......गिलहरी

26-10-2016

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने छुट्टी की घंटी बजने का मज़ा ही नहीं आता। ऑफ़िस से घंटी की ओर जा रहे स्कूल के पिऑन "सतवीर" पर आज सिर्फ़ मेरी ही नज़र पड़ी तो सबसे पहले स्कूल से बाहर निकलने का मज़ा भी मुझे ही आना चाहिए था और आया भी। घंटी बजने के बाद साथी बच्चों ने किताबें समेट कर अपने बस्ते उठाये तब तक मैं कक्षा से बाहर आ गया था और जब साथी बच्चे कक्षा से बाहर आये, मैं स्कूल से ही बाहर पहुँच चुका था। स्कूल से बाहर आते ही ख़ुद से फिर एक होड़ लग गयी कि आज मुझे घर भी सबसे पहले पहुँचना है। ये बात मन में आते ही दूसरे बच्चों के साथ चलने की रीत अपने-आप कहीं "हवा हो गई" और मेरे क़दम घर की तरफ़ जल्दी-जल्दी बढ़ने लगे।

जीत का भाव उतावलेपन और जोश को बढ़ाये जा रहा था। मन का जोश अपने साथ दो-चार नए विचार भी लाया। मुझे लगने लगा कि आज तो कुछ अधूरी इच्छाएँ भी पूरी कर सकता हूँ। सबसे पहले "सुन्दर" की बतायी बात याद आई, "अगर रेल की पटरी पर दस पैसे का सिक्का रख दें तो उसके ऊपर से रेल गुज़रते ही सिक्के की चुम्बक बन जाती है।" आज मैं भी बनाऊँगा चुम्बक। "सुन्दर" साथी बच्चों में सबसे ज़्यादा "वी-ज्ञान" की बातें जानता था। चौथी कक्षा के सबसे बड़े बच्चों में उसकी गिनती होती थी। "वी-ज्ञान" के नुस्ख़े उसके पास इतने थे कि कभी ख़त्म ही न हों। ये चुम्बक बनाने की विधि भी वही बताता, उसके सिवाय किसी को मालूम नहीं था। चुम्बक बनाने के लिए मुझे सबसे पहले तकिये के नीचे रखी खोटी "दस्सी" निकाल कर लानी थी। मुझे माँ की नींद का ध्यान रखना था वरना माँ के जागते तो दोपहर में घर से निकलना ही मुश्किल था। हालाँकि आज यह काम संभव लग रहा था क्योंकि दीदी तो स्कूल से बाक़ी लड़कियों के साथ काफ़ी देर बाद आएगी और मैं माँ को जगाऊँगा नहीं। अब एक ही बात का डर था कि दादी जाग न रही हों। दादी जाग रही हों तो उनका मुझसे बोलना लाज़िमी था और बातें सुनकर माँ की नींद खुलनी भी तय थी। सोचते-सोचते मैं घर के नज़दीक पहुँच गया। घर के पिछवाड़े खिड़की पर मेरी नज़र जमी हुई थी जहाँ दादी दोपहर में हवा के लिए बैठा करती थीं। खिड़की के पास दादी दिखाई नहीं दी इसका साफ़ मतलब था कि बिजली बोर्ड की मेहरबानी से पंखा चल रहा है और दादी सो रही हैं।

इन्हीं विचारों के साथ चलते-चलते मैं घर की दहलीज़ तक पहुँच गया। स्कूली बस्ता बग़ल से निकालकर बाँहों में भींच लिया और जल्दी से घर का बाहरी प्रांगण पार कर भीतरी आँगन तक आ गया। दबे पाँव आँगन पार कर कमरे में घुसा, माँ सो रही थी। मैंने बस्ता अपनी चारपाई पर रखा, तकिये के नीचे से "दस्सी" उठायी और वापिस मुड़ गया। पहले की तरह दबे पाँव आँगन पार किया और जल्दी से बाहरी प्रांगण पार कर घर से बाहर निकल गया। अब मुझे सबसे पहले गाँव के एकदम नज़दीक "सुन्दर" के खेत में पहुँचना था। "सुन्दर" स्कूल से सीधा खेत में ही आता था। उसने खेत में बबूल के पेड़ पर चारपाई बाँधकर एक मचान बना रखा था। गर्मी के दिनों में मचान पर बबूल की छाँव और हवा का ज़ोरदार संगम होता था। स्कूल की छुट्टी के बाद घर से खाना खाकर बहुत सारे बच्चे वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। अचानक मुझे याद आया कि जल्दी के चक्कर में मैं तो खाना खाकर ही नहीं आया पर अब तो चुम्बक बनाकर ही कुछ खाऊँगा।

