गोपेश कुमार – 001

15-06-2021

गोपेश कुमार – 001

गोपेश शुक्ल (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

हे माँ वीणा वादिनी, करो नमन स्वीकार।
ज्ञान-विज्ञान से जननी, भर दो सब भंडार॥ ०१
 
नारी तू नारायणी, आदि शक्ति का रूप।
प्रेम दया बलिदान का, शुभ सजीव प्रतिरूप॥ ०२
 
मुझसे पूछे आइना, कहा गया वह रूप।
मैने कहा जला गई, चिंताओं की धूप॥ ०३
 
छोड़ा था जिस मोड़ पर, प्रियवर तुमने हाथ।
छूट गया था बस वहीं, ख़ुशियों से भी साथ॥ ०४
 
ममता, प्रेम, दुलार का, चुका रहे हैं ब्याज।
बाँट रहें हैं लाडले, मात-पिता को आज॥ ०५
 
कच्चे धागे से बहन, बाँधे पक्की प्रीत।
कहे वीर मत तोड़ना, राखी की तुम रीत॥ ०६
 
बूढ़ी माता रो रही, बेबस बैठा बाप।
लड़कर बेटे ले रहें, घर-आँगन का माप॥ ०७
 
शुद्ध व्याकरण पर कसी, भाषा है यह ख़ास।
विपुल संपदा शब्द की, है हिंदी के पास॥ ०८
 
पत्रकारिता कर रही, ख़बरों का व्यापार।
बेच रही हर बात को, बना मसालेदार॥ ०९
 
महुए की मीठी महक, अरु कोयल की कूक।
यादें बिछड़े गाँव की, रख ली है संदूक ॥ १०
 
मोती-सा महुआ झरे, महके सारा बाग़।
झूमे सरसों खेत में, गाये  पुरवा राग॥ ११
 
हरी-भरी धरती रहे, सजे खेत खलिहान।
अन्न मिले हर पेट को, चाहे यही किसान। १२
 
मेरी निश्छल प्रीति को, ख़ूब मिला उपहार।
जलने को यादें मिलीं, बुझने को अश्रु धार॥ १३
 
ख़ूब निभाया साथिया, तुमने सच्चा प्यार।
तोड़ी माला प्रेम की, पहना धन का हार॥ १४
 
करें कलंकित भक्ति को, मन के काले लोग।
घर में माँ भूखी रहे, दें मूरत को भोग। १५
 
पल-पल बदले पैंतरे, खेले मानव दाँव।
काटे ख़ुद उस पेड़ को, जिससे पाए छाँव॥ १६
 
चूल्हे जैसा है जगत, लकड़ी जैसे लोग।
चिन्ता-चिता पका रहीं, अपना-अपना भोग॥ १७
 
भरे-भरे शमसान हैं, सूने हैं बाज़ार।
देख हाथ बाँधे रहा, विधि भी है लाचार॥ १८
 
रोज़ी-रोटी छिन गई, बंद हुए व्यापार।
भारी पड़ी ग़रीब को, कोरोना की मार॥ १९
 
कड़वे अनुभव दे गया,सन दो हज़ार बीस।
पाठ वही दुहरा रहा, दो हज़ार इक्कीस॥ २०

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