गुमशुदा ताज

01-10-2021

गुमशुदा ताज

सरोजिनी पाण्डेय (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मूल कहानी: द स्टोलेन क्राउन; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन; पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, एक बार फिर मैं उपस्थित हूँ एक लोककथा लेकर जो इटली की है इस कथा का आनंद लीजिए और साथ ही साथ यह भी विचार कीजिए कि पृथ्वी के हर कोने में हर काल में मनुष्य के लिए दुख, भ्रम, चिंता, स्नेह भाव एक से हैं। इसके साथ ही धैर्य साहस, प्रत्युत्पन्न– बुद्धि, चतुराई आदि मानवीय गुण सदा से मूल्यवान रहे हैं:

 

एक राजा के तीन बेटे थे, जिन्हें वह बहुत स्नेह करता था। एक बार राजा अपने प्रधानमंत्री के साथ शिकार खेलने गया। शिकार के बाद ऐसा थका कि एक पेड़ के नीचे लेटा और तत्काल उसकी आँख लग गई। जागने पर सबसे पहले उसे अपने ताज की याद आई। ताज न तो उसके सिर पर था, न ज़मीन पर और शिकार की थैली में होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था। तो ताज गया तो आख़िर गया कहाँ? तुरंत मंत्री को तलब किया गरज कर पूछा,"मेरा मुकुट कहाँ है?"

"हुज़ूरे आला, क्या मैं कभी आपका मुकुट छूने की भी हिम्मत कर सकता हूँ। और मैंने किसी को उसे ले जाते हुए भी नहीं देखा।"

क्रोध और क्षोभ में डूबा राजा महल वापस आ गया और मंत्री को कारागार में डलवा दिया। पर असली गुनाहगार तो थी परियों की रानी हसीना!

सिर पर बिना ताज के दरबार लगाना राजा से हो न सका। उसने अपने को कमरे में बंद कर लिया और आदेश दे दिया कि कोई उसे परेशान ना करें। 

तीनों बेटे परेशान हो गए कि आख़िर हुआ क्या है पिताजी को! कुछेक दिन बाद आख़िर सबसे बड़े बेटे ने अपने छोटे भाइयों से कहा, "पिताजी को न जाने क्या हो गया है। क्यों उन्होंने अपने आप को सबसे अलग कर, एकांतवास ले लिया है। अवश्य कोई दुर्घटना हुई है। मैं पता लगाने की कोशिश करता हूँ।"

वह पिता के कमरे के द्वार तक पहुँचा ही था कि राजा ने उसे ज़ोर से डाँटा, यदि वह बगटुट न भागता तो मार भी खा ले लेता। 

"मैं भी कोशिश करता हूँ," मँझले बेटे ने कहा। उसके साथ भी वैसा ही हुआ जैसा बड़े भाई के साथ हुआ था। 

अब सबसे छोटे बेटे वीरसेन की बारी थी, जो पिता का सबसे दुलारा बेटा था। वह पिता के पास जाकर सीधे उनके चरणों में झुक गया और उनके एकांतवास का कारण जानना चाहा।

"मैं तुम्हें सब बताना चाहता हूँ, परंतु सब कुछ इतना लज्जाजनक है कि मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता," राजा ने बेटे से कहा। छोटे बेटे ने अपनी कनपटी पर बंदूक लगाकर कहा, "आपको इतनी पीड़ा सहते हुए देखने से तो अच्छा है कि मैं मर जाऊँ! यदि आप मुझे जीता देखना चाहते हैं अपने दुख का कारण मुझे बताइए।" उसके ऐसा करने से राजा घबरा गया और बोल उठा, "रुको बेटा, ऐसा ना करो। मैं तुम्हें सब बताता हूँ।" 

फिर राजा ने सारा क़िस्सा विस्तार से वीरसेन को सुना दिया, साथ ही साथ यह भी कहा कि इस घटना का ज़िक्र वह किसी से कभी ना करे। वीरसेन ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और बोला, "पिताजी, आप जैसे वीर और यशस्वी राजा का मुकुट इस दुनिया में केवल हसीना नामक परी ही ले जा सकती है, जिसे लोगों को सताने में ही आनंद मिलता है। मैं सारे संसार में उसे खोजूँगा, या तो मैं आपका ताज लेकर लौटूँगा या फिर अपना मुख आपको कभी न दिखाऊँगा।" 