सोचते-सोचते मैं खेत में उस बबूल के नज़दीक पहुँच गया। मचान की तरफ़ देखा तो "सुन्दर" मचान से नीचे वाली डाल पर खड़ा ऊपर चारपाई के कोने बाँधने वाली रस्सियाँ खोल रहा था। मैंने नीचे खड़े ही आवाज़ दी, इसे खोल क्यों रहा है? "सुन्दर" नीचे देखते हुए बोला, "दादी चिल्लाती है कि बरसात आने पर चारपाई का बाना ख़राब हो जायेगा, इसलिए खोल रहा हूँ, पर आज तूँ दोपहर में कैसे आ गया? चाची से पूछ कर आया है या चुपके-चुपके भाग आया?"

मैंने बताया कि माँ और दादी दोनों सो रही हैं तो मैं चुपके से खिसक आया। अब तूँ जल्दी से नीचे आजा। हम रेल की पटरी पर दस्सी से चुम्बक बनाकर लाएँगे। वह रस्सी छोड़ कर डाल पर बैठ गया, फिर मेरे हाथ में रखी दस्सी की तरफ़ देखकर बोला, "अभी तो शाम से पहले कोई गाड़ी ही नहीं आती और तेरे पास तो दस्सी भी एक ही दिखाई दे रही है। चुम्बक बनाने के लिए दो दस्सी और उनके बीच लोहे की पत्ती लगानी पड़ती है।"

यह सुनकर मुझे थोड़ा झटका सा लगा पर हारना तो जैसे आता ही नहीं था। मेरी आँखों के सामने दीदी की ज्योमैट्री में रखे छुट्टे पैसों की परछाईं नाचने लगी। सुन्दर की आवाज़ फिर से सुनाई दी, "अब तुम घर जाकर तो पैसे ला नहीं सकते। मैं तुम्हें दूसरा उपाय बताता हूँ पर वह थोड़ा मुश्किल है।"

मैंने उसकी तरफ़ देखा तो वह ऊँची टहनियों की ओर इशारा करते हुए बोला, "वो गिलहरियाँ हैं, उनके सिर में "चवन्नी" होती है। वो हम अभी निकाल सकते हैं।"

सुनकर मुझे बड़ा अचरज हुआ कि गिलहरी के सिर में चवन्नी कैसे हो सकती है? सुन्दर भी मेरा अचरज समझ रहा था। उसने बिना पूछे ही बात समझाई, "गिलहरी के सिर में चवन्नी जैसी गोल पत्ती होती है। उस पर अगर चवन्नी जैसी छाप उकेर दें तो असली चवन्नी और उस पत्ती में कोई अंतर नहीं दिखता। नीचे बहुत से पत्थर बिखरे पड़े हैं, पाँच-सात पत्थर मुझे दे। मैं अभी इन गिलहरियों को नीचे उतारता हूँ।"

पता नहीं क्यों, पूरी बात समझे बिना और मन से तैयार हुए बिना ही मैंने छोटे-छोटे कई पत्थर उसे पकड़ा दिए। सुन्दर ने एक ऊँची डाल पर चढ़ कर कुछ पत्थर गिलहरियों की ओर फेंके। गिलहरियाँ डाल के आख़िरी छोर पर नीचे झुकी हुई पतली टहनियों की ओर भाग गयीं। वह उस डाल को ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा, गिलहरियाँ घबरा कर नीचे देखने लगीं। उसने फिर से एक पत्थर फेंका तो दो गिलहरियाँ नीचे कूद गयीं। वह वहीँ से चिल्लाया, "अरे मार इनको।"

मैंने बटन दबाई मशीन की तरह उसकी बात मान कर गिलहरियों को पत्थर मारे, पर निशाना सही न लगा और वो गिलहरियाँ भाग गयीं। एक छोटी गिलहरी अब भी ऊपर थी। सुन्दर ने ज़ोर से डाल हिलाई, एक पत्थर उसकी तरफ़ फेंका और साथ ही चिल्लाया, "पत्थर मार इसको।" मेरा हाथ अपने आप नीचे हुआ और उसमें एक बड़ा पत्थर आ गया। सुन्दर ने फिर से डाल हिलाई, वह गिलहरी नीचे कूदी और मैंने उसकी तरफ़ ज़ोर से पत्थर फेंका। गिलहरी के मुँह से एक ज़ोरदार चीख़ निकली, "चींईईईइइइ.इ..इ...इ....इ....." और ऐसा लगा जैसे वह गिलहरी उस पत्थर को पकड़ कर उसके साथ दूर तक चली गयी। मैं दौड़ कर उसके पास गया। वह पत्थर से अलग हो गयी। उसके पैरों में हरक़त हुई मानो वह भागेगी पर भागी नहीं। दाईं ओर से उसके दोनों पैर ऊँचे हुए तो मुँह खुला दिखा। उसके मुँह में ख़ून आया हुआ था साथ ही उसकी आँख में भी ख़ून सा दिखा। उसे यूँ देखकर मेरे मन में धक्का सा लगा। याद आया कि चोट लगने पर माँ घाव धोकर साफ़ करती है और पानी भी पिलाती है। मुझे लगा कि इस गिलहरी को भी पानी पिला दें तो इसका ख़ून बहना बंद हो जायेगा। यह सोचकर मैंने सुन्दर की ओर देखा जो अब भी मचान की रस्सियाँ खोल रहा था। मैंने कहा, "यार इसके चोट लगी है, खून आ रहा है, पानी है क्या?" उसका जवाब आज भी मुझे याद है, "तूने निशाना बहुत सही लगाया भाई, मर गयी यह गिलहरी।" यह सुनते ही मैंने दुबारा गिलहरी की ओर देखा, उसने फिर से थोड़ा मुँह खोला, मुझे लगा कि उसे साँस ठीक से नहीं आ रहा, सीधी करके, माँ पुचकारती है वैसे पुचकार दूँ तो ठीक हो जायेगी। ये सोच कर मैंने उसके सिर के नीचे हाथ लगा कर उसे सीधा किया और पुचकारने के लिए हाथ फेरा। मेरी ऊँगली के साथ ही उसके सिर पर ख़ून की एक लकीर सी खिंच गयी। उसने एक बार फिर से मुँह खोला और वापिस लुढ़क गयी। मैंने अपने हाथ की और देखा, उँगलियों में ख़ून लगा हुआ था और सामने पड़ी थी वह गिलहरी जिसमें कोई हलचल नहीं थी। मुझे सुंदर की बात याद आई, "....मर गयी यह गिलहरी।" मन में सवाल उठा कि ऐसे थोड़े ही मर जाते हैं? दादाजी तो मरे थे तब आराम से चद्दर ओढ़कर सो रहे थे। इसे तो चोट लगी है। मेरी आँखों के सामने फ़िल्म सी चल पड़ी, चींईईईइइइ.इ..इ...इ....इ..... पत्थर के साथ दूर तक चली गयी, ...मुँह में ख़ून, ...टूटती साँसें...., ऐसा लगा कि मुझे भी साँस ठीक से नहीं आ रहा। सुन्दर की आवाज़ दुबारा सुनाई दी, "चवन्नी निकाल ले अभी।" मैंने सुन्दर की तरफ़ देखा, दस्सी याद आई, हाथ में नहीं थी, कहीं गिर गयी थी शायद। सुंदर अब भी अपना काम कर रहा था। मैं खड़ा होकर घर की ओर चल दिया। आँखों के सामने फिर से फ़िल्म सी चल पड़ी, चुम्बक,... .दस्सी,... चवन्नी,... चींईईईइइइ.इ.. इ... इ.... इ..... पत्थर के साथ दूर तक चली गयी, ...मुँह में ख़ून, ...टूटती साँसें....मर गयी यह गिलहरी....। घर पहुँच कर साबुन से हाथ धोये पर ऐसा लगा जैसे उँगलियों से ख़ून छूट नहीं रहा। दुबारा हाथ धोये पर फिर भी ऐसा ही लगा। ख़ूब थकान महसूस हो रही थी। मैं माँ के बग़ल में जाकर लेट गया। आँखों के सामने फिर से फ़िल्म सी चल पड़ी, चुम्बक,... दस्सी,... चवन्नी,... चींईईईइइइ.इ..इ...इ....इ..... पत्थर के साथ दूर तक चली गयी, ...मुँह में ख़ून, ...टूटती साँसें....मर गयी यह गिलहरी................. और पता नहीं कब आँख लग गयी।

मैं उस दिन जागा और फिर से सो गया। अब भी रोज़ जागता हूँ, सो जाता हूँ और सोने से पहले हर दिन देखता हूँ नये-नये "सुन्दर", चुम्बक बनाने के उनके नुस्ख़े, जनता की "दस्सी"-"चवन्नी" की ज़रूरतें, "चवन्नी" निकालने के लिए पत्थर फ़ेंकते नासमझ लोग और साँस तोड़ती "गिलहरियाँ"। उसके बाद हाथ धोने के प्रयास, पर ख़ून छूटता नहीं।

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