गुल्लू उर्फ उल्लू

19-02-2015

गुल्लू उर्फ उल्लू

बिक्रम सिंह

अब जहाँ ई.सी.एल कम्पनी का क्वार्टर है, पहले कभी यहाँ जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि जब नए क्वार्टर बनने की योजना बनी तब ई.सी.एल ने अपने बड़े-बड़े बुलडोज़र चला कर जंगल को साफ कर दिया। वहाँ एक साफ सुथरा मैदान बना दिया गया था। फिर वहाँ दो रूम, एक हाल, रसोई, लेटरिन-बाथरूम अर्थात टू बैडरूम वाले क्वार्टर तैयार किये गये थे, और उस क्वार्टर में आने के लिए हर एक कर्मचारी कोशिश करने लगा था। उन्हीं दिनों एक परिवार मनराज चौधरी का रहने आया था। उसके साथ एक बेटी और एक बेटा साथ आया था। यूँ तो उसके तीन लड़के और दो लड़कियाँ थीं। मगर मनराज और उसकी पत्नी के साथ सिर्फ उसका सबसे छोटा लड़का और बेटी ही आई थी। बाकी का परिवार गाँव में रह रहा था।

करीब सप्ताह भर बाद एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पढ़ने बैठ गया था। सिर्फ मैं ही नहीं करीब कालोनी में हर एक विद्यार्थी सुबह पढ़ने बैठ जाया करता था। उन दिनों हम सब कालोनी के सब विद्यार्थी ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ा करते थे। कोई एक-आध ही होगा जो मौन पढ़ता होगा। कालोनी में सब की आवाज़ गूँजती रहती थी। उस दिन सुबह अचानक कानों में गानों की आवाज़ आने लगी थी। गाना किशोर कुमार का था। मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...........। मैं गाने सुनने में मस्त हो गया था। करीब पन्द्रह मिनट तक एक के बाद एक सदाबहार गाने बजते रहे। अचानक से किसी की चिल्लाने की आवाज़ आने लगी, "कौन पागल सुबह-सुबह टेपरिकॉर्डर बजा रहा है।" मैंने घर से बाहर दरवाज़े के पास आकर खड़ा होकर देखा, तो पड़ोस के ही शमसुद्दीन मियाँ थे। और शायद नाइट शिफ्ट डयूटी कर के आये थे। इस तरह से ऊँची आवाज़ में गाने बजने की वज़ह से उसकी नींद टूट गई थी। गाने की आवाज़ मनराज चौधरी के घर से आ रही थी। मुझे लगा की मनराज को गाने सुनने का शौक होगा। मगर जब मियाँ शमसुद्दीन लगातार गरियाते जा रहा था, मनराज का लड़का रनजीत सिंह उर्फ गुल्लू निकला था। यूँ तो उसका नाम रनजीत सिंह था, पर उसको सब घर में गुल्लू कह कर बुलाते थे। गुल्लू नाम पड़ने के पीछे भी कुछ कारण था। क्योंकि कहानी तो मुझे भी नहीं पता थी, बस इतना सुना था कि रनजीत का दिमाग कुछ ऐसा था कि उसके पिता मनराज उसे हर बात पर उल्लू कह कर पुकारने लगे थे। रनजीत जब रूठ जाता खाना नहीं खाता तो माँ उसे बड़े प्यार से मनाती थी। "हमार रनजीत उल्लू थोड़े हवे हमार गोलू हवे हमार सलू हवे हमार गल्लू हवे।" बस यहीं से रनजीत का नाम गुल्लू पड़ गया था। गुल्लू ने कच्छा पहन रखा था। कच्छे का नाड़ा जूते के फीते का था। बदन पूरा नंगा था। ऐसा लगा जैसे वह घर का काम कर रहा हो। हाँ यह सच भी था कि गुल्लू घर का काम किया करता था। वह अपने माँ के साथ घर के बर्तन, झाड़ू पोछा, कपड़े धोने तक के काम करवाया करता था। जब वह माँ को काम करते देखता तो माँ से कहता, "माई तू कितना काम करे ली, थक जात होई। बहनी रीना भी तोहार संग काम ना करेली।"

"बेटा तोहार बहनी अभी छोट हई ना। बड़ हो जाई त अपने करे लगी।"

