड़े या कई संदर्भों की अलग-अलग व्याख्या हुई। उदार भारतीय संस्कृति ने इन सभी मतों-अभिमतों को अपनाया, लेकिन इस उदारता और अभिव्यक्ति की आज़ादी की आड़ में कई बार उस सीमा रेखा को लाँघने का प्रयास होता रहा है, जहाँ जनमानस की भावनाएँ आहत होने लगें। विगत कई वर्षों से चला आ  रहा यह अतिक्रमण हालिया रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ ‘तांडव’ तक जारी है। इस लेख में लेखक लिखते हैं, “वाल्मीकि द्वारा लेखबद्ध किए जाने से पहले ही राम और सीता की गाथा ऐतिहासिक वृत्त की सीमाओं को लाँघकर लोकगाथा और निजंधरी कथा का रूप धारण कर चुकी थी। तब से अब तक जब-जब भी इसे लिखा गया, मंचित किया गया या किसी भी कला माध्यम द्वारा अंगीकृत किया गया, तब-तब इन नए पाठ रचने वालों ने मौलिक उद्भावनाओं के नाम पर इस कथा को कभी विकसित किया, तो कभी विकृत भी किया। लोकगाथा बन चुके चरित्रों और घटनाओं के साथ ऐसा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि जन-मन ऐसी गाथाओं की अपने मनोनुकूल व्याख्या और पुनर्रचना करने के लिए स्वतंत्र होता है। ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ पर भी यह बात लागू होती है।" लेखक ने निर्देशक की तारीफ़ करते हुए लिखा है कि व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं को सीता के साथ हुए अन्याय से जोड़ते हुए नीना पेले ने एक ऐसी फ़िल्म का निर्माण किया है, जो रामकथा में निहित स्त्री-पुरुष संबंधों के तनाव को सामने लाती है। इसमें दो राय नहीं कि इस फ़िल्म, जिसमें स्क्रिप्ट, एनीमेशन से लेकर निर्देशन तक का बीड़ा नीना पेले ने उठाया, में उन्होंने बेहतरीन काम किया है लेकिन स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जा कर संदर्भ से अलग परिस्थितियों का चित्रण, अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर उस सीमा रेखा का उल्लंघन है, जहाँ जनमानस की भावनाएँ आहत होती हैं। दीगर है कि फ़िल्म को वाल्मीकि रामायण से प्रेरित बताया गया है, लेकिन दशरथ की मृत्यु के समय कैकेयी की गोद में उनका सिर होना और कैकेयी का अश्लील फ़िल्मों की नायिका की तरह नर्स के कपड़ों में अर्धनग्न और उत्तेजक चित्रण समझ से परे है। सीता की इस बात पर आलोचना की गई है कि उन्हें हनुमान के साथ ही लंका से चले जाना चाहिए था, जिससे युद्ध की नौबत ही न आती! सीता को यहाँ रक्त-पिपासु दिखाया गया है, जिसने जान-बूझ कर युद्ध करवाया और दोनों तरफ़ के लोग मारे गए। फ़िल्म सवाल करती है कि क्या रावण के सीता के साथ शारीरिक संबंध थे? यही नहीं, सीता के गर्भवती होने पर सवाल किया गया है कि क्या यह रावण के साथ शारीरिक संबंध का परिणाम है? राम के बारे में कहा गया है कि राम को सीता के साथ शारीरिक संबंध बनाने का मौक़ा कब मिला? क्या लंका से लौटते हुए पुष्पक विमान में उन्होंने संबंध बनाए? राम का गर्भवती सीता को देखना और मन में सोचना कि कहीं यह बच्चा रावण का तो नहीं जैसे अनेक प्रसंग हैं, जिनका न कोई औचित्य है, न जिनकी आवश्यकता थी। लेकिन हिंदू जनमानस की उदारता का लाभ लेते हुए लोकप्रियता के लिए नीना पेले ने यह अतिक्रमण किया। इतनी विसंगतियों के बावजूद लेखक का कथन कि “यह फ़िल्म रामकथा के लोकतांत्रिक चरित्र को उभारती है और ध्यान दिलाती है कि जन-जन द्वारा अंगीकार की गई इस गाथा को किसी एक जड़ फ़्रेम में बाँधना इसकी हत्या करने जैसा है", उदारमना लेखक द्वारा ‘मूँदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं’ वाली उदारता को जारी रखने जैसा लगता है!