वीरसेन ने घोड़े पर काठी बिठाई, बटुए में पैसे भरे और चल पड़ा। कुछ आगे जाकर उसे एक तिराहा मिला , जहाँ तीन रास्ते अलग-अलग दिशाओं में जा रहे थे। हर रास्ते पर एक मील का पत्थर लगा था, पहले पत्थर पर लिखा था 'इस राह पर जो जाएगा अवश्य लौट आएगा', दूसरे पत्थर पर लिखा था, 'इस रास्ते जाने वालों का भगवान भला करे', और तीसरे पर लिखा था, ’इस राह पर जाने वाला कभी नहीं लौटता'। वीरसेन ने पहले रास्ते पर जाने को सोचा पर फिर यह विचार छोड़ दिया। दूसरे पर कुछ दूर गया फिर लौट आया। अंत में वह तीसरे रास्ते पर चल ही पड़ा। कुछ दूर तक तो सड़क बहुत अच्छी रही पर आगे राह काँटों, झाड़ियों, कीड़ों-मकोड़ों, वन्य और विषैले जीवों से भरी, ऐसी उबड़-खाबड़ थी कि उस पर बेचारा घोड़ा चल ही नहीं पा रहा था। वीरसेन क्या करता ! वह घोड़े से उतर गया। घोड़े को एक पेड़ से बाँधा, उसकी पीठ थपथपाई और भर्राये गले से अलविदा कहते हुए बोला, "प्यारे घोड़े, अब हम शायद कभी ना मिलें," और पैदल ही आगे बढ़ चला। सुनसान रास्ते पर चलते-चलते कई दिन बीत गए। आख़िर वह एक कुटिया के सामने आ पहुँचा। वह भूख-प्यास से व्याकुल था, सो द्वार खटखटा दिया। 

अंदर से किसी ने पूछा, "कौन है?" 

"एक थका -हारा, भूखा- प्यासा, बिन घोड़े का योद्धा।"

एक वृद्धा ने धीरे से द्वार खोला और हैरानी से पूछा, "सुंदर लड़के, तुम धरती के इस भाग पर क्या कर रहे हो? अंदर मत आना बेटा! यदि घर लौटने पर मेरी बेटी ने तुम्हें देख लिया तो वह तुम्हें मार देगी और खा जाएगी, मैं दक्षिण-पश्चिम हवा 'दक्षा' की माता हूँ। तुम यहीं रुको मैं तुम्हारे खाने-पीने का प्रबंध करती हूँ"

खाना खाते-खाते वीरसेन ने वृद्धा को अपने आने का कारण विस्तार से बता दिया। वृद्धा को तो हसीना के महल के बारे में कुछ भी मालूम न था परंतु फिर भी उसने अपने दयालु स्वभाव के कारण राजकुमार की सहायता करने का निश्चय कर लिया था। वह राजकुमार को कुटिया के अंदर ले आई और पलंग के नीचे छुपा दिया। जब दक्षा थकी, भूखी, झल्लाई घर में घुसी तो उसकी माँ ने उसे भरपेट स्वादिष्ट भोजन करा दिया। 

फिर धीरे-धीरे, प्यार से उसे वीरसेन के बारे में सब कुछ बताया, साथ ही साथ यह वादा भी ले लिया कि वह उसका. बाल भी बाँका न करेगी। दक्षा तृप्त थी, उसे भरपेट सुस्वादु भोजन मिल गया था। उसने वीरसेन को अपने पास बुलाया और मित्रता का व्यवहार करते हुए उससे बातचीत करने लगी। उसने बताया कि वह तो हवा है, संसार के हर कोने में घूमती है, उसने वीरसेन के पिता का ताज, हसीना नामक परी के पलंग पर देखा है, जहाँ सितारों से भरी एक चादर और सुनहरा संगीतमय सेब भी मुकुट के साथ ही रखे हैं। हसीना ने उन दिन दो चीज़ों को उन दो राजकुमारियों से छीना है, जिन्हें उसने अंधे कुएँ में धकेल दिया है। 

यह सारा हाल बताने के बाद दक्षा ने उसे हसीना के घर और अंधे कुएँ का पता भी बताया। 

"लेकिन मैं उस महल के अंदर कैसे जाऊँगा," राजकुमार बोला।

दक्षा ने वीरसेन को एक आसव देते हुए कहा, "यह आसव ले जाओ, इसको पिलाकर तुम पहरेदारों को गहरी नींद में सुला सकते हो। अंदर जाकर तुम्हें माली को खोजना होगा।"

"मैं माली से कैसे निपटूँगा!" वीरसेन ने पूछा। 

"तुम चिंता न करो," दक्षा बोली, "वह माली और कोई नहीं मेरे पिता हैं। मैं और मेरी माँ, दोनों ही तुम्हारे बारे में उन्हें समझा देंगे।"

वीरसेन बहुत अधिक प्रसन्न हो गया। उसने माँ- बेटी को हार्दिक धन्यवाद दिया और उनसे विदा लेकर अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ा। चलते-चलते वह हसीना परी के महल तक पहुँच ही गया। पहरेदारों को बातों में फँसा कर उसने धीरे से उन्हें आसव पिला दिया और वे देखते-देखते खर्राटे भरने लगे। अब उसने माली की खोज की। माली तो वीरसेन की सहायता के लिए मानो तैयार ही बैठा था। उसने बताया कि हसीना के कमरे तक जाने वाली सीढ़ियों की रक्षा दो हब्शी करते हैं। उनको यह आदेश है कि माली को, जो हसीना परी के पास रोज़ फूल लेकर जाता है, को छोड़कर जो भी हसीना के कमरे में प्रवेश करने की कोशिश करे, उसे मार दिया जाए। यह जानकर वीरसेन ने कुछ देर विचार किया और फिर माली के कपड़े माँग लिए। माली के कपड़े पहन, हाथ में रजनीगंधा के सफ़ेद फूलों वाला बड़ा सा गुच्छा ले, उसमें अपना चेहरा छुपा कर वह हसीना के कक्ष की ओर बढ़ा। दोनों हब्शी इस झाँसे में आ गए और वीरसेन हसीना के कमरे में जा पहुँचा। 

वहाँ उसने मसहरी के ऊपर पिता का ताज, सितारों की चादर और सुनहरा संगीतमय सेब देखा। उसने ये तीनों चीज़ें उठा लीं। फिर मुड़कर परी की ओर देखा, उसका अनुपम रूप देखकर वीरसेन उस पर मोहित हो गया, वह उसे चूमना ही चाहता था कि सुनहरे संगीतमय सेब से कुछ ध्वनि निकली, वीरसेन घबरा गया। उसे लगा कि अगर हसीना जाग गई तो उसके किए-कराए पर पानी फिर जाएगा। उसने अपने को सँभाला, चमेली के फूलों का एक बड़ा-सा गुलदस्ता उठाया, उसमें मुँह छुपाकर वह हब्शियों से बाल-बाल बच कर निकल भागा, यदि उसमें कहीं हसीना को चूम लिया होता तो अवश्य ही चट्टान बन जाता जैसा कि पहले कइयों के साथ हो चुका था!

वीरसेन ने माली के कपड़े लौटाए और उसका आभार जताते हुए वापसी की यात्रा आरंभ की। कई घंटों की पैदल यात्रा के बाद वह उस अंधे कुएँ के पास आया जिसमें राजकुमारियाँ क़ैदी थीं। वह इतना गहरा था कि झाँकने पर पेंदी दिखाई ही न पड़ती थी। एक बहुत बड़ा हंस, जिसके डैनों के नीचे कई लोग छुप जाएँ, इस कुँए के चक्कर लगा रहा था। वीरसेन को देखते ही हंस समझ गया कि वह कुएं में जाना चाहता है। हंस ने वीरसेन को अपने पंखों में दबोच लिया और कुएँ में उतर गया। 

और देखो तो वहाँ कुएँ के तल में दो राजकुमारियाँ खड़ी काँप रही थीं। 

"आप लोग डरिए मत, यह लीजिए आपकी सितारों भरी चुन्नी और सुनहरा संगीतमय सेब," वीरसेन बोला, साथ ही वह हंस के पंख से नीचे कूद पड़ा। 

"अब आप लोग आज़ाद हैं, अगर मेरे साथ बाहर आना चाहती हैं तो हंस के डैनों तले आ जाइए।"

राजकुमारियों की ख़ुशी का तो ठिकाना ही न था, वह तुरंत हंस के डैनों के नीचे आ दुबकीं।

हंस ने ऊँची उड़ान भरी, कुएँ से निकल कर पर्वतों, जंगलों के ऊपर से होता हुआ वह ठीक उसी जगह उतरा जहाँ वीरसेन का घोड़ा बँधा था। वीरसेन ने हंस से अलविदा कहा और दोनों राजकुमारियों को घोड़े पर बैठा अपने देश की ओर सरपट चल पड़ा।

अपने ताज को देखते ही राजा में मानों प्राण पड़ गए! वह प्रसन्नता से उछल पड़ा! बेटे को उसने गले लगाया और जब वीरसेन पिता के चरण छूने के लिए झुका तो राजमुकुट उसके सिर पर रख दिया, "यह मुकुट तुम्हारा है, तुम इस मुकुट के सच्चे अधिकारी हो।"

उन दोनों राजकुमारियों में से एक के साथ वीरसेन ने विवाह कर लिया। राज्य में खुशियाँ छा गईं। 

मेरी कहानी तो यहीं ख़त्म हो गई, परंतु वीरसेन के राज्य की ख़ुशियाँ कभी ख़त्म न हुईं।

तो फिर आगे? ? 

यदि मिले फिर तो फिर एक नई कहानी! आप करेंगे न मेरी एक नई कहानी का इंतज़ार?

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