"तो ठीक बा माई जब ले बहनी छोट बा हम तूहार संग काम कराईब।"

बस तब से गुल्लू माँ के हर काम में हाथ बटाने लगा था।

गुल्लू ने शमसुद्दीन से कहा, "जी क्या बात हो गई।"

"इतनी आवाज़ कर के गाने क्यों सुन रहे हो।"

"जी ठीक है, आवाज़ कम कर देता हूँ," इतना कह जैसे ही गुल्लू घर के अंदर जाने लगा कि शमसुद्दीन ने कहा, "उल्लू का पट्ठा कहीं का।"

बंदूक की गोली की तरह हवा को चीरते हुए शब्द गुल्लू के कानों में ठाँय से लगे। गुल्लू ने अपनी गर्दन घुमा कर शमसुद्दीन को देखा और कहा, "उल्लू होगा तू।"

फिर एक से एक गालियाँ गुल्लू ने उसको दे दीं और घर के अंदर चला गया। यह सब देख हम सब हैरान रह गये। मगर खूब मज़ा आया था। क्योंकि शमसुद्दीन की आदत थी, सुबह हो या शाम वह अक्सर हम सब को खेलते देख, हल्ला मत करो, कह भगा दिया करता था। हाँ तो वह हम लोगों से गुल्लू की पहली मुलाकात थी।

उन दिनों गुल्लू के सदाबहार गानों से उसके पास की लड़की गुल्लू को दिल दे बैठी थी। गुल्लू भी उसे चाहने लगा था। शायद गुल्लू से वह दिन में मिलने से डरती थी कि कहीं किसी ने देख लिया तो माँ बाबू जी को पता चल जायेगा। उसने गुल्लू को पत्र में लिख के दिया था, मैं खिड़की के पास में सोती हूँ, तुम रात को खिड़की के पास आकर इशारा करना तो मैं जाग जाऊँगी। खिड़की में आ जाऊँगी।

उन दिनों हमारी कालोनी में एक चोर की चर्चा थी कि वह लम्बी लकड़ी के आगे हुक लगाकर रखता था। जिसकी भी खिड़की खुली देखता था। हुक से उसके घर का सामान खींच कर भाग जाता था। कालोनी के लोग उससे काफी परेशान थे। एक रात जब गुल्लू के घर में सारे गहरी नींद सो गये तो, धीरे से दरवाज़ा खोल कर वह बाहर आ गया और अपनी प्रेमिका की खिड़की के पास इशारा कर उसे खिड़की के पास बुला लिया। वह आपस में बात करने लगे। तभी अचानक एक आदमी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, चोर....चोर। यह सुन प्रेमिका ने गुल्लू से कहा, तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ। गुल्लू वहाँ से जैसे ही हट कर रास्ते में आया तो गुल्लू के सामने से चोर भाग रहा था कि गुल्लू ने उसे पकड़ कर अपनी बाहों में जकड़ लिया। गुल्लू के पापा की नींद हल्ले से खुल गई, देखा तो दरवाज़ा खुला हुआ था, गुल्लू घर पर नहीं है। बाहर निकल कर देखा तो गुल्लू कुछ लोगों के बीच खड़ा था। वह सब गुल्लू को पीठ थपथपा रहे थे। गुल्लू ने शातिर चोर को पकड़ लिया है। मनराज चौधरी की तो होश उड़ गये इसलिये नहीं कि उसने चोर को पक़ड़ लिया, बल्कि इसलिए कि वह रात को बाहर क्या कर रहा था? उस दिन गुल्लू की इनाम में खूब पिटाई हुई थी।

गर्मियों की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुले तो मैंने गुल्लू को स्कूल में अपनी ही क्लास में देखा। वह पीछे की बेंच पर बैठा था। मैंने उसे आगे को बुला लिया था। वह आगे नहीं आना चाहता था मगर मेरे कहने पर आ गया था। बाद में पता जो चला वह यह कि गुल्लू किसी दूसरे स्कूल में पाँचवीं में तीन साल फेल हो गया था। मनराज ने हमारे इस सरकारी स्कूल में पैसे देकर सीधा आठवीं में दाखिला करवा दिया था।

क्लास में जे.एन.यू सर आये थे। जिनकी एक अजीब आदत थी कि वह किताब से कुछ ना कुछ ऊट-पटांग सवाल पूछ लेता था। उस दिन भी उसने पहला सवाल गुल्लू से ही किया था - "बता कुत्ते कितने प्रकार के होते हैं?"

