गोद

डॉ. पद्मावती (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सवेरे सवेरे बालकनी में बैठ कर जैसे ही मीरा ने चाय का प्याला होंठों से लगाया, ताज़गी की झनझनाहट पूरे शरीर में फैल गई। मन मस्तिष्क तरोताज़ा हो गये। रात की सारी थकान फुर्र से उड़ गई। अभी सूरज पूरी तरह से उगा नहीं था, हल्की सी गुलाबी आसमान में फैली हुई थी। ठंडी हवा के झोंकों ने जैसे ही गालों को स्पर्श किया, मीरा को बहुत सुकून मिला। क्यों न मिले . . . बेचैन जो थी वह, आख़िर बहुत कुछ सहा था उसने। आज फिर चाय के साथ पुरानी यादें भी ताज़ा हो गईं।

जीवन के चालीस वसंत उसने देखे थे। तीन भाइयों की इकलौती बहन थी। धनाढ्य संपन्न,आदर्शवादी परिवार, पिता राम चरण शर्मा ने बेटी को कभी बेटों से कम नहीं माना। ख़ूब पढ़ाया-लिखाया। कभी किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होने दी। लेकिन आदर्शों को भी घुट्टी में मिला कर पिला दिया था कि पति ही नारी का परमेश्वर होता है और उसका घर यह नहीं, “वह” ही होगा। मीरा ने ख़ूब मन लगाकर पढ़ाई की थी। पी.एचडी. होते-होते उम्र भी ढलती चली गई। उसकी सरकारी नौकरी लग गई थी। अब विवाह का दबाव बढ़ने लगा। संस्कारी परिवार की खोज होने लगी और अंततः एक शुभ मुहूर्त में मीरा का विवाह राकेश द्विवेदी के साथ हो गया।

पति अच्छा कमाते थे। सास, श्वसुर, ननद से भरा पूरा परिवार था। मीरा को सभी ने पलकों पर बिठा कर रखा हुआ था। कमाने वाली बहू थी। गाढ़ी मोटी तनख़्वाह जो मिलती थी। ख़ैर, कुछ बरस सब ठीक चल रहा था। पहाड़ तो तब टूटा जब चार बरस बाद भी मीरा की संतान कोई नहीं हुई और डॉक्टरी परीक्षण से पता चला कि गर्भाशय के विकार कारण वह कभी माँ नहीं बन सकती थी। रोग निदान रहित था। कोई उपचार नहीं था।

मीरा के जीवन में अचानक सब कुछ बदल गया। परिवार के हर सदस्य की नज़र में वह गुनाहगार बन गई थी।

उसका दोष यही था कि इस संस्कारी परिवार को वह वारिस नहीं दे सकती थी।

मीरा ने राकेश को समझाने की जी जान से कोशिश की। आख़िर इस युग में भी ऐसे दक़ियानूसी विचार! 

“राकेश हम किसी को गोद भी तो ले सकते हैं।” 

“क्या बात करती हो मीरा, किसी गंदे ख़ून को गोद लेना? वह हमारा वारिस कैसे कहलाएगा?” राकेश ने लगभग चीख़ते हुए कहा था। 

राकेश का यह व्यवहार मीरा के लिए अप्रत्याशित था। वह असमंजस में थी कि क्या उपाय करे। अब राकेश भी उससे मुँह चुराने लगे थे। अपने ही घर में वह अजनबी हो गई थी। बिल्कुल अकेला और अवांछित महसूस कर रही थी। जब और कोई रास्ता नहीं रहा तो उसने दिल पर पत्थर रख कर अलग हो जाने का निर्णय ले लिया। पिता ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि यहाँ उसके लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि वे अब स्वयं भाइयों के टुकड़ों पर पल रहे हैं। उसके लिए अपना घर पराया हो गया था। कोई जगह नहीं थी जहाँ वह जा सके। सो स्थानांतरण करवाया... और यहाँ इस अनजान शहर में अपनी नई दुनिया बसाने के लिए आ गई थी। अब ये नौकरी और अकेलापन ही उसके जीवन के साथी थे। वह वापस मीरा शर्मा बन गई थी और इसी में ख़ुश रहना सीख रही थी। जीवन की एक परिक्रमा पूर्ण हुई।

