गुलाब सिंह

16-10-2007

गुलाब सिंह

डॉ. दीप्ति गुप्ता

आम के पेड़  का थाँवला बनाता ‘गुलाब सिंह , बड़ा मगन हुआ, कुछ  गुनगुनाता सा, अपने काम में लगा हुआ था। कल से उसने लगभग सभी पेड़ों के थाँवले बनाकर, फूलों की क्यारियों की सफाई कर उनकी डौलें भी विशेष रूप से आकर देते हुए बना डाली थीं। आज आलूबुखारे के दो पेड़ों के थाँवले बनाने शेष थे। उसका जोश आसमानी पींगें भर रहा था। वह कभी बगीचे के इस कोने में कुछ सफाई करता दिखता, तो दूसरे ही पल बगीचे के दूसरे सिरे पर अंगूर की बेल को सुलझाता हुआ, आम के तने पर उसकी फुनगियों और पत्तों को ठीक से बैठाता नजर आता। कभी वह एकाएक गायब हो जाता। न इधर नजर आता, न उधर और कभी सहसा ही घनी झाड़ियों में से पत्तों को खड़खड़ाता प्रगट हो जाता। वह माली कम, पेड़ अधिक लगता था - एक चलता-फिरता, हरा-भरा, खिला-खिला, झूमता पेड़! मैंने पेड़-पौधों से इतना अधिक लगाव रखने वाला माली इससे पहले नहीं देखा था। पेड़, पौधों, फूलों में जैसे उसके प्राण बसते थे। इसलिए ही अक्सर मुझे वह पेड़, पौधों और फूलों का प्रतिरूप नजर आता था। खाने पीने की सुध-बुध खोए, जिस तल्लीनता से वह बगीचे में लगा रहता था, उससे वह कभी-कभी मेरे लिए खीझ का कारण भी बन जाता; क्योंकि मुझे उसकी चिन्ता सताती थी कि यदि इसी तरह वह अपनी ओर से लापरवाह रहा, तो शीघ्र ही उसका शरीर जवाब दे जायेगा। एक दिन तो मुझे उस पर इतना क्रोध आया कि मेरा मन किया कि मैं उसे बगीचे में ही एक पेड़ के पास खड़ा करके, चारो ओर थाँवला बनाकर रोप दूँ, उसे वहीं जमा दूँ। क्योंकि शाम के 5 बजे तक उसका खाना बासी होकर, चींटियों की भेंट चढ़ गया था; कपड़े में लिपटी मोटी-मोटी रोटियाँ सूखी कड़क हो गई थी। जब ‘चम्पा’ किसी काम से, उसके पास गई तो पता चला कि गुलाब सिंह को रोटी खाने की सुध ही नहीं रही और खाना चींटियों की और कुछ चिड़ियों, कौवों की दावत बन गया।

 ‘गुलाब सिंह’ का नाम उसके पिता ‘गेंदा’ ने बड़े चाव से रखा था। जिस दिन वह पैदा हुआ था, ठीक उसी दिन उनके झोपड़े के पीछे की बाड़ी में एक बहुत ही सुन्दर लाल गुलाब खिला था। धरती पर एक साथ दो फूल खिले थे उस दिन! इधर घर में गेंदे के प्यारे बेटे ‘गुलाब’ ने अपनी नन्हीं नन्हीं जुगनू सी आँखे खोली, उधर बाड़ी में ‘गुलाब’ ने अपनी पँखुड़ियाँ खोली ।

बस, उस दिन से ही वह ‘गुलाब’ के नाम से पुकारा जाने लगा।

मैंने बालकनी में कॉफी पीते हुए, गुलाब सिंह की 17 वर्षीय बेटी चम्पा को इशारे से अपने पास बुलाया और खोजबीन करनी चाही कि "बात क्या है जो गुलाब सिंह जी इतने कूदे-कूदे बगीचे में फिर रहे हैं? यूँ तो रोज ही बगीचे के लिए उसके सेवा भाव में कोई कमी नहीं रहती, पर आज तो सेवा भाव सवासेर बढ़ा चढ़ा है।"

चम्पा ने उचक कर आँखो से बापू की, बालकनी से दूरी की तहकीकात की और फिर रहस्य का पर्दाफाश करती बोली - "कल दो नए फूल के पौधों -‘सूरजमुखी’ और ‘डेहलिया’ - दोनों पर फूली-फूली कलियाँ जो निकल कर आयीं है, वे खिलेगीं। बापू उसी की तैयारी में लगा है।"

"ओह" सहसा ही मेरे मुँह से निकला और मैं उत्सुक्ता से भरी, वह सोचने लगी कि कल गुलाब सिंह क्या करेगा? क्योकि उस तरह की तैयारी मेरे लिए अचरज की ही बात थी। इससे पहले, ट्रान्सफर होकर, मैं जहाँ भी गई और जो भी माली मुझे मिले, मैंने उन्हें फूलों के खिलने पर, कुछ तैयारी करते कभी नहीं देखा था। सो मेरे लिए तो ‘गुलाब सिंह’ और उसकी ‘तैयारियाँ’ लगभग एक अजूबे की तरह थीं। तभी चम्पा पलट कर मेरे पास आई और मुझे सचेत करती बोली -

"आप बापू से मत बोलना कि मैंने आपको कुछ बताया। बापू ने घर में भी सबको बोल रखा है  कि किसी से कुछ नहीं कहना है। बस, ‘खुसी’ की खबर, उसी दिन सबको मिलेगी, जिस दिन ‘खुसी’ की बात होगी। वरना सबकी नजर लग जायेगी पौधों को।"

"अच्छा ऐसा क्या? बापरे, बड़ा ज्ञानी है तेरा बापू तो" - मेरे यह कहने पर, चम्पा गुलाबसिंह की तारीफ सुन "हाँ" कहती, खुशी से सिर हिलाने लगी। अपने पिता के ज्ञान पर सकारात्मक रूप से सिर हिलाकर, पक्की मुहर लगाने वाली चम्पा की भोली हरकत पर, मैं खिलखिला कर हँस पड़ी।मेरे हँसने पर उस नादान को लगा कि उसने कोई बड़ी अच्छी हँसी की बात कही है तो वह भी मेरे साथ हँसने लगी। फिर तो मेरी हँसी का ठिकाना ही नहीं रहा।

अगले दिन सुबह 6 बजे क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक थाली में हल्दी, कुंकुम, धूपबत्ती, छोटे-छोटे बताशे और पेड़े रखे, मुझे प्रसाद देते हुए; प्रफुल्लता से भरा ‘सूरजमुखी’ और ‘डेहलिया’ के खिलने का शुभ समाचार कुछ इस अन्दाज में मुझे दे रहा था - जैसे धरती ने फूलों को नहीं, वरन् दो नन्हे मुन्ने बच्चों को जन्म दिया हो! मुझे सच में उस पर गर्व हुआ। इसे कहते हैं सम्वेदनशीलता, इसे कहते हैं निष्ठा, लगन, सच्चा प्यार! गुलाब सिंह की सम्वेदनशीलता ने तो फूलों-पौधों में मानो दुगुनी जान डाल दी थी। आज जहाँ लोग इंसान को इंसान नहीं समझते, परस्पर नारकीय व्यवहार करते हैं, वहीं उसी दुनिया में रहने वाला, भौतिक दृष्टि से विपन्न, भावों और सम्वेदनाओं से सम्पन्न, गुलाब सिंह इतना है। बाकायदा हल्दी, कुंकुम और अक्षत से पूजा-अर्चन कर, उनका स्वागत करता है, सबका मुँह उदात्त मनस है कि फूलों का जन्मोत्सव  मनाता मीठा कराता है। उसकी यह सीधी सादी मिठाई उस महँगी, सुसज्जित मिठाई से चौगुनी मीठी और पवित्र भाव पूरित है, जो बेमन से लोग खास-खास मौंकों पर एक दूसरे को  दिखावे की होड़  में देते हैं।                 

 *              *                *              *              

आज दीपावली है। माधवीबाई ने घर की जम कर साज सफाई की है। बिजलीवाला घर के बाहर, दरवाजों और खिड़कियों पर नन्हे-नन्हे बल्बों की रंग बिरंगी लड़ें टाँग रहा है। मैंने गुलाबसिंह को एक अप्रत्याशित खुशी देने के लिए बगीचे की झाड़ियों और पेड़ों पर भी बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगाने का विशेष आदेश बिजली वाले को दिया है। गुलाबसिंह भी आज अपने घर की सफाई और सजावट के लिए 12 बजे तक बगीचे में सफाई करके व पानी वगैरा देकर चला गया और शाम को फिर छः- सात बजे तक घर के मुख्य द्वार पर फूलों की माला व कमरे में ताजे फूलों के गुलदस्ते सजाने आयेगा। उस समय रंगीन बल्बों की लड़ियों से जगमगाते बगीचे के पेड़ों और झाड़ियों को देखकर गुलाब सिंह के चेहरे की चमक, उसकी खुशी को वह देखना चाहती है। गुलाब सिंह को उस खुशी के रूप में मानो वह दीपावली का तोहफा देना चाहती है। लीक से हट कर ऐसा तोहफा, जो उस अनूठे इंसान के  तन-मन में उत्फुल्लता और सच्ची खुशी के दीप जला दे।            

शाम ठीक छः बजे गुलाब सिंह फूलों की मालाओं के साथ हाजर हो गया। फूलों और मालाओं से घर को सजाते-सजाते  एक घन्टे  से  ऊपर बीत गया। जैसे ही अँधेरा घिरना शुरू हुआ,  मैंने लड़ियों के दोनों स्विच दबा दिए। सारा घर और घर के साथ बगीचा भी झिलमिल लड़ियों से झलमला उठा। गुलाब सिंह तो अपने प्यारे बगीचे को यूँ चकमक, लकदक खूबसूरती से भरा देख, हक्का बक्का सा रह गया। उससे  खुशी के  मारे न  हँसते  बन पड़ा, न  ही कुछ  बोल उसके मुँह से निकले। बौराया सा बगीचे में इस पड़ से उस पेड़, इस क्यारी से उस क्यारी के पास, उस जगमग सौन्दर्य को निहारता घूमता रहा। किन्तु वह अपनी ओर से कुछ अजूबा न करे, भला ऐसा कैसे हो सकता था? अपने साथ लाए, मालाओं के थैले में से उसने दिए, बत्ती और सरसों के तेल की शीशी निकाली और हर क्यारी व पेड़ के पास एक-एक दिया रखकर, एक जलती हुई मोमबत्ती से उन्हें दीपित कर, बगीचे की साज सज्जा को चौगुना करने में तल्लीन हो गया। हाथ जोड़े खुशी से भरा, मेरे पास आकर, मेरे पैरों को श्रद्धा से छूता हुआ बोला -

"दीदी जी, आपने तो बगिया को दुल्हिन जैसा सजा दिया। क्या सुन्दर दिख रही है बगिया ! बस एक दो फोटू खिंच जाते तो, सदा के लिए याद रह जाती। मुझे उसका सुझाव भा गया।मैंने एक-दो नहीं, बल्कि उसकी कई सारी फोटो बगीचे में खींच डाली। उसके बाद से तो फोटो का विचार ऐसा उसके मन में ऐसा घर कर गया कि वह जब-तब फूल खिलने पर, फल आने पर वह अपनी फोटो खिंचवाता।

जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी थी। मैं शॉल में लिपटी किसी काम से बाहर आई तो क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक पेड़ के नीचे बैठा रो रहा है खामोश गर्दन झुकाए, आँसू पोंछता, सुबकता, सबसे बेखबर कपड़े से मुँह ढके, चुपचुप रोए जा रहा है। मैंने तुरन्त, उसके पास पहुँच कर, प्यार से पूछा - "क्या बात है गुलाब सिंह? घर में सब ठीक तो है?"

वह चौंकता हुआ, धीरे से बोला - "जी हाँ दीदी।"

"तो फिर रो क्यों रहे हो?" -  मैंने पूछा।

पहले तो खामोश रहा, फिर अपने को सम्हालते हुए, आसूँ छिपाते हुए बोला - "दीदी जी, बगीचे में तीन पौधे मर गए है। हमने तो पूरी तरह उनकी देखभाल की थी, पर पाले ने उन्हें मार डाला।"

मैं इधर उधर नजर दौड़ाती बोली -"कहाँ है, कौन से पौधे ? दिखाओ तो !"

तो जवाब में मुँह लटकाए वह बोला - "उन्हें तो हमने दफना भी दिया। हम उन्हें उखाड़कर कूड़े कचरे की तरह नहीं फेंकते । जहाँ मिट्टी में उन्हें दबाया है, अब वहाँ कुछ दिन बाद, हम नई पौध लगायेंगे। जब तक वहाँ नए पौधे नहीं जम जायेंगे, तब तक हमें कल नहीं पड़ेगी।"

मैंने एक गहरी निश्वास के साथ गुलाब सिंह को समझाने का प्रयास किया कि वह इस तरह रो-रो कर दुखी न होए। ऐसे रोने से मरे हुए पौधे ज़िन्दा थोड़े ही हो जायेंगे! धैर्य रखे और खिले फूल, हरे-भरे पौधों  में अपना ध्यान बटाये। फिर भी उसकी उदासी नहीं गई। वह मेरे कहने से भारी कदमों से खुरपी हाथ में लिए उठा और क्यारियों की निराई करने लगा। मैं पोर्च की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सोचने लगी कि यह गुलाब सिंह भी सच में अनोखा ही व्यक्तित्व है, बड़ा ही भला और प्यारा इंसान है। माली तो बहुतेरे मिले, पर गुलाबसिंह जैसा न तो कभी मिला और न  ही भविष्य में कहीं मिलेगा। तन, मन से प्रकृति को समर्पित ! उसके आँसू, उसकी मुस्कान, उसकी उदासी, उसकी खुशी सब इन पेड़ पौधों और फूलों में समायी है। उसकी तो दुनिया इन्हीं में बसी है। कोई पौधा मर जाता है या सूख जाता है तो मिनटों में उसकी दुनिया उजड़ी, उखड़ी हो जाती है। वाह रे, भोले, सरल मनस गुलाब सिंह,  तू धन्य है, महान है ! मानवता का जीता जागता रूप है, प्यार की प्रतिमूर्ति है,प्रकृति के प्रति समर्पण की प्रतिकृति है, इसके प्रति अनूठे लगाव का प्रतिरूप है !

 *              *             *               *             

भीषण गर्मी ने बड़ी क्रूरता से समूची सृष्टि के मानो प्राण ही खींच लिए थे। पंछी बेजान से तपती दोपहरी में अपने घोंसलों में मुँह डाले पड़े थे। निरीह पशु बेसुध से जगह-जगह पेड़ों की, घरों की छाँह में दयनीय से बैठे थे। हरी, रेशमी घास, गर्मी की तपिश से सूखी और बदरंग नजर आने लगी थी। सभी बौराए से लगते थे। अगर नहीं बौराया था, तो वह था- फलों का राजा ‘आम’। अमराईयाँ रसीले, पके आमों से लदी पड़ी थीं। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने सोचा इस भरी दोपहर में, 1.30 पर, जब गर्मी अपने चरम पर होती है, कौन आया होगा? भला यह भी कोई आने का समय है ! न जाने कौन सिरफिरा है - मन ही मन खीझते हुए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो पाया कि गुलाब सिंह फलों की टोकरी में बनारसी और दशहरी आमों की सौगात लिए  मुस्कुराता, पसीने में  तरबतर खड़ा है। मैंने आव देखा न ताव और मैं उस पर बरस   बुरी  तरह  बरस पड़ी -

"तुम्हें इस दोपहरी में भी चैन नहीं है? दो पल आराम के तुम्हें बुरे लगते है? लू लग गई, ताप हो गया तो, हम सबका चैन हराम करके ही तुम्हें सुकून मिलेगा क्या?" मेरे ये ख्याल और प्यार से भरे ‘तिक्त’ शब्द सुनकर शान्त भाव को ओढ़े, बिना शिकन डाले, वह बड़ी सहजता से बोला -

"दीदी जी, आज ही ये आम पक कर तैयार हुए है, तो पहला भोग भगवान को लगाकर, सीधे आपके पास लेकर आए है। हम इन्हें पानी में भिगो देते है। 1-2 घन्टे बाद आप इन्हें फ्रिज में रख देना। वरना ऐसे ही खा लिए तो गर्मी कर जायेंगे।"

मैं फिर तड़की - "अरे, हमारी गर्मी का तो तुम्हें पूरा ख्याल है, कुछ अपना भी ध्यान कर लिया करो, तुम्हें गर्मी लग गई तो ये आम, बाग - बगीचा, सब  आठ-आठ आँसू रोयेंगे ! क्या समझे ?"   किन्तु वह  खामोश, गर्दन झुकाए, मुस्कुराता काम में लगा रहा ।

फिर मैंने प्रश्न सूचक दृष्टि से उसे देखते हुए पूछा -

"इस कड़कती गर्मी में कौन से मन्दिर में भगवान को भोग लगाकर आ रहे हो ? जाने के लिए ये ही समय मिला था ? सुधर जाओ गुलाब सिंह, सुधर जाओ !"