गुल्लू ने फट से जबाब दिया, "सर कुत्ते तीन प्रकार के होते है।"

इतना कहने की देर थी की पूरी क्लास में ज़ोर का ठहाका लगा था। सर ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "चुप!"

क्लास मैं एकाएक शान्ति पसर गयी थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि क्लास में अभी-अभी ज़ोर का ठहाका लगा हो। मास्टर साहब ने गुल्लू से कहा, "कुत्ते की तीसरी प्रजाति तूने कहाँ से पैदा कर दी। ज़रा बताना कुत्ते तीन प्रकार के कैसे हुए?"

"सर एक हुआ जंगली, दूसरा हुआ पालतू और तीसरा हुआ फालतू जो गल्ली-नुक्कड़ में घूमते हैं। जहाँ मन किया हग देते हैं।"

एक बार फिर ज़ोर का ठहाका लगा था। मास्टर जी ने फिर से अपने तेवर से सब को चुप करा दिया था। दाँत पीसते हुए गुल्लू पर डंडे बरसाने लगे थे। डंडे बरसाने के बाद उसने गुल्लू को उल्लू का पट्ठा कहा था। मैं डर गया कि कहीं गुल्लू मास्टर जी को गाली ना दे बैठे। मन ही मन गुल्लू ने मास्टर जी की खूब माँ बहन एक की थी। मगर मैं उस दिन सोच रहा था कि गुल्लू अपनी जगह सही है। आखिर उसने प्रेक्टीकल देख जवाब दिया था। सही मायने में गुल्लू की वहाँ नज़र जाती थी जहाँ इंसान सोचता नहीं है।

क्योंकि हमारे उसी स्कूल में एक बी.एच.यू सर हुआ करते थे उनकी एक बहुत ही गंदी आदत थी। वह आकर क्लास में बैठ जाया करते थे। और वह खंगार कर अपने बलगम को मुँह में ले आया करते थे। फिर उसे चबाते रहते थे। उस वक्त पूरी क्लास के लड़के घृणा से भर जाते थे और अपना सर नीचे की तरफ रखते थे। कोई भी उसे देखना नहीं चाहता था। मगर गुल्लू उसे ध्यान से देखता रहता था। मैंने एक दिन गुल्लू से पूछा, "यार तुझे घिन नहीं आती इस तरह उसे देखकर।"

"नहीं दोस्त! घिन करने वाली बात नहीं है। सोचने वाली बात है साला यह मास्टर चालाक है। बाहर से बबलगम खरीदने की बजाये, अच्छा है अपने अदंर से ही बबलगम निकाल कर जुगाली की जाये।"

इसका मन रखने के लिये मैंने इतना कहा, "क्या बात की दोस्त।" लेकिन बाद मैं काफी देर तक इस बात को सोचता रहा कि इस तरह का किसी ने भी क्यों नहीं सोचा। क्या सचमुच बी.एच.यू सर ऐसा ही सोचकर खंगार कर बबलगम चबाते रहते थे। शायद यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न था। लेकिन कुछ दिनों बाद हमने देखा था कि बी.एच.यू सर ने खंगारना छोड़ दिया था। और उसके मुँह में असली का कुछ होता था जिसे वह चबाते रहते थे।

मैंने देखा कुछ दिनों बाद जे.एन.यू सर भी गुल्लू से खुश हो गये थे। और गुल्लू की तीन कुत्तों वाली बात को सही ठहराने की कोशिश करने लगे थे। "देखो बाहर के गलियो में घूमने वाले कुत्ते जो होते हैं इन्हें विदेशो में स्ट्रीट डॉग बोलते हैं। गुल्लू की बात ठीक ही थी मगर कहने का तरीका गलत था।"

