गूँगे बहरे रिश्ते

01-05-2021

गूँगे बहरे रिश्ते

प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

चाय पीने को मन तो था, पर बस आधे घंटे में ही राकेश ऑफ़िस से वापस आने वाले थे, माधुरी ने थोड़ी और फ़ुर्ती से अपने हाथ चलाए।

न जाने उसका पूरा दिन कहाँ जाता था, सुबह के छह बजे से शुरू होता . . . सुहानी को नहला-धुला कर, नाश्ता कराकर स्कूल छोड़कर आती . . . फिर राकेश के नाश्ते और दोपहर के टिफ़िन की तैयारी . . .उनके जाते ही काम वाली बाई के साथ घर की साफ़-सफ़ाई की निगरानी... इस्त्री वाले भैया से कपड़े लेना, देना और हिसाब मिलाना . . . मोल भाव करके गली से सब्ज़ी-फल ख़रीदना . . . माली को गमलों की हर फेर और नए फूल पौधे लगाने की हिदायत देना . . . और बस इतने में ही, सुहानी को स्कूल से लाने का समय भी हो जाता . . . 

खाना खाकर बेचारी बच्ची बस कुछ ही देर आराम करती और फिर पहाड़-से बस्ते से, पहाड़-से होमवर्क की शुरुआत . . .! वो गली-पड़ोस के बच्चों के साथ जितनी देर खेलती, इतने में वो शाम के खाने की तैयारी में जुट जाती . . .

घंटी की आवाज़ सुनते ही, माधुरी ने झटपट अपनी साड़ी के पल्लू को सँवारा और दरवाज़ा खोल, ज्यूँ ही स्वागत में मुस्कुराई और ब्रीफ़केस और टिफ़िन लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तो एक नई शिकायत, पर वही, रोज़ के उलाहने-भरे अंदाज़ में राकेश बोले, "अरे, बरामदे की लाइट कल रात से अभी तक जल रही है, . . . तुम से इतना भी नहीं हुआ कि बन्द कर देती, . . . आख़िर पूरा दिन तुम करती क्या हो . . .?"

माधुरी की मुस्कान फीकी पड़ गयी और मन मुस कर पुड़िया-सा सिमट गया। क्या उसे अपनी सफ़ाई में अब दिन भर के कामों को गिनवाना होगा? . . . उफ़्फ़! अभी तो उन्हें करने की थकन और ऊबन भी ख़त्म नहीं हुई . . .!

क्यों न वो सिर्फ़ इतना ही कह दे, "मैं पूरा दिन आपके घर लौटने का इंतज़ार करती हूँ,  . . .दिनभर सब काम जल्दी-जल्दी निबटाने की कोशिश करती हूँ, जिससे शाम को कुछ देर आपके साथ आराम से बैठ सकूँ . . .आपकी मीटिंग के बारे में सुनूँ, कुछ अपनी सुनाऊँ . . . 

चाय न पीकर, उतने समय में, मैं आपकी पसन्द की साड़ी पहनती हूँ, साथ में मेल खाती बिंदी और चूड़ियाँ भी . . .आपकी पसंद के सुर्ख गुलाब गुलदस्ते में सजाती हूँ  . . . और हाँ, एक अपने जूड़े में भी! . . . आपकी ख़ुशी के लिए, जाने कितने जतन करती हूँ . . ."

राकेश की बेरुख़ी और लाइट खुली रह जाने की नाराज़गी देखते हुए, माधुरी ने कुछ भी न कह कर, रोज़ की तरह, चुप रहना बेहतर समझा . . .उसे इस बात का एहसास होने लगा था कि रिश्तों को निभाने के लिए, कभी गूँगा और कभी बेहरा बनना ज़रूरी था . . .!

 . . .पर . . .आख़िर कब तक!!

2 टिप्पणियाँ

  • आपकी सुंदर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार सविता जी!!

  • प्रीति जी की कहानी हर एक स्त्री जिसने स्वयं को घर के कामकाज में पूर्ण रूप से समर्पित कर रखा है उनकी कहानी है घर में सुख शांति बनाए रखने के लिए कभी कभी गूँगे या बहरे होना पड़ता है तभी घर गृहस्थी सुचारु रूप से चलती है।

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