हाय रे पुरस्कार

26-10-2008

हाय रे पुरस्कार

पाराशर गौड़

जैसे ही खबर आई कि हिन्दी के एक जाने माने गुमशुदा कवि, लेखक, आलोचक को दिल का दौरा पड़ने के बाद हस्पताल में भर्ती किया गया है; सुनते ही प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सीधे हस्पताल की ओर दौड़ पड़े।

पहुँचते ही आदत के अनुसार उन्होंने सवालों की झड़ी लगानी शुरू कर दी। कब? क्यों? कैसे?... आदि आदि। तभी एक रिपेार्टर ने सवाल किया...

“दिल का दौरा पड़ने का कोई खास कारण?”

भीड़ में एक नेतानुमा ’कम’ सहित्यकार दिखने वाले व्यक्ति ने तुरन्त जवाब दिया....

 “शायद  साहित्यिक पुरस्कारों से वंचित रहना....।”

“ये क्या बेहूदा जवाब है, प्रश्नकर्ता ने इसे घूरते हुए कहा।

“ये बेहूदा नहीं बिल्कुल सही और सटीक उत्तर है जनाब। जैसे अचेतन के लिए चेतना में लौटने लिए साँस,  मृतक के लिए प्राण, खुजली वालों के लिए नाखून व गंजेपन वालों के बाल आ जाने पर जैसे उनके चेहरों पर रौनक़ आ जाती है, वैसे ही लेखक, कवियों के लिए पुरस्कार व पुरस्कारों की घोषणायें उनके जीवन में संजीवनी का काम करती हैं।“

भाषण की मुद्रा में आते ही महाशय शुरू हो गये और कहने लगे, “अब देखिये ना जैसे आप सभी जानते है कि आदमी एक “सोशल” प्राणी है। उसे अपने प्राणों की आहुति देकर भी समाज में उसको औरों से हटकर, अपना एक विशेष ओहदा बनाना भी ज़रूरी हो जाता है, जिसे हम ’सोशल स्टेटस’ के नाम से जानते हैं। ये ’सोशल स्टेटस’ भी कभी-कभी अच्छों-अच्छों की ऐसी-तैसी करके छोड़ देता है। उदाहरण के लिए किसी बड़े आदमी के ’फन्कशनों’ में अगर फिल्मी हस्तियाँ ना आयें, खासकर विपाशा वासू - बीड़ी जलाये ले वाले गाने में जो अपने जलवे व ठुमकों को न दिखाये और न लगाये, तब तक वहाँ पर आये महमानों पर उस परिवार का रोब नहीं पड़ता। ठीक इसी तरह कोई भी लेखक-कवि चाहे कितना ही बढ़िया या कितना ही अच्छा क्यों नहीं लिखता हो; उसकी तब तक पूछ नहीं होती जब तक उसे पुरस्कार न मिले या उसे नवाजा न जाय। ये पुरस्कार भले ही कैसे भी हों, कैसे करके भी मिले हों, चाहे अपना ही काला धन सफेद करके सही... . हू केयरस.....!”

देखा जाए तो आज के जमाने में पुरस्कार पुरस्कार न हो कर नेपाल के पदच्युत नरेश के ताज की तरह हो गया, जिसे जब चाहिए कोई भी पार्टी छीन झपट कर पहन ले। पुरस्कार तो केवल अब दिखावा मात्र रह गया है। अब तो एक और चलन भी निकल पड़ा है कि मंचों से व्यक्ति स्वयं यह कहता सुना जा सकता है कि “आप की अनुकम्पा से मुझे ये पुरस्कार मिला... वो पुरस्कार मिला”। अपने आप हथियाये गये पुरस्कारों की एक लम्बी लिस्ट पढ़े बिना नहीं रहता। कभी-कभी तो यह भी पता नहीं लगता कि किसको कौन सा पुरस्कार मिला था। वो तो तब पता चलता है जब उनके मरने के बाद उनकी श्रद्धांजलि में आये लोग उनके बारे बताते हैं।

मेरे मकान के साथ लगे चौथे मकान पर हिन्दी के एक अच्छे लेखक रहते हैं। उन्होंने हिन्दी की बड़ी सेवा की है। मैंने जान बूझकर जाने-माने नहीं लिखा क्योंकि उनको जानते तो सब है पर साहित्यि क्षेत्र में रहने वाले उन्हें पहचानते नहीं।