मुझे यह सब सुन कर अद्भुत लगा था। इस रहस्य को जानने की मुझमें प्रबल इच्छा जाग गई थी। चूँकि ठण्ड का समय था और हम सब टिफिन के समय अर्थात लंच के समय छत पर खाना खाने जाते थे। गुल्लू ने एक दिन मुझे कहा यार चल आज हाफ डे चलते हैं। उस दिन मुझे एक जंगल के बीच मैदान में ले गया और एक हरी घास के मैदान में जाकर लेट गया। अपने बैग से मीठे बेर का आचार निकाल कर रख दिया। उस दिन खूब अच्छा लग रहा था। हल्की-हल्की ठण्ड में सूर्य की रोशनी हमारे बदन को गर्म कर रही थी जैसे माँ शिशु की मालिश कर रही हो। उस पर जब मीठे बेर के आचार को मुँह में लेते थे, अजब सुखद का एहसास हो रहा था। मैंने गुल्लू से कहा, "यार गजब का मजा आ रहा है।"

गुल्लू ने कहा, "ठण्ड में दिन में खुले आसमान के नीचे लेट कर आसमान को देखकर सभी किताब कॉपी से दूर रह कर जो मजा है ना, वह और कहीं नहीं मेरे दोस्त। और गर्मियों में रात में छत पर लेट कर आसमान के तारे देखकर सोने में मजा है। इसलिए तो यहाँ आया हूँ। नहीं तो अभी चारदीवारी के अंदर इन पागल टीचरों के चेहरा देख कर पक रहे होते।"

सही तो यह था गुल्लू के चेहरे पर भविष्य को लेकर कोई चिंता कभी नहीं रहती थी। एक दिन इसी तरह हम धूप में बैठकर बेर का अचार खा रहे थे। मैंने पूछा, "क्या तुम्हें अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं होती।"

वह हँसा, "हा......हा......हा...! यार तुम्हारे होते हुए मुझे क्या चिंता है।"

"वह कैसे?"

"क्योंकि यार जब तुम पढ़ लिखकर बड़े ऑफिसर बनोगे, तो तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।"

फिर ना जाने उसने यह बात मुझसे कितनी बार कही थी। मगर गुल्लू की यह बात सुन कर मैं मन ही मन उसे उल्लू ही समझता था। मैं कहता "चपरासी बनने के लिए भी कम से कम आठवीं पास होना पड़ता है।"

खैर मेरे अंदर जो एक रहस्य छिपा था, वह दसवीं के रिज़ल्ट आने के बाद खुला था। दरअसल गुल्लू दसवीं में बड़े खराब नम्बरो से फेल हो गया था अर्थात वह प्रत्येक विषय में फेल हो गया था। मगर गुल्लू के नवीं तक तो इस तरह के नम्बर नहीं आये थे। मैं गुल्लू से एक दिन पूछा, "यार रनजीत तो नवीं तक तो ठीक-ठाक पास हो गया। मगर यह क्या दसवीं में तू सारे विषयों में फेल हो गया।"

गुल्लू दुखी होने की बजाये ज़ोर-ज़ोर से हँसा, "वह तो मेरी खट्टी दही और बबलगम का कमाल था।" दरअसल गुल्लू ने मुझे जो बताया, वह यह था कि वह जे.एन.यू सर के पास टयूशन पढ़ने लगा था। चूँकि जे.एन.यू सर को डायबटीज़ थी, इस वज़ह से गुल्लू उन्हें हर रोज़ दही दिया करता था। जिससे वह बहुत खुश हो गया था। गुल्लू हमेशा स्कूल से आने के बाद रात आठ से नौ साइकिल लेकर जे.एन.यू सर के घर टयूशन पढ़ने जाया करता था। उस समय हम सब घर पर पढ़ा करते थे। इस वज़ह से हमें यह बात पता नहीं चली थी। उसने ही मुझे बताया था कि बी.एच.यू सर को बचपन में बबलगम खाने की आदत थी मगर उसके बाबू जी कभी उसे पैसे नहीं देते थे। उसी समय गाँव में बी.एच.यू सर को किसी ने कह दिया था कि "बबलगम तो तूहार बितरे बा रे बस जब मन करी तब खगार ला उके जीबा लिया कर।" यह बात गुल्लू को जे.एन.यू सर ने बताई थी। बस फिर क्या था गुल्लू ने एक दिन जो कि टीचर डे का दिन था, बी.यच.यू सर को एक कलम के साथ बड़ा पैकिट बबलगम का खरीद कर दे दिया था। और यह क्रम चलता रहा लगातार कम से कम नवीं पास होने तक। लेकिन सही मायने में दोनों सर यह अच्छी तरह जानते थे कि गुल्लू पढ़ने-लिखने में एकदम गधा है। इसलिये उसे हमेशा अच्छी तरह पढ़ने के लिये कहते थे। बोर्ड की परीक्षा का पेपर उनके हाथों में नहीं था इसलिये वह फेल हो गया था। उस दिन मुझे समझ में आया था क्यों गुल्लू मुझे यह कहता था कि तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।