मेरे यह पूछने पर जो उसने जवाब दिया, उसे सुनकर तो मैं ऐसी निरुत्तर हुई कि मैंने तौबा कर ली कि इस महारथी महानात्मा से अब कभी कुछ न कहूँगी। इसके साथ कोई डाँट फटकार नहीं करूँगी।

इसके  सोच, इसके  मूल्य, इसके  क्रिया कलाप, सच  में, आम  लोगों  से थोड़े नहीं, बल्कि  बहुत हटकर  है।  गुलाब सिंह  उस  चिलचिलाती गर्मी में, मेरे घर से कुछ दूरी पर बने हुए उस छोटे से  ‘अनाथ आश्रम’ में गया था, जहाँ 100 के लगभग बच्चे रहते हैं।

उन्हें बगीचे के  पके आमों का पहला  भोग  लगाकर वह मानो उन अनाथ बच्चों के रूप में,भगवान को  भोग लगाकर आया था। माँ- बाप के  प्यार से वंचित बच्चों को,उनकी इस उम्र में जब, उन्हें अच्छी-अच्छी स्वास्थ्यवर्द्धक  चीजें मिलनी  चाहिए, बल्कि यदि देखा जाए तो यही वह उम्र है; जब बच्चों को तरह-तरह की चीजे खाने का चाव होता है, तो ऐसे अनाथ बच्चों को, हर मौसम के फलों का पहला भोग लगाना, दान करना, गुलाब सिंह अपना नैतिक कर्त्तव्य समझता था। उसके अनुसार बगीचे के फल खाकर, वे मासूम-अनाथ बच्चे तो  तृप्त होते ही है, साथ ही फलदाता पेड़-पौधे  भी मानों खुश और प्रफुल्लित होते है और गुलाब सिंह के अनुसार ऐसे दान से ही वे वृक्ष दिन दूने और रात चौगुने फलते- फूलते है।  ‘गरीब व दीन की सेवा,  उनसे प्यार - भगवान  की  सेवा  और  भगवान से प्यार होता है ’-इस जगत् प्रसिद्ध आस्था को गुलाब सिंह  ने  सिद्धंात बना कर मात्र  दिल में ही नहीं  सँजों रखा था, अपितु उसे चरितार्थ भी  करता  था।   भावो  और  सम्वेदनाओं  से  सम्पन्न  मैं  तो गुलाब सिंह की  सोच,  उसके  दर्शन,  उसके उदार  नजरिए,  उच्च  मूल्यों   से  इतनी  अधिक  अभिभूत   हुई   कि   उस   दिन  से   मैंने  किसी  पर  भी अमीर- गरीब,  छोटे - बड़े, शिक्षित - अशिक्षित, परिपक्व-अपरिपक्व  की मुहर लगाना छोड दिया। उन्हें  वर्गीकृत  करना छोड दिया। मात्र किताबे पढ लेने से, डिग्रियाँ  हासिल कर  लेने से किसी की समझ  और सोच जाग्रत  नहीं होती।  पूंजीपति होते हुए भी व्यक्ति, अनुदार  और निर्बुद्धि होने के कारण  गरीब  माना  जा  सकता है । सच्चाई  और अच्छाई,  उदात्तता, समझदारी, दूरदृष्टि,  बुद्धिमत्ता  और  शिक्षा -  धन  और  किताबी  ज्ञान की मोहताज नहीं  होती । गुलाब सिंह  इस सत्य का जीता जागता रूप था। जीवन में सब कुछ  पा लेने पर भी, सारी कामनाएँ पूर्ण  करने पर भी, अतृप्त रहने वाले, "और पाने की"  लालसा  में  विघटित मूल्यों वालों के लिए गुलाब सिंह एक करारा  जवाब  था। समाज  के  लिए  कुछ  भी  न  कर पाने  की विवशता  जताने वालों  के लिए एक ठोस उदाहरण था। अनुदार  अमीरों  को लज्जित करने  वाली  उदारता  था । पेड़ - पौधों, पशु - पक्षी  और जरूरतमन्दों का ममता  और प्यार  से  भरा भगवान था। मनुष्यता की, इंसानियत की अनूठी मिसाल  था। यदि समाज में  हर  दूसरा  आदमी गुलाब सिंह  हो  जाए  तो सच  में  धरती पर स्वर्ग उतर आए । उदात्त मानव मूल्यों को समर्पित!!

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