सांकल के खटखटाने की तेज़ आवाज़ से मीरा की तंद्रा टूटी, इससे पहले वह वहाँ तक पहुँचती, दरवाज़ा ढकेलते हुए लछिमा अंदर घुसी। 

उसके साथ एक चार -पाँच बरस की नन्ही सी लड़की भी थी जिसे वह काम पर लाई थी।

लछिमा हर रोज़ बिना पूछे ही मीरा को पूरे मोहल्ले की खोज-ख़बर दे दिया करती थी .... मीरा सुने या न सुने, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था …. सब कुछ उगल देने के बाद ही उसे चैन आता था.. कुछ देर टाँगे पसार आराम फ़रमा कर फिर इधर-उधर की बातें बनाती और गरम चाय की चुस्कियाँ लेती थी! उसका यह डेली रूटीन था... 

ये तो मीरा का मौन स्वभाव था कि उसके कितना खोद-खोद कर पूछे जाने पर भी मीरा ने अपने बारे में उसे कुछ नहीं बताया था, वरना इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं थी कि लछिमा की वाक शक्ति मीरा को पूरे मोहल्ले में एक रोचक चरित्र बनाने में सक्षम थी ...... 

आज मीरा चुप न रह सकी और बच्ची को देखते हुए ही पूछा, “अरे लछिमा तेरी बच्चियाँ तो अभी बहुत छोटी हैं, ये किसको ले आयी?”

अपनी सहज शांत मुद्रा में लछिमा बोली, “बीबीजी पहले हम चाय बना लें फिर तो पीते-पीते सब सुना भी देंगे।”

चाय का प्याला मीरा को थमाने के बाद इत्मीनान से लछिमा बैठ गई और उसने बोलना शुरू किया। 

“बीबीजी आप तो जानती हो न कि मेरा मरद प्राइवेट क्लिनिक में पहरेदार है, तो एक रात एक माँ और बेटी आये थे उनके क्लिनिक में प्रसव करवाने के लिए। बेटी प्रसव की पीड़ा में थी, बच्ची हुई आधी रात को। दोनों आराम कर रहीं थीं। सुबह को जब मेरा मरद झाड़ू लगा रहा था तो कूड़ेदान में से बच्ची की रोने की आवाज़ सुनी! वो गया भागा-भागा; देखा क्या. . . नवजात बच्ची! अंदर लेकर भागा, माँ-बेटी दोनों ग़ायब! डाक्टर साहब को जगाया; उन्हें पूरा क़िस्सा समझ में आ गया, अब ये तो पुलिस केस होवे न बीबीजी, लेकिन मेरा मरदवा तो बिल्कुल अंजान, बच्ची को डॉक्टर से माँग कर घर ले आया। डॉक्टर ने भी आनाकानी नहीं की, लेकिन मेरे भी दुधमुँहाँ दो जुड़वाँ बच्चे, कहाँ तक मैं पालती! सो रिश्ते की बहन को सौंप दिया। अब पाँच साल बाद उसके मर्द ने उसे छोड़ दिया तो बच्ची वापस इधर भेज दी। पता नहीं किसका पाप है. . . लेकिन क्या करें बीबीजी, कहाँ भेजें, है तो इंसान की औलाद ही न . . . देखूँ का करे है ईश्वर!”

लछिमा की चाय और कहानी दोनों समाप्त हो गईं थीं। वह उठी और काम करने चली गई। नन्ही पास ही बैठी अपनी राम कहानी को ग़ौर से सुन रही थी। पता नहीं कुछ समझी या नहीं लेकिन उसकी मुख मुद्रा कुछ उदास सी हो गई थी।

मीरा को उस पर प्यार आया। उसने उसे पास बुलाया और उसे ध्यान से देखा – बड़ी-बड़ी काली आँखें, पतले होंठ, उठा हुआ माथा, उजला रंग, सचमुच परी जैसी दिख रही थी नन्ही। सब कुछ तो था, अगर कुछ नहीं था तो वह था भाग्य!