उसके बाद गुल्लू लगातार फेल होता गया। हम सब क्लास दर क्लास उपर उठते गये। अंततः गुल्लू ने पढ़ाई छोड़ दी थी। चूँकि गुल्लू को गाने सुनने का शौक था, इसी शौक ने उसे टेपरिकॉर्डर की मरम्मत करने का मिस्त्री भी बना दिया था। सो वह धीरे-धोरे बिजली मिस्त्री बन गया और कई लोग अपने टेपरिकॉर्डर उसे सही कराने लगे थे। यह वह समय था जब लोगों के पास मोबाईल डीवीडी नहीं हुआ करता था।

एक दिन गुल्लू शायद टेपरिकॉर्डर का समान लेकर बाज़ार से वापस आ रहा था। रास्ते में उसने देखा कि एक घर धू-धू कर के जल रहा था। अंदर से बच्चे और स्त्री की रोने की आवाज़ आ रही थी। आस-पास सभी खड़े तमाशा देख रहे थे। गुल्लू ने आव देखा ना ताव, अपनी साइकिल वहीं फेंक दी और किसी सुपर मैन की तरह उसने आग को चीरते हुए अंदर छलांग लगा दी। पलक झपकते ही वह वापस किसी को गोद में लिए छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे ज़मीन पर लेटा दोबारा अंदर घुस गया। लोग झट से बाहर लाये बच्चे, जिसकी उम्र मात्र सात साल की थी, को देखने लगे, और चिल्लाने लगे, "भई डॉक्टर के पास इसे ले चलो।" गुल्लू छलांग लगाकर दोबारा वापस आ गया। फिर किसी को गोद में उठा कर लाया और उसे ज़मीन पर लेटा कर एक बार फिर अंदर घुस गया। मगर इस बार गुल्लू नहीं निकला था। सब यही सोच रहे थे फिर दोबारा गुल्लू वापस आयेगा। करीब पंद्रह मिनट तक गुल्लू नहीं निकला था। फायर दमकल आ गई उसने आग को करीब दस मिनट में बुझा लिया था। आग बुझने के बाद गुल्लू और एक स्त्री मृत अवस्था में मिली थी। गुल्लू को उठा कर वहीं पास के एक रूम में लेटा दिया गया था। वहाँ अच्छी खासी भीड़ लग गई थी। लोग आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे थे। कोई कह रहा, "लड़का अब ज़िन्दा नहीं है। हाँ अपनी जान पर खेल कर दो बच्चों की जान बचा ली है। आज कल ऐसे बच्चे मिलना बड़ा मुश्किल है, जो दूसरों के लिए अपनी जान गँवा दे।" कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुल्लू को जानते थे। वह कह रहे थे यह तो मनराज चौधरी का लड़का है। एक सज्जन ने पास खड़े एक व्यक्ति के कान में धीरे से कहा, "भाई अपनी जान दाँव पर लगा कर आग में इस तरह घुस जाना भी कोई समझदारी है क्या? एक नम्बर का उल्लू था यह लड़का।" अचानक से गुल्लू उठ कर बैठ गया किस मादर जात ने मुझे उल्लू कहा। उल्लू होगा तू तेरा खानदान। अचानक से सारे लोग वहाँ से छिटक गये। कुछ पीछे को गिर गये। वह व्यक्ति जिसने यह बात कहीं थी वहाँ से भाग लिया। उसके होश उड़ गये। उसकी समझ में नहीं आया गुल्लू ने यह बात कैसे सुन ली। उस वक्त गुल्लू का चेहरा कुछ जला हुआ सा था जिससे वह और भयानक लग रहा था। लेकिन तब तक गुल्लू के माता-पिता आ गये गुल्लू को अस्पताल लेकर चले गये।