 जब भी पूछो ’कैसे हो’? ’क्या हो रहा है’? तो उनका नपातुला जवाब होता है, “जीवन के अतिम पड़ाव में हूँ बस लिखे जा रहा हूँ।“ एक रोज़ मैंने पास जाकर उनकी दुखती रग पर हाथ रख कर पूछ ही लिया... “आपने तो ज़िन्दगी भर लिखा है। अपनी माँ-बोली की सेवा की है। इसके एवज़ में आप को कोई पुरस्कार-उरूस्कार मिला भी या नहीं...?”  पुरस्कार का ज़िक्र आते ही वो आसमान की ओर निहारने लगते हैं। पल भर के बाद स्वयं से कहते हैं...

 “हाँ पुरस्कार...  अभी तो नहीं...  देखें...  क्या पता मरने के बाद नसीब हो।”

कह कर अन्दर चले जाते हैं। पुरस्कार न पाने की पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। यहाँ पर मैं एक बात साफ कह देना चाहता हूँ कि उन्होंने इस पुरस्कार को लेकर कभी भी कोई शिकायत नहीं की और नहीं कभी पाने की कोशिश की।

ये कवि महोदय रोज़ की तरह आज भी सुबह २ अखबार पढ़ रहे थे जिसमें समाचार कम, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती की खबरों से तकरीबन-तकरीबन सारा अखबार भरा पड़ा था। वैसे वो इस तरह की खबरों से वाकिफ तो थे परन्तु एक ऐसी खबर ने उनका ध्यान अपनी ओर खेंचा जिसे वो पढ़े बिना रह ना सके। जिसमे सुर्खियों में लिखा था –

“एक विदेशी प्रवासी को उनके हिन्दी में योगदान देने के लिए एक बड़ा पुरस्कार दिया जायेगा।”

उनका माथा ठनका सोचने लगे “विदेशी......वो भी प्रवासी...”  ये बात जम नहीं पा रही है। माना विदेशी... वो तो ठीक है ऊपर से ये प्रवासी क्या मतलब या तो विदेशी कह लो या फिर प्रवासी ही। थोड़ा और अन्दर झाँक कर पढ़ा तो पता चला इनके दादा के दादा भारत से काफी अर्सा पहले भारत को छोड़कर विदेश गमन कर गये थे, याने तीन चार पीढ़ियाँ गुज़रने के बाद इनके पीछे ये प्रवासी शब्द कहाँ से आ टपका।

अरे भाई उनके पीछे अगर प्रवासी वाला शब्द न जोड़ा जाता तो उनको पुरस्कार कहाँ से मिलता। थोड़ा दिमाग लगायें ना......  ऐसा दिमाग सब के पास नहीं होता। किसी-किसी के पास होता है खासकर उनके पास; जो चाटुकारिता में प्रवीण हो या जिसकी घुसपैठ अन्दर तक हो या साँठ-गाँठ में जो एक दम अव्वल हो। इस तरह के पुरस्कार की चाबी भी इन्हींके पास होती है। इतना माथा पच्ची करने के बाद तब जाके इन कवि जी के दिमाग में बात आई कि ऐसा सम्भव हो सकता है।

अधिकतर देखने में आया है कि पुरस्कार, वो भी हिन्दी के और हिन्दी के नाम पर ज्यादा विदेश में रहने वाले ही खींचकर ले जाते हैं। असल में हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए ये प्रवासी अधिक काम कर रहे हैं, बस वहाँ पर बसे चन्द एक लोगों को छोड़कर। ये भारत के लोग भी मानते है लेकिन क्या करें? अपनी खीज मिटाने के लिए वो इन पर प्रवासी का लेबल लगा कर एक लक्ष्मण रेखा खींच लेते हैं ताकि कोई उनकी सीमाओं में आकर सेंध ना लगा सके।

जो जिस दर्द का मारा होता है, उसे उस दर्द का ज्ञान होता है, वो उसकी पीड़ा को भली भाँति समझ सकता है। यहाँ भी तो यही हो रहा है। कवि जी फिर सोचने लगे.. “पुरस्कार...   कौन सा?... किस नाम से?...  किस के द्वारा?... कितने का?...  आजकल लाख दो लाख का लगता है जैसे १०-२० रूपये का हो। ऐसे पुरस्कार पाने वाले और देने वालों की सख्या भी हज़ारों लाखों में पहुँच गई है। ये पुरस्कार, पुरस्कार न होकर रेबड़ी हो गई है।

भाई कवि है तो...  ज़ाहिर है कवि को कवि से जलन नहीं होगी तो क्या मिरासी से होगी? सीधी सी बात है इस प्रकार के पुरस्कार की घोषणा उनके आत्मसम्मान पर चोट नहीं है तो और क्या है?

फिर उनके ज़हन में एक सवाल कौंधा। ये महाशय अगर विदेश से है तो कौन से देश से है। क्या ये अमेरिका, कैनडा से है या यूरोप मिडलईस्ट या फिर वेस्टइन्डीज़ से, क्योंकि जहाँ तक पुरस्कारों का सवाल है तो यहाँ पुरस्कार भी उनको उनके देश के अनुसार ही दिया जाता है। जो जितने अमीर देश से होगा उसको उतना ही ऊँचा और महँगा पुरस्कार दिया जायेगा। चाहे उसने भले एक ही कविता क्यों नहीं लिखी हो या एक छोटी पत्रिका निकाली हो। अरे भाईजान! इसमें उनकी नाक का भी तो सवाल होता है ना... थोड़ा सोचो यार...   याने पुरस्कार का रेट कवि व उसके देश को ध्यान में रखकर पहले से तय किया होता है; ठीक हमारी पोलिटिकल पार्टीयों व सरकार कि तरह.. किस को पद्मश्री देनी है और किसे नहीं।

खबर में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई। वो उसको बड़े गौर से पढ़ने लगे थे। पढ़ते २ सोचने लगे कि आखिर ये पुरस्कार उन्हें किस विधा पर दिया जा रहा होगा कविता, गीत, लेख आलोचन आलेख या फिर टी. वी. सीरियल पर। ऐसा कुछ भी तो नहीं लिखा था।

हाँ...  सीरियलों का ज़िक्र आया तो आजकल जिसे देखो हाथ में मोबाईल, बगल में एक फाईल दबाये, चार आदमियों के बीच ऐसे दिखावा करते हैं कि जैसे जाने कितने व्यस्त हों  और पूछो तो कहना शुरू कर देंगे कि फलाँ सीरियल लिख रहा हूँ। फलाँ फ्लोर में है। चार-पाँच पर बातचीत चल रही है। देखा जाय तो ये लोग हिन्दी के लेखकों से कहीं अच्छे हैं। नाम का नाम हो रहा है और ऊपर से दाम के दाम कूट रहे है। सरकार को चाहिए इनके लिए अलग से एक नया पुरस्कार शुरू करे जैसे टी. वी. साहित्य शिरोमणी। पर्दा-ए-पकड़। छोटे पर्दे का बड़ा बादशाह। शाहनशाहे कलमे आज़म..  आदि आदि।

मेरे देश में इन पुरस्कारों को लेकर अगर बहस की जाए तो कई लोग इस विषय पर पीएच. डी. ले सकते हैं। अब फिर सवाल उठता है कि पीएच. डी. व पुरस्कार भी बिना लॉबी े जुड़े तो मिलने से रहा। आप लैफ़्ट से जुड़ना चाहेंगे या राईट से। वेसे लैफ़्ट में ज्यादा फ़ायदा है क्योंकि इतिहास गवाह है और समय साक्षी...  आज तक जितने भी पुरस्कार मिले हैं उनमें लैफ़्ट से जुड़ने वालों को अधिक मिले हैं। यकीन नहीं होता तो लिस्ट उठाकर देख लें। पर इन कविजी का क्या होगा जो ना तो लैफ़्ट से है और ना राईट से।  ये बेचारे तो सीधी-सादी विचार धारा से जुड़े हैं।