“लछिमा, टेबल पर बिस्कुट का पैकेट है; ज़रा ला दे, नन्ही को भूख लगी होगी,” मीरा ने चिल्ला कर कहा। 

“अगले बरस कोई अच्छा लड़का देखकर ब्याह देंगे,” बिस्कुट नन्ही को थमाते हुए लछिमा बोली।

“क्या?. . . पागल हो गई हो लछिमा… इतनी छोटी बच्ची का ब्याह? पाप नहीं लगेगा... अरे ईश्वर से तो डर. . .।”

‘वाह बीबीजी! बुरा मत मानियो। मैं आपकी बात नहीं कर रही हूँ लेकिन आप जैसे समझदार लोग अपने शरीर की गर्मी निकल जाने के बाद बच्चों को कूड़ेदान में फिंकवा दे तो पुण्य, और मैं उसका ब्याह करूँ तो पापी... कहाँ का नाय है तुम्हारे भगवान का?” 

मीरा की बोलती बंद हो गई। लछिमा चली गई। अनपढ़ होकर भी उसने कितनी गहरी बात कह दी थी।

सच ही तो था। मीरा का मन खिन्न हो उठा। वह असहज हो उठी थी। मन में कड़ुवाहट फैल गई थी। कुछ करने का मन नहीं हो रहा था। चाहकर भी नन्ही के विचार को वह झटक नहीं पा रही थी। पूरा दिन वह सिर्फ़ उसके बारे में ही सोचती रही। 

अगले कुछ दिनों में नन्ही उससे काफ़ी घुल मिल गई थी। कॉलेज से वापस आते ही नन्ही को अपने बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा पाती। वह इधर-उधर से कुछ कंकर पत्थर बीन कर ले आती और खेलते हुए मीरा का इंतज़ार करती रहती। मीरा ताला खोलती, दोनों अंदर आते, मीरा चाय बनाती, उसे कुछ खाने को देती फिर वह नहाने चली जाती। दोनों मिलकर आपस में खेलते, बतियाते, और फिर शाम को मीरा उसे किताब खोलकर पढ़ाती भी थी। यह मीरा की दिनचर्या बन गई थी। नन्ही से उसका लगाव बढ़ता ही जा रहा था। मीरा जानती थी कि अगले साल नन्ही चली जाएगी, उसका ब्याह हो जाएगा। ऐसे रिश्तों से क्या मोह जो निभाए न जा सकें लेकिन मातृत्व से वंचित मीरा . . . नन्ही में शायद अपनी संतान का सुख ढूँढ़ रही थी। एक रिश्ता जुड़ रहा था। एक मोह धीरे-धीरे अंतस में जन्म ले रहा था जिसमें मीरा न चाहते हुए भी बँध रही थी . . .

आज मीरा का मन बहुत अशांत हो चला था। नन्ही उसके जीवन का अभिन्न अंग हो गई थी। वह एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना चाहती थी। सोचने लगी . . . क्यों न नन्ही को ‘गोद’ ले लिया जाए . . . यह विचार उसके मनो-मस्तिष्क में उथल -पुथल मचाने लगा। माना बड़े-बड़े दान धर्म, पुण्य कर्म न किये हों, लेकिन किसी एक के जीवन को तो सँवारा जा सकता है, जो उसके सामने प्रत्यक्ष हो . . . 

पता नहीं लछिमा की क्या प्रतिक्रिया होगी? 

अगर उसने मना कर दिया तो? न जाने क्या समझ ले मुझे? 

लेकिन क्या यह बोझ वह उठा पायेगी? वह ख़ुद भी तो बेसहारा ही है। ऐसे कितने विचार मन में शोर मचा रहे थे . . . 

इसी बीच लछिमा और नन्ही ने घर के भीतर प्रवेश किया। उसको देखकर ही मीरा चमक उठी और बोली, “लछिमा! आज तू काम रहने दे! चाय बना! तुझसे कुछ कहना है!” 

चाय पीते मीरा ने बात छेड़ी, “लछिमा! तू नन्ही को किसी को गोद क्यों न दे देती? तेरा भी बोझ हल्का हो और उसे भी अच्छा परिवार मिल जाए।” 

“किसे दूँ बीबीजी?” 