कुछ दिनों तक कालोनी में शान्ति रही क्योंकि गुल्लू का टेपरिकार्डर नहीं बज रहा था। कितनों के टेपरिकॉर्डर गल्लू के पास खराब बनने के लिये पड़े थे।

करीब पन्द्रह दिनों बाद एक दिन सुबह-सुबह कुछ लोगों को अखबार लेकर भागते हुए देखा। मैं समझ नहीं पाया की आज लोग-बाग इस तरह अखबार लेकर क्यों भाग रहे हैं? अखबार तो मेरे घर भी आता था। मगर अभी तक मैंनें अखबार देखा नहीं था। लेकिन इस तरह लोगों को देख मैंने भी अखबार उठा लिया था। उस दिन गुल्लू के बारे में अखबार में छपा था। गुल्लू को राज्य सरकार द्वारा वीरता का सम्मान देने की खबर छपी थी। इस खबर से गुल्लू की चारों तरफ चर्चा होनी शुरू हो गई थी, जिससे सबके होश उड़ गये थे। मैंने भी गुल्लू को इसकी बधाई दी थी। लेकिन गुल्लू के पापा तो गुल्लू के इस तरह के किये काम से खासे नराज़ थे। उनको लग रहा था कि जो मैं गुल्लू के बारे में सोचता था वह सही सोचता था, गुल्लू सही में एक नम्बर का उल्लू का पट्ठा है। अपनी जान को इस तरह जोखिम में डाल दिया था। अगर उस दिन कुछ हो जाता तो क्या होता? उन्होंने गुल्लू को गाँव में भेजने की योजना बना ली थी।

आखिरी समय में गुल्लू मुझे इतना कह कर गया था, "यार मुझे याद रखना अगर ऑफिसर बन गये तो मुझे अपना चपरासी जरूर रख लेना।"

मैंने हँस कर गुल्लू से बस इतना कहा था, "अरे यार इतना नाम कमाया तुमने, सरकार ने तुम्हें वीरता का सम्मान दिया है, नौकरी भी तुम्हें देगी।"

गुल्लू गाँव चला गया। आगे जो मुझे गुल्लू के बारे पता चला था, वह यह कि गल्लू का गाँव में मन नहीं लगा था। इस वज़ह से वह अपने गाँव के लड़के के साथ करीब गाँव से सौ किलोमिटर दूर एक प्राइवेट कम्पनी में इलैक्ट्रिशियन लग गया था। करीब साल भर बाद कम्पनी कर्मचारियों की छंटाई कर नई बहाली करने लगी थी। वह इस वज़ह से कि वह पुराने कर्मचारियो को परमानेण्ट नहीं करना चाहती थी। क्योंकि उनका सोचना था कि आगे चल कर कर्मचारी परमानेण्ट करने की डिमाण्ड ना कर दें। इस पर सभी कर्मचारी एक जुट हो गये थे। गुल्लू कर्मचारीयों का लीडर बन गया। कर्मचारियों को निकाले जाने पर वह बीच सड़क के चौराहे पर अमरण अनशन पर बैठ गया। गुल्लू करीब सप्ताह भर अनशन पर बैठा रहा। हर दिन अखबार में गुल्लू की खबर छपने लगी। अब गुल्लू का हेल्थ चेकअप करने के लिए स्वास्थ्य विभाग वाले आते और गुल्लू का स्वास्थ्य का चेकअप कर के चले जाते थे। अगले दिन गल्लू की स्वास्थ्य की खबर भी छप जाती थी। कहते हैं उन दिनों कड़ाके की ठण्ड थी। मगर गुल्लू को ठण्ड की भी कोई परवाह नहीं थी। कर्मचारियों ने पैसे इकट्ठे कर वहाँ टेंट लगा दिया। कम्बल बिछा दिये गये। कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि गुल्लू अनशन कर के शहीद हो जायेगा। कम्पनी का मालिक तो पैसा देकर प्रशासन तक को खरीद लेगा। मगर गुल्लू का अनशन जारी रहा। अब कुछ नेता भी अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए गुल्लू से मिलने आ गये। उन्होंने साफ-साफ कहा हम इस तरह कर्मचारियों का शोषण नहीं होने देंगे। देखते ही देखते एक युवा नेता भी अनशन में बैठ गया था। फिर मेनेजमेंट के ऑफ़िसरों के पुतले फूँके जाने लगे थे। मेनेजमेंट भी धमकी देने लगी थी कि अगर यह मामला शांत नहीं हुआ तो हम अपना प्लांट उठा लेंगे। गुल्लू ने भी साफ कहा, "हम ऐसी धमकियों से नहीं डरेंगे।"