इस किताब का आख़िरी आलेख ‘उपन्यासों में वेश्या : सुधारात्मक दृष्टिकोण’ एक बहुत बड़े विषय और सामाजिक समस्या की बात करता है। लेखक लेख के आरंभ में ही स्पष्ट कर देते हैं कि लेख चार उपन्यासों– सेवासदन (प्रेमचंद), अप्सरा (सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) और तिनका तिनके पास, दस द्वारे का पींजरा (अनामिका)- पर आधारित है। साहित्य और साहित्य में इस तरह के विषय को उठाने की अनिवार्यता की बात करते हुए लेखक लिखते हैं, “समाज के लिए जो अश्रेयस्कर है, उस पर चोट करना और जो श्रेयस्कर है उसकी पुष्टि करना साहित्य का मूलभूत सामाजिक प्रयोजन है।” प्रेमचंद के उपन्यास में नायिका का अंततः दुनिया के प्रति उदार हो जाना और उसके पति का प्रायश्चित करना सुधारात्मक दृष्टिकोण का उदाहरण है। निराला के उपन्यास में भी नायिका पहले प्रेम को महत्व न देकर पुरुष की कमज़ोरियों का लाभ उठाकर संपत्ति अर्जित करती है। लेकिन कालांतर में उसे अहसास होता है कि इस संपत्ति से उसे आत्मतोष नहीं मिला और तब वह प्रेम को आत्मसात करती है। निराला ने मुक्त जीवन के स्थान पर प्रेम युक्त संबंध को श्रेयस्कर माना है। अनामिका के उपन्यास की विषयवस्तु भी वेश्याओं के पुनर्वास की समस्या पर केंद्रित है। यह लेख इन उपन्यासों के माध्यम से सुधारवादी दृष्टिकोण को पाठकों के समक्ष सफलता से रखता है, साथ ही प्रेमचंद से होते हुए निराला और फिर वर्तमान में साहित्य रचने वाली अनामिका तक एक पुल का निर्माण भी करता है। लेकिन इस पुल में इन मज़बूत स्तंभों के अलावा कई और स्तंभ हैं, जिन्होंने इस विषय पर संजीदगी से लिखा है। ये कोठेवालियाँ (अमृतलाल नागर), वयं रक्षामः (आचार्य चतुरसेन), मुर्दाघर (जगदंबा प्रसाद दीक्षित), आज बाजार बंद है (मोहनदास नैमिशराय), पिछले पन्ने की औरतें (शरदसिंह), सही नाप के जूते (लता शर्मा), गुलाम मंडी (निर्मला भुराडिया), हसीनाबाद (गीताश्री) जैसे कुछ उदाहरण हैं, जो इस विषय पर अलग-अलग तरह से आवाज़ उठाते हैं, कहीं सुधारवादी दृष्टिकोण स्पष्ट परिलक्षित होता है, तो कहीं विषयवस्तु पाठकों को झिंझोड़ते हुए एक उदार, सुधारवादी और संवेदनशील दृष्टिकोण की माँग करती है। इस लेख के माध्यम से लेखक उस चिंगारी को तो आग लगा ही देते हैं, जो सुधी पाठकों को इस विषय को और खँगालने पर मजबूर करे।

किताब की भूमिका में प्रो. गोपाल शर्मा भाषा के प्रति एक समग्र भाव रखने की अनिवार्यता पर बल देते हुए अंग्रेज़ी कहावत को उद्धृत करते हैं "What does he know of Rome, who only knows of Rome." जर्मन कवि जोहान वोल्फगैंग वॉन गोएथे ने भी कहा था "Those who know nothing of foreign languages know nothing of their own." प्रो. गोपाल शर्मा लिखते हैं “वही विद्वान है जो व्यापकता से भय नहीं खाता, समग्रता को सहेजता है; और इस प्रकार साहित्य की प्रदक्षिणा करता है कि एक पूर्णाकार ले लेता है। ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ द्वारा आप एक ऐसी शाब्दिक चेतनाधारा से आप्लावित होंगे, जिसका ओर तो है, पर छोर नहीं।” यह सच भी है, किताब के सभी लेख मोतियों की तरह माला में गूँथे हुए हैं, जिनकी चमक एक समान है- ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’। साहित्य, संस्कृति और भाषा के जिज्ञासुओं के लिए यह किताब उपयोगी साबित होगी ऐसा मेरा विश्वास है।

कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, 
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहीं उर में जगा!

                                                                  • अयोध्या सिंह उपध्याय ‘हरिऔध’

समीक्षक : प्रवीण प्रणव 
डायरेक्टर, प्रोग्राम मैनेजमेंट, माइक्रोसॉफ्ट 
ईमेल : Praveen.pranav@gmail.com
फ़ोन : 9908855506  

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