गहराई भाँप रहे
अविनाश ब्यौहारमौसम ने करवट बदली
घना-घना कोहरा छाया।
है धूप सुए सी
पिंजरे में क़ैद हो गई।
ठंड की उल्टी-सीधी
चालें वैध हो गईं।।
हैं रंग-बिरंगे फूल खिले
और पंछियों ने गाया।
गाँव बिचारे बिना
स्वेटर के काँप रहे हैं।
ठंड की तुषार से
गहराई भाँप रहे हैं।।
है घाट नदिया का जाने
क्यों इस ऋतु में मदमाया।
आए हुए शृंगमूल के
फल तालाबों में।
मुझको रेगिस्तान दिखता
है बस ख़्वाबों में।।
है माँझी ने अपनी डोंगी
ज्यों ताल में तैराया।
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