गिरता पत्थर

01-02-2021

गिरता पत्थर

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

बहुत उँची पहाड़ों की ऊँचाईयों से, 
एक पत्थर जब अपने अस्तित्व से
टूटकर गिरता है तो उसकी
हैसियत जितना शोर होता है। 
जितना बड़ा पत्थर उतना बड़ा शोर!
शोर था कि कोई फूल कुचला गया 
शोर था कि एक चींटी मारी गयी
शोर था कि टूटकर लड़ने का 
शोर था कि अस्तित्व से बिछड़ने का 
वो कितना हद तक गिर चुका है? 
उसकी हैसियत क्या है! 
अपने गिरने का शोर 
समझ नहीं पाता, गिरता पत्थर।
 
पत्थर अब गिर चुका है नैतिकता से। 
सभी अपने हिसाब से मोल बढ़ाते हैं, 
गिरे हुए पत्थर को हीरा बताते हैं।
अब तो गिर चुका है, क्या करें!
पत्थर को ज़मीन से उठा के 
पत्थर को पत्थर पे ठोका जाता है 
उसे किसी रूप में तराशा जाता है
बेघर तुम नहीं समझोगे ख़ुद से 
ख़ुद पे मार कैसी होती है!
बिना स्वीकारे ही स्वीकृत बना
पत्थर का नया आकार बना।
अब पत्थर तैयार है बाज़ार में
बिकने को, कमाल है! 
अपने अस्तित्व से बिछड़कर भी 
दुनिया का अस्तित्व समझा नहीं,
गिरता पत्थर ।
 

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