लॉबी की बात आई तो मेरे देश में इन दो लॉबियों के साथ-साथ विदेश लॉबी का भी बड़ा हाथ है। विदेशी लेखक हो और उस के पीछे विदेशी लॉबी ना हो ये कैसे हो सकता है? यहाँ के लेखकों के पास अपने प्रचार-प्रसार के प्रयाप्त साधन और सुविधायें हैं। पैसा है, ई-मेल है जिसके द्वारा वो भारत जैसे गरीब देश से किसी भी पुरस्कार को हथियाने का मादा रखता है।

... पुरस्कार, विदेशी प्रवासी की उधेड़ बुन से ज़रा फुरसत मिली थी कि फिर सोचने लगे काश कोई संस्था उन्हें भी पुरस्कार दे देती तो कम से कम वो चैन से मर तो सकते हैं, वरना उनकी ये हरसत उनके साथ ही चली जायेगी। तभी दरवाजे की घंटी बज उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने एक व्यक्ति बगल में फाइल और कान पर मोबाईल लगाये खड़ा था। वो उनके लिए अपरचित थे सो कवि जी ने पूछा...

“जी कहिए... किस से मिलना है?”

उत्तर मिला...  “जब आपके घर आये हैं तो ज़ाहिर है आपसे ही मिलना होगा, आप हेमंती नदंन देवकीनन्दन ’पीड़ित’......?”

“जी...”, सर हिलाते हुए उन्होंने कहा फिर उससे मुखातिब होकर कहने लगे, “पर मैंने आपको पहिचाना नहीं... ...।“

सामने खड़े व्यक्ति ने उत्तर दिया, “आप मुझे नहीं जानते; इस बात में इतना दम नहीं, दम इस बात में है कि कितने लोग आप को जानते है, सरदार मनमोहन जी को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन मनमोहन जी किसको जानते हैं ये बात ध्यान देने की है, क्यों... मैं ठीक कह रहा हूँ ना...?” कवि जी से नज़र मिलाकर उसने जानना चाहा।

कविजी बोले, “वैसे तो ठीक है पर......।”

“पर क्या?... बैठने को नहीं कहोगे श्रीमान जी... ...?” कवि जी के पास उसे अन्दर आने का निमंत्रण देने के सिवा और कोई चारा बचा ही नहीं था। उन्होंने इशारे इन्हें बैठने को कहा। सोफे में धँसते हुए उन सज्जन कहा, “कमाल है साब... जाने भारतीय संस्कृति को क्या हो गया है, अतिथि द्वार पर है... न बैठने को कहा जाता है न पानी-वानी को... ... । जब से ये नये नये टी वी चैनल क्या आये हैं और बाहरी संस्कृति हमारे बेडरूम के अन्दर तक क्या घुस्सी... उसने रिश्तों की... संस्कारों की... अपने परायों की पहिचान ही बदल डाली। इस टी वी संस्कृति ने जब से घर-घर में सेंध क्या लगाई पारवारिक रिश्तों में दरारें पड़नी शुरू हो गईं। भाई-भाई को शक की नज़र से देख रहा है। देवरानी, जेठानी, शकुनी मामा के घर जा-जाकर रोज नई-नई चालें सीख कर आ रही हैं। मामा-भतीजा एक दूसरे पर वार करने के लिए घात लगाये बैठे है। चलिये सास-बहू का वही राग... वही पुराना लफड़ा... वही तकरारें तो ठीक हैं लेकिन हद तो इस बात की है कि उसी सीरियल में एक बहू... एक नहीं... दो नहीं... तीन नहीं चार-चार बार शादी करती है। हर एपीसोड में वो पति ऐसे बदलती जैसे साड़ी... ... कमाल है साब...  और मज्जे की बात... इन सीरियलों में सब बूढ़े हो जायेंगे पीढ़ी बदल जायेगी पर वो बूढ़ी खुसड़ सास वैसी की वैसी कभी बूढ़ी होती ही नहीं। लगता है यमराज भी इन्हें ऊपर ले जाने में घबराता है कि अगर वो उन्हें जल्दी से ऊपर ले गया तो पता चला चैनलवालों ने हड़ताल कर दी कि आज के बाद कोई नहीं मरेगा। अगर ऐसा हो गया तो... सृष्टी का बेलंस बिगड़ जायेगा फिर यमराज को कौन पूछेगा... बेचारा यमराज......। गजब... साहब गजब... इन सीरियलों के लेखकों मानना पड़ेगा। इनकी खोपड़ी की दाद देनी होगी। कभी कभी सोचता हूँ इनका परिवार है भी या नहीं। इनके घरों में माँ-बाप, भाई-बहिन, दादा-दादी है भी या नहीं।“

“ सो तो ठीक है...  पर आप...”,  कविजी ने फिर कहा।

“अरे साहब हमारी छोड़िए...  हमने सुना है कि आप कविता लिखते हैं इसके एवज में आप को क्या मिलता है...?”

“आनंद... मन को संतुष्टी... “, कवि जी ने उतर दिया।

“कितनी देर की ५ मिनट की... चलिए ७ मिनट की...  उसके बाद क्या... फिर वही एकाकीपन। ज़रा गौर से सुनिए... मैं चाहूँ तो आप को एक नहीं कई पुरस्कारों से नवाज सकता हूँ। आपको और आपकी लेखनी को बन्द कमरे से बाहर लाकर एक नई पहिचान दे सकता हूँ। आपको देश विदेश की सैर करवा सकता हूँ।“

उसकी बातों को सुनकर मन ही मन में कविजी को लगा कि उनकी आखिरी ख़्वाहिश शायद पूरी होने वाली है। झिझकते हुए कवि जी ने कहा, “लेकिन आप करते क्या हैं?”

“यही तो करता हूँ... जो कह रहा हूँ। आप जैसे लोगों को समाज में आगे लाकर उन्हें सम्मानित कर ख़ुद भी सम्मानित होता हूँ।” फ़ाईल में से अखबार निकालकर दिखाते हुए बोले -

“ये देखिये..., ये विदेशी लेखक है। इन्हें मैं, विदेश में रहकर भी हिन्दी में विशेष योगदान देने पर भारत में पुरस्कार दिला रहा हूँ।“

“तो ये हैं वो...”,  कविजी स्वतः सोचते २ अपने आपसे कहने लगे, “बड़ी ऊँची रक़म लगती है” वे बुदबुदाये।

“आपने कुछ कहा?” उस सज्जन ने पूछा।

“नहीं... नहीं... बस यों ही...”, कविजी ने झेंप मिटाते हुए कहा।

“अच्छा... अच्छा...”,  सामने बैठे व्यक्ति ने कहा, “ये सब मेरा ही खेल है। मैं उन्हें भारत बुला रहा हूँ। यूँ तो ये इतने बड़े लेखक नहीं हैं पर... हाँ...  सुनने में आया है कि ये एक छोटी-मोटी पत्रिका निकालते हैं। सम्पर्क बनेगा तो मैं भी इनके द्वारा विदेश जाऊँगा ना...  ऐसे... करके ही तो लाईम लाईट में आया जाता है श्रीमान जी... कि... तू मेरी पीठ खुजला मैं तेरी। पुरस्कार तो एक बहाना रह गया है आपस में दलाली करने का।

“यद्यपि उनसे व्यक्तिगत रूप से मेरा कोई परिचय तो नहीं है पर पत्र व्यवहार के माध्यम से...  अरे माफ कीजिए... ...... ई मेल से...”,  रुक कर उन्होंने कहा, “पत्र चिट्ठी अब कहाँ...। जब से ये... ई-मेल का प्रचलन हुआ है। इसके आने के बाद सबसे बड़ा वज्र हमारे यहाँ के डाकखानों पर गिरा। डाकखाने अब तो उबासियाँ ले रहे हैं। पत्रों की बाट... जोहते २ उनकी आँखों की रौशनी भी जाती रही। इसके आस-पास मौन छाया रहता है जैसे इसकी नानी मर गई हो। सुनने में आया है कि अब वो अपना दर्द मिटाने के लिए पोस्ट आफिसों में चाय बेच रहे हैं।

“एक ज़माना था कैसे हम लोग चिट्ठियों का इन्तज़ार किया करते थे। जब पोस्टमैन आता था पूरा गाँव एक जगह इकट्ठा हो जाया करता था। जिसकी चिट्ठी आती थी उसके चेहरे पर क्या रौनक़ आ जाया करती थी। सारा गाँव तब एक-दूसरे के कितने करीब था और अब...  जब से ये कम्बख्त ई-मेल आई है इसने बाप को बेटे से, पति को पत्नी से, भाई को भाई से, यानि पूरा परिवार को अपने ही घर में, अपने २ कमरों में बन्द कर कैद कर के रख दिया है।“

उनके भाषण पर विराम लगाते हुए कविजी ने फिर पूछा, “मुझे क्या करना होगा?”

“एक छोटा सा काम।“

“वो क्या?”

“वो क्या है कि...  बड़े आदमियों के बड़े चोंचले तो आपने सुना ही होगा। मंत्री सिंहनाथ का नाम तो आपने भी सुना ही होगा... अरे वही जो कई सरकारी संस्थाओं के अध्यक्ष भी हैं, उनके बेटे की शादी है।... हमसे बोले भया... इस अवसर पर एक जोरदार सेहरा लिखवाकर लावो तो। हमने सबको टटोला। नज़र दौड़ाई पर आपकी लेखनी... के आगे कोई टिक नहीं पाया...। आपको याद दिला दूँ कोई हो ना हो पर... मैं... मैं तो आपकी लेखनी का कायल हूँ।... यूँ कहिए गुलाम हूँ। सो चला आया आपके पास। आपके पास कलम है तो हमारे पास रिश्ते में बाँधने की... अक्ल...। मैं मंत्री जी से आपके नाम की सिफारिश करूँगा कि इस साल के, जितनी भी उनके अन्तर्गत संस्थायें हैं, उनके तमाम पुरस्कार आपको ही मिलें।“

“पर मुझे करना क्या होगा?” कवि जी ने फिर पूछा।

“आपको कम सुनाई देता है शायद... ख़ैर...  उम्र का तकाज़ा भी हो सकता है। आपको उनके लड़के की शादी के उपलक्ष्य में एक सेहरा लिखना होगा।“

 ये सुनकर उनका चेहरा तमतमा उठा वो बोल उठे, “ये क्या बेहूदी बात कर रहे हैं आप? मैं हिन्दी का एक सिपाही हूँ कोई भड़ुवा नहीं! ध्यान रहे... मैं कवि हूँ, वो भी हिन्दी का...। किसी टी वी सीरियल का लेखक नहीं कि निर्माता ने कहा “ये करदो वो करदो और वो कहते फिरते हैं - हो जायेगा जैसे आप चाहते हैं”। मै बिकाऊ नहीं हूँ। मेरे भी कुछ उसूल हैं।“

“माना आप बिकाऊ नहीं हैं, ये भी माना आपके उसूल हैं लेकिन आज के ज़माने में ये सब किताबी रह गये हैं हक़ीक़त तो कुछ और ही है। बिना सिफारिश बिना तिकड़म भिड़ाये कुछ नहीं होता। ये विदेशी लेखक के पीछे प्रवासी लगाकर उसका इस्तेमाल कर रहा हूँ।“

कविराज ने उन्हें घूरते हुए कहा, “इसका अर्थ ये हुआ कि तुम मेरा भी इस्तेमाल करोगे?”

“तो इसमे हर्ज़ ही क्या है। इस संसार में हर चीज़ इस्तेमाल के लिए ही बनी है। आपका टेलेण्ट... मेरी खोपड़ी... मंत्री जी के रिसोर्सिस और प्रभाव ये सब इस्तेमाल के लिए ही तो हैं। इसके बिना गति भी तो नहीं है।“

ये सब सुनकर कविजी के अचानक हृदय में दर्द उठने लगा। चेहरे पर पसीना बहने  लगा। समय की नाज़ुकता को देखते हुए उन सज्जन ने अपने मोबाइल से एमरजन्सी को फोन किया। जल्दी-जल्दी में कवि जी को अस्पताल पहुँचा दिया गया। बगल में था वो आदमी जो इस सब के लिये ज़िम्मेदार था। कवि जी बिना पुरस्कार लिए इस दुनिया से कूच कर गये... और वो विदेशी इस पुरस्कार को लेकर बड़े ठाठ से हवाई जाहज में बैठकर अपने देश रवाना हो गया। यात्रायें दोनों कर रहे थे एक संसार छोड़कर से हमेशा-हमेशा के लिए तो दूसरा अपने मुल्क में एक नई शुरूआत के लिए।

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