अंततः श्रम अधिकारी ने कम्पनी से बात करके मामले को शांत किया और धीरे-धीरे करके सभी कर्मचारियों को वापस ले लिया गया।

कहते हैं यहीं से गल्लू की दोस्ती नेताओं से हो गई थी। उसने पार्टी ज्वाइन कर ली थी। पार्टी की रेलियों जुलूसों में भी जाने लगा था। कहीं तो भाषण भी देने लगा था। गुल्लू की भाषण सुन पब्लिक खूब हँसती थी।

बस मुझे गुल्लू के बारे में यहीं तक पता चला था। उसके बाद मुझे गल्लू के बारे में कुछ नहीं पता चला था।

काफी लम्बा समय बीत गया था। मैं एक रेलवे विभाग में अधिकारी के पद पर नौकरी कर रहा था। करीब पैंतालीस की मेरी उम्र हो गई थी। शायद मैं गुल्लू को भूल भी गया था। क्योंकि नौकरी के प्रेशर ने मुझे सब कुछ भुला सा दिया था। काम से आने के बाद इतना थक जाता था कि मुझे कुछ होश नहीं रहता। दूसरा अलग से मेरे परिवार की परेशानी जो थी।

एक दिन जब मैं काम से घर वापस आया तो पत्नी ने कहा, "आप का कोई खत आया है।" चाय पीते समय मैंने खत को देखा, आश्चर्य की बात है यह खत और किसी का नहीं गुल्लू का था।

पत्र में लिखा था, "कैसे हो मेरे दोस्त। ऑफिसर बन गये मुझे याद नहीं किया तुमने। खैर मैंने भी तो कोई पत्र तुम्हें नहीं लिखा। लेकिन अब तुम्हारी याद मुझे बहुत आ रही है। तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ। कहीं दूर गुनगुनी धूप में बैठ कर बेर का आचार खाना चाहता हूँ।

हाँ एक खास बात, मैं लोकसभा में आ गया हूँ। मैं तुम्हरा दोस्त गुल्लू सांसद हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ। जीवन के आखिरी समय तक साथ मिलकर काम करें। क्या तुम मेरे साथ सेक्रेटरी के तौर पर काम कर सकते हो।

आशा है तुम मुझे ना नहीं करोगे। तुम्हारे इंतजार में तुम्हारा दोस्त।"

पढ़ कर एक बारी मैं खुशी से भर गया था। मगर अगले पल मैं सोचने लगा अब गुल्लू बड़ा आदमी हो गया है। जब लोग बड़े हो जाते हैं तो उनकी आँखों पर पट्टी बंध जाती है। हो सकता है उसने मुझे पत्र अपने बारे में बस बताने भर के लिए ही भेजा हो। मगर गुल्लू ने मुझे पत्र भेजा है। तो मैं उसे निराश नहीं करना चाहता था। सो में गिरते-पड़ते गुल्लू के पास चला गया। जब मैं गुल्लू के ऑफिस के पास पहुँचा तो मुझे उसके दरबान ने रोक लिया था। मैंने एक कागज़ की पर्ची दरबान को पकड़ा दी थी। दरबान पर्ची लेकर अंदर चला गया। मेरी सोच के विपरीत गुल्लू बाहर आया और मुझे गले लगाते हुए बोला, "कहाँ थे मेरे दोस्त इतने दिन।" और फिर उसने मुझसे कहा, "आज सब काम-काज बंद! आज हम सारा दिन तुम्हारे साथ बिताएँगे।"

एक जगह जब हम दोनों बैठे हुए थे तो मैंने गुल्लू से पूछा यह सब कैसे हो गया गुल्लू। उसने मुझे कहा, "राजनीति में नहीं आता तो तुम्हारा दोस्त मारा गया होता। क्योंकि मेरे जान के कई लोग दुश्मन बन गये थे। इसलिये मुझे अपनी रक्षा के लिये राजनीति में आना बहुत जरूरी था।

मैं मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू हर साल इम्तिहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें