ग्रह दोष 

डॉ. पद्मावती (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

शुरुआत यूँ हुई जब हमें भी रोग लगा अपने ग्रहों की चाल सीधी करने का। 

वैसे हमें कोई शौक़ तो है नहीं किसी भले आदमी पर किसी प्रकार का आक्षेप कसने का लेकिन दरअसल जब भी हम किसी परिचित को अपनी उँगली में जड़े पत्थरों की महिमा का बखान करते देखते थे तो हमारा रोम-रोम हिकारत से भड़क उठता था और आदतन कभी-कभी या बस यूँ समझिए अधिकतर हम इस विषय में उन पर छींटाकशी कर ही डालते थे। हर आते-जाते को कर्मयोग का ज्ञान बिना पूछे बाँटना हम अपना लोकतांत्रिक अधिकार मान कर चलते थे । और हमारा औदार्य देखिए हमने कभी भी किसी से परामर्श शुल्क भी वसूल नहीं किया था। भाग्यवाद और नियतिवाद की बखिया खड़ी कर देने में हम कभी पीछे नहीं हटते थे। कर्म योग के सिद्धांत को हमने घुट्टी में घोल कर पी लिया था। इस पर हमारी धारणा पत्थर पर लकीर जितनी दृढ़ थी। ऐसा नहीं है कि हम ज्योतिष सिद्धांत को ग़लत ठहराते हैं, नहीं-नहीं, बिल्कुल नहीं, हमारी गहरी आस्था है ज्योतिष शास्त्र में लेकिन इन तथाकथित गूगल के ज्ञानियों से हमारी पटती नहीं थी। इनका ज्ञान हमेशा हमारे संदेह के घेरे में ही रहा था। अपने को इन आधुनिक अंतरजाली ज्योतिषों के चक्कर से हमेशा बचा कर चलते थे। अब तक जीवन की दुसाध्य स्थितियों में भी हमने कभी इनकी शरण नहीं ली थी। लेकिन हाय! भाग्य! ना ना। दुर्भाग्य। हम भी फँसे और बुरे फँसे। आख़िर नियति का ही खेल मानिए। वरना हम तो अपने को बहुत बुद्धिशील, विवेकशील और न जाने क्या-क्या शील मानते थे लेकिन सब शालीनता मिट्टी के सुपुर्द हो गई और हम जैसा प्रबुद्ध और महाज्ञानी भी इस दलदल में फँस गया जब हम चले अपने ही हाथों अपना भाग्य बदलने। 

आइए आपबीती अब आपको सुनाते है। 

वे भी क्या दिन थे . . . जो माँगा मिल जाता था . . . ये भी क्या दिन हैं . . . सब कुछ छिन जा रहा था। तो हुआ यूँ कि हमारी चिरस्थाई नौकरी भी ख़तरे में पड़ गई थी। कभी भी उखड़ सकती थी। हर जगह लेऑफ़ का कार्यक्रम चल रहा था। नई नौकरी मिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी। हर दिशा में मंदी और हताशा ही दिख रही थी । लेकिन हमको तो विशेष रूप से दो मंदियों ने परेशान कर रखा था। वे थी काम मंदी और श्रम मंदी। अब आप कहें यह काम मंदी और श्रम मंदी क्या चीज़ है? तो सुनिए, फिर से आदतन ज्ञान दे रहे हैं बिल्कुल फ़्री . . . काम की अनुपस्थिति और निठल्लापन! बिना काम-धाम के बैठे रहना और भविष्य की चिंता में डूबे रहने का अभिनय करना। पहला ईश्वर प्रदत्त था दूसरा उसका परिणाम स्वरूप ‘वरदान’। 

पहले काम ही काम होता था, खाना तो दूर साँस लेने तक की फ़ुरसत नहीं होती थी। और अब यह हाल है कि फ़ुरसत ही फ़ुरसत। और तो और श्रम मंदी ने तो ऐसा चक्कर चलाया कि पहले दो बार खाते थे अब चार बार खाकर भी भूख बनी रहती है। अब बिना काम-धाम के निठल्ले बैठे निराश और हताश आदमी को भला भूख नहीं सताएगी तो और कौन सताएगा? हर जगह कटौती हो रही थी। कहीं कोई आशा नज़र नहीं आ रही थी लेकिन फिर भी इस निराशाजनक वातावरण में अगर कहीं कोई आशा की किरण स्वरूप वृद्धि नज़र में आ भी रही थी तो वह केवल हमारे भार में। पहले पचास थे अब पचपन हो गए जो आशावादी संकेत तो थे लेकिन हम अवसाद में जा रहे थे। 

तो मित्रों से सलाह मशवरा किया गया। उपाय पूछे, सुझाव लिए, विचार विमर्श किए, चाय पर चर्चाएँ बुलाईं गई। कुछ श्रेयोभिलाषियों ने घर बदल देने की सलाह दी जो हमें जँची नहीं। कुछ समझदारों ने और भी बहुत कुछ बदल देने की सलाह दी। यहाँ तक कि ‘रंग सिद्धांत’ का हवाला देते हुए हमें यह समझाने की भी नाकाम कोशिश की गई हमारे कच्छे बनियान के काले सफ़ेद रंग ही हमारे दुर्भाग्य का कारण बन रहे हैं सो उन्हें तत्काल बदल दिया जाना चाहिए। लेकिन हमारी मंद बुद्धि ने उसे भी अस्वीकार कर दिया। फिर अंततः हारकर एक परम ज्ञानी मित्र ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा कि हो न हो यह ग्रह दोष ही है वरना इतनी पक्की नौकरी कैसे जड़ समेत उखड़ सकती है। ग्रहों को खुश करने में ही भलाई है। जल में रहते मगर से बैर बुद्धिमानी नहीं।

पता नहीं यह बात कैसे असर कर गई। इन बातों पर विश्वास न होते हुए भी विश्वास गहराता चला गया। कर्मवाद से भाग्यवाद पर हमारे मन का प्रत्यावर्तन शनैः शनैः होने लगा था। हम ओखली में सर देने के लिए उतावले हो रहे थे। अब कौन वह महापुरुष थे जो हमारी तक़दीर बदलने में हमारी सहायता कर सकते हैं? कहाँ जाएँ? कैसे उन्हें पहचानें? कहाँ ढूँढ़ें? मन क्रंदन करने लगा, "तू छुपा है कहाँ . . . मैं तड़पता यहाँ"!

ज्ञानियों ने कहा, "पागल मत बनो, फोन उठाओ, गूगल पर जाओ, समस्या से छुटकारा पाओ"। 

फिर क्या था, फटाफट फोन उठाया गूगल पर पहुँचे, भुगतान किया और पंडित जी की लाइन लग गई। हम हैरान! अवाक! इतनी जल्दी तो घर में माँगने से पानी भी नहीं मिलता। यहाँ सब यंत्रचालित हो रहा था। क़िस्मत साथ दे रही थी और बदलने के आसार भी नज़र आ रहे थे। वहाँ से आवाज़ आयी, "कहिए मैं कृष्णकांत शर्मा, आपकी क्या समस्या है?"

हमने झट से कहा, "पंडित जी बस समस्या ही समस्या है।" और जब तक हम अपनी समस्या की प्रस्तावना समाप्त कर विषय वस्तु की ओर बढ़ते, उधर से आवाज़ आई, "देखिए महाशय, आपने केवल तीन मिनटों का ही भुगतान किया है। दो मिनट हो चुके हैं। अभी तक आपने अपना नाम और जानकारी नहीं दी। किसी भी वक़्त आपका समय ख़त्म हो सकता है। हमें आप केवल अपना नाम, जन्म स्थान और तिथि बताने का कष्ट करें। बाक़ी हम तो अंतर्यामी हैं ही सब जान लेंगे।"

सब जानकारी दे दी गई तो हमें निर्देश दिया गया कि अगले चौबीस घंटों तक हमें हमारे भविष्य का दिग्दर्शन करा दिया जाएगा। 

बड़ी मुश्किल में बीते अगले चौबीस घंटे। हम आतुर हो रहे थे। कर्म योग को कोस रहे थे। सारा ज्ञान छूमंतर हो गया था। प्रातः काल उठ गए थे। व्यायाम से घबराने वाला हृदय आज सवेरे-सवेरे सैर को निकल पड़ा। आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहा था। भाग्य बदलने के आसार साफ़ दिखाई दे रहे थे 

दस आख़िर बज ही गए। हमने फोन को माथे से छुआ और फिर तीन मिनट का समय ख़रीदा क्योंकि उससे ज़्यादा समय ख़रीदने की हमारी औक़ात नहीं थी। वही तो बदलने का प्रयास किया जा रहा था।

ख़ैर आवाज़ आई, "देखिए मैं रमा कांत शर्मा बोल रहा हूँ, बताइए।" 

हम सकपका गए। ये क्या हुआ? सर मुँडाते ही ओले! ग़लत नम्बर। 

"नहीं, नहीं हमें कृष्णकांत जी से बात करनी है, कल उनसे ही बात हुई थी," हमने घबराते हुए कहा। 

"जी देखिए हमेशा एक ही व्यक्ति आपको नहीं मिल सकता, वैसे भी हम ‘नाम अनेक रूप एक’ हैं, आपका चार्ट हमारे सामने है। मैं आपको सब बता दूँगा। देखिए नक्षत्रों की दिशा तो ठीक है लेकिन ग्रह एक दूसरे को विपरीत दृष्टि से देख रहे है। संकट का परिहार पूजा विधान है।" 

हमने झट से कहा, "जी पंडित जी यही समस्या है पर आप . . . "

"देखिए अब आप ज़्यादा कुछ मत बोलिए। समय बर्बाद हो जाएगा। पहले ही आपने तीन मिनट ही ख़रीदे हैं। सो हमारी सुनिए। 

"पहली बात आज से आप काले रंग का परित्याग कर देंगे। काला वस्त्र काला अन्न नहीं छूएँगे। 

"दूसरी बात . . . ग्रहों को ख़ुश करना होगा। देवों का पूजा विधान है जो करना होगा। हम आपको सब सामग्री भेज देंगे। घर में देव प्रतिमा की प्रतिष्ठा करनी होगी। बाक़ी सब पूजा विधान हम फोन पर बता देंगे तो आप को किसी प्रकार के कोई संशय और डर की आवश्यकता नहीं है। आप केवल भुगतान कर दीजिए। पार्सल आपको पहुँच जाएगा।" 

"और पंडित जी कितनी राशि होगी पूरी सामग्री की?" हमारी आवाज़ सूखे पत्ते की तरह लड़खड़ा रही थी।रक्त चाप बढ़ रहा था। 

"देखिए आपकी पूजा और परिहार के लिए तो दस हज़ार की सामग्री का पैकेज है, जिसमें रुद्राक्ष की माला, देव प्रतिमा और एक वास्तु यंत्र भेजा जाएगा; जिसे एक बार प्रतिष्ठित करते ही सब समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। आपकी सब मुश्किलें दूर हो जाएँगी और धन प्राप्ति के सब अवरोध नष्ट हो जाएँगे। आपको गूगल लिंक भेज दिया जाएगा। सो शीघ्र भुगतान कर दीजिए। 

"और सुनिए तीसरी बात आप नित्य पक्षियों को दाना डालेंगे। क्योंकि गृह कलह की संभावना है जो पक्षियों को दाना डालने से कट जाती है।"

सामने बैठी अर्धांगिनी का मुँह ग़ुस्से से तमतमा रहा था। वे खा जाने वाली नज़रों से हमें घूर रही थी। 

हम अचंभित! उछल कर कहा, "वाह पंडित जी आप तो सचमुच अंतर्यामी हैं, कलह के आसार दिखने शुरू हो गए हैं।"

"ठीक है आप भुगतान कर दीजिए तो प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जाएगी," पंडित जी ने अपनी वाणी को विराम दिया। 

वहाँ फोन कट गया। यहाँ हमारे प्राण सूख गए। मरता क्या न करता। भुगतान हुआ। प्राप्ति की सूचना भी मिली। अब प्रतीक्षा थी पार्सल की। 

वो दिन भी आ गया। फिर भुगतान किया। ‘तीन मिनट’ . . . ये तीन मिनट दुर्भाग्य के आख़िरी तीन मिनट थे, क़िस्मत खुलने जा रही थी। 

आवाज़ आई, "देखिए, मैं सूर कांत शर्मा बोल रहा हूँ।" 

हमने कहा, "आप जो भी हो, हमारी पूजा तो आप ही करवाएँगे न।" 

"जी हाँ। हमें सब जानकारी है। आप अब पूजा गृह में आसन जमा कर बैठ जाएँ। आप यह फोन काट कर भेजे हुए लिंक पर जाएँ। लिंक और सामग्री को खोल लें और जैसा मैं कहता जाऊँ, आप पालन करते जाइए। कोई विघ्न न हो इसका पूरा ध्यान रखिएगा। पूजा एक बारी में ही समाप्त होनी है।" 

हमने हामी भरी और सायास श्रद्धा जगाकर पूरब की दिशा में बैठ गए तथा यंत्रवत निर्देशानुसार पूजा करने लगे। 

प्रतिमा की प्रतिष्ठा की गई, गले में रुद्राक्ष की माला धारण करवा दी गई और हम बैठे ध्यान आसन में। अच्छे ख़ासे योगी अनुभूत कर रहे थे। 

मोबाइल पूजा आरंभ हुई। पंडित जी मंत्रोचारण कर रहे थे। कुछ देर तक सब ठीक चलता रहा। 

अब हमसे कहा गया कि देव ध्यान कर वह सब माँग लीजिए जिसकी आपको अपेक्षा है। 

फिर क्या था! हम हवाई क़िले बनाते हुए कल्पना की उड़ान में विचरने लगे। अरे भाई! अब उड़न खटोले के दिन तो रहे नहीं ना . . . अब तो गाड़ियों का ज़माना है . . . तो हमारी कल्पना में बड़ी सी गाड़ी आ गई जिसका दरवाज़ा हम खोलने ही वाले थे कि हमें पंडित जी की खड़खड़ाती आवाज़ सुनाई दी . . .

"ज़रा देखिए आप अपना मोबाईल चार्ज कर लीजिएगा क्योंकि पूजा अभी लंबी चलेगी।" 

हमने कहा, "हम प्लग पॉइंट के निकट ही बैठे हैं पंडित जी। आप आगे बढ़िए।" 

हम भी सपनों में अपने सुनहरे भविष्य को देखने लगे। प्यारा एक बंगला, लम्बी सी गाड़ी, और गाड़ी में हमारे साथ सजनी . . . सजनी का नाम आते ही हमारे आँखों के सामने हमारी अर्धांगिनी की कोपाविष्ट सूरत ध्यान में आ गई जो इस समय मुँह फुलाए रौद्र रूप धारण किए उत्तर की दिशा में बैठीं थीं। आजकल इन अनावश्यक खर्चों को लेकर हमारी अनबन चल रही थी और बातचीत बंद थी। हम कल्पना में फूलों का गुलदस्ता लिए जा ही रहे थे श्रीमती जी को देने लेकिन फिर धक्का लगा, पंडित जी की आवाज़ ने फिर सपना तोड़ा। 

"देखिए, देवता का आह्वान और उनकी पूजा हो चुकी है। पहला भाग समाप्त हुआ। अब ग्रहों का आह्वान करना है। पूजा करनी है। आप पहले भाग की पूजा के लिए 5001 भुगतान कर दें तो फिर अगली पूजा जारी रखेंगे।"

अब तो ज़ोर का झटका ज़ोरों से ही लगा। हम तैयार नहीं थे। हमने अनुनय करते हुए कहा, "पंडित जी आप पूजा पूरी कर दीजिए। हम भुगतान कल कर देंगे। आज राशि खाते में कम है।"

"जी नहीं, यह हमारे नियमों के विरुद्ध है। जब तक भुगतान नही, पूजा नहीं।"

"तो ग्रहों का क्या होगा पंडित जी?"

पंडित जी बोले, "कोई बात नहीं, उन्हें कल ही ख़ुश कर लेंगे। आप बस कल भुगतान कर दें।" 

फोन कट गया। हमारे ग्रह अटक गए। 

अगले दिन भुगतान हुआ, पूजा संपन्न हुई, ग्रहों को ख़ुश किया गया, देवताओं और ग्रहों की राजी ख़ुशी स्व स्थान वापसी भी हुई।

अब केवल प्रतीक्षा शेष है। आज तक हम अपनी गाड़ी और बंगले को सपनों में ही देख रहे हैं। ख़ुश हो रहे है और गा रहे हैं . . . 

"प्यारा एक बंगला हो, बंगले में गाड़ी हो, गाड़ी में मेरे संग . . . अब रहने भी दो न यारो . . . जो भी हो . . .! 

(कहानी में लेखिका के व्यक्तिगत विचार हैं। किसी पर आक्षेप नहीं है। अगर किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचती है तो क्षमाप्रार्थी हैं।) 


 

3 टिप्पणियाँ

  • उम्दा हास्य व्यंग्य

  • 3 Jul, 2021 11:20 AM

    बहुत खूब, व्यंग्यात्मक ढंग से ठगने वालों का पर्दाफाश और हां यह भी सच है कि हालातों से मजबूर व्यक्ति ऐसे जाल में फंस जाते है पर मुझे यकीन है कि इसे पढ़ने के बाद कोई ऐसी गलती नही करेगा । अपने अनुभव को बताकर हमें सतर्क करने के लिए आपको बहुत धन्यवाद । ऐसे रुचिकर विषयों के चयन और उसके अंतर्निहित मानसिकता को उजागर करने की आपकी कला को सलाम और शुभकामनाएं ।

  • डॉ पदमावती जी लीक से हटकर आपने लिखा है ग्रहदोष आज इतने सारे चैनल है जहाँ भोली भारी दुखांत व्यथित समस्याग्रस्त जनता के ग्रहदोष के निवारण के लिए उनकी आस्था के साथ सरेआम खिलवाड़ किया जाता है ठगी की जाती है। जो पाई पाई को मोहताज हो उसे सबजबाग दिखाए जाते हैं। आपने ऐसे लोगो को आईना दिखाया है बधाई। हमे अच्छे कर्म करने चाहिए देर सवेरा हमे उसका फल मिलता है।धैर्य और संयम से काम लेना चाहिए। शुद्ध और शीतल जल पीने के लिएकुँआ गहरा ही खोदने पडता है। जल जमी से खुद ब खुद नही निकल आता।

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