“क्यों?. . . एक बात कहूँ? मैं तेरी मदद कर सकती हूँ। तुझे बता कितना पैसा चाहिए, मैं नन्ही को अपनाने को तैयार हूँ।”

लछिमा का मुँह खुला का खुला रह गया। किंचित अविश्वासी निगाहों से मीरा को कुछ देर ताकती रही और बोली, “बीबीजी हम ग़रीब ज़रूर हैं लेकिन बच्चों के बेचते नहीं न हैं। आप इसे गोद लेना चाहती है तो लीजिए लेकिन मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

मीरा सकपका गई और फिर सँभलते हुए बोली, “नहीं लछिमा! बुरा न मान . . . मैंने तो यूँ ही तुझे मनाने के लिए कहा था।

“दरअसल . . . तू ठीक कहती है . . . मैं तेरी भावनाओं की इज़्ज़त करती हूँ . . . तू अपने मरद से पूछ ले, उसका क्या विचार है इस बारे में। तो हम फिर क़ानूनी तौर पर सब कार्यवाही कर लेंगे। क्या कहती है तू?” 

“बस बीबीजी। आप तो ईश्वर का औतार हैं .. अरे! मैं पगली इसे अभागी मानती थी, बीबीजी, बच्ची का जीवन सँवर जाएगा, मैं अपने मरद को मना लूँगी। आप सचमुच देवी है! हाँ बीबीजी!” 

मीरा ने सब औपचारिकताओं की पूर्ति कर नन्ही को गोद ले लिया। अगले ही क्षण शहर के एक प्रसिद्ध आवासीय स्कूल में उसका नाम “किरन शर्मा” लिखवाकर उसे भरती करवा दिया था। वह कुछ वर्षों के लिए नन्ही को इस वातावरण से दूर भेजना चाहती थी ताकि जीवन की ये कड़वी यादें उसके ज़ेहन से पूरी तरह निकल जाएँ। 

आज नन्ही को भेजते मन उदास हो गया था। इसीलिए उसे झल्लाहट भी हो रही थी। लेकिन अचानक उसे ख़्याल आया, नन्ही का जाना ज़रूरी है। नये माहौल में वह कुछ तौर-तरीक़े भी सीख लेगी, अपने आपको भी बदल लेगी, और फिर डरना क्या ... कभी-कभी मीरा उससे मिलती भी रहेगी। नन्ही को कुछ वर्षों तक ही तो असल में सहारा चाहिए ... पढ़ लिखकर आत्म निर्भर हो गई तो अपने निर्णय ख़ुद ले सकती है, अपना जीवन उसे ख़ुद तय करना है, दुनिया को अपनी नज़रों से जानना है, पहचानना है और इस दौरान एक अभिभावक की भूमिका मीरा निभाएगी, उसे मोह पाश में न तो बाँधेगी, न ख़ुद बँधेगी। यही दोनों के लिए उचित होगा। उसे खुले आकाश में भेजना ही होगा, इस घुटे वातावरण से दूर ... जहाँ हर वक़्त उसके भाग्य और जन्म को कोसा जाता है … उसे अपना भाग्य ख़ुद लिखना होगा! 

मीरा शांत हो गई थी, मन का तूफ़ान जैसे थम गया हो। 

सब तैयारी हो गई थी। मीरा उसे कई हिदायतें दे रही थी, कैसे रहना है, क्या खाना है, किस तरह वह उससे मिलने के लिए आती रहेगी, और पता नहीं क्या क्या . . .। लेकिन नन्ही का ध्यान उसकी बातों से अलग कहीं और ही लगा हुआ था। नन्ही अपलक उसे ही देखे जा रही थी।

मीरा सहज भाव से बोली, "नन्ही मैं कितनी देर से सब समझा रही हूँ और तुम ध्यान तक नहीं दे रही हो, क्या सोच रही हो, क्या समझी तुम, क्या करोगी वहाँ . . . हाँ, कुछ समझ में आया?"

नन्ही ने प्यार से अपनी छोटी-छोटी बाँहें मीरा के गले में डाल दीं और उसकी आँखों में झाँकते हुए ज़ोर से बोली, "हाँ!"

"क्या...?"

"यही कि अब मैं तुम्हें बीबीजी नहीं, माँ कह सकती हूँ! ‘माँ’ . . ."
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
बाल साहित्य कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
चिन्तन
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो