एक शाकाहारी का चीनी डिनर

28-05-2014

एक शाकाहारी का चीनी डिनर

डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा (गुणशेखर)

सायं-६:00 बजे

११-०१-२०१४

 

भारत के किसी भी कोने में डिनर हो या लंच, सभी में कोई न कोई अनाज का आइटम होता ही है। उत्तर भारत की छप्पन प्रकार की नान, तंदूरी और बासमती चावल। दाल मखनी, तुअर दाल, चना दाल, शाही पनीर, मलाई कोफ्ता। पूर्वी भारत के मच्छी-भात, सत्तू, बाटी-चोखा। पश्चिम बंगाल के रसभरे रसोगुल्ले। पूरे देश में मन ललचवाते पश्चिम भारत के खमण, ढोकला, फाफड़ा और दक्षिण भारत के इडली, दोसा, उपमा और इमली-चावल। रसमलाई, रबड़ी, कलाकंद और तरह-तरह के खट्टे-मीठे व्यंजन, चाट-पकौड़े ऐसे कि नाम लेते ही मुँह में पानी भर आए। वहाँ पर रोटी, दाल, साग, सब्जी, दूध-दही, मिष्ठान, तरह-तरह के पकवान, मांस और मछली आदि नाश्ते से लेकर रात्रिभोज तक के आहार होते हैं। लेकिन इन आहारों का मुख्य सिंगार कोई न कोई अनाज ही होता है। कल शाम चीन के महानगर ग्वान्ज़ाऊ के विशाल रेस्त्राँ में भी एक डिनर था । उसमें मैं भी आमंत्रित था। यहाँ के रात्रि भोज में भी ऊपर की बहुत सारी चीजें थीं। सबसे अधिक आइटम मांस और मछली के थे। एक मिठाई भी थी। लेकिन उस मिठाई में भी अंडा अंतर्व्याप्त था। इसलिए वह भी मुझ अभागे शाकाहारी के मुँह में न जा सका। चलें, कल के इस अद्भुत डिनर की चर्चा-परिचर्चा के पहले आज को भी थोड़ा-सा खँगालते चलें।

आज पूरा दिन खाली-खाली रहा। पत्नी, पोती और दोनों बेटे, बेटी, भाई और माँ से घंटों बातें करके भी पेट न भरा। भरता भी कैसे? मोहासिक्त जो था। अर्जुन की तरह मेरा भी गांडीव नीचे पड़ा था। स्काइप पर बीबी-बच्चों को देखने से मोह और भी प्रबल हुआ। आग में घी डाल कर आग बुझाने के यत्न जैसा। कितना भावुक हो गया कुछ पता ही नहीं चला। आज ठीक वैसे ही रोया जैसे कभी पिताजी के द्वारा पहली बार पढ़ने के लिए कस्बे में छोड़े जाने पर रोया था।

यह बात उन दिनों की है, जब मैंने आठवीं पास करके आगे पढ़ने और बढ़ने के सपने बुने। पिताजी को ख़ुद ही तैयार करके घर से छत्तीस किलोमीटर दूर स्थित अपने ही प्रदेश के सीतापुर जिले के महमूदाबाद कस्बे में नाम लिखाने पहुँच गया। हम दोनों नाम लिखाकर काल्विन इंटर कॉलेज से बाहर निकले। पिता जी ने कहा, "अच्छा तुम पढ़ो और मैं निकलता हूँ, नहीं तो देर हो जाएगी।" उनके यह कहते ही फ़ौरन मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने पैडिल पर पाँव रखा और बस साइकिल के पहिए सरक पड़े। उधर पहिए सरके और इधर मैं बिन बरसात बरस पड़ा। लड़ने के डर से पीछे देखना न चाहते हुए भी उन्होंने एक बार हल्का-सा सर घुमाया। लड़खड़ा भी गए। पर, अच्छा हुआ कि किसी से लड़े नहीं। सोचा माँ-बाप से अलग रहकर पढ़ने से अच्छा था, गाँव में रहकर भैंसें चरा लेते। खेत जोत लेते। निराई-गुड़ाई कर ही लेते हैं। ज़मीन भी है। गुज़ारा हो ही रहा था। यहाँ मुफ़्त में चले आए। ठीक वैसा ही पछतावा आज दिन भर रहा। आज से लगभग ४० साल पहले सन १९७५ में जब मैं बेटा था माँ और पिता के लिए रोया था और आज जब पिता और दादा-नाना बन गया हूँ, पूरे कुनबे के लिए रोया। पिता जी नहीं रहे लेकिन याद ऐसी ताज़ा हो आई कि जैसे साइकिल पर बैठे-बैठे वही बात दुहरा रहे हों कि, "अच्छा तुम पढ़ो और मैं निकलता हूँ, नहीं तो देर हो जाएगी।"

इंसान भी क्या गज़ब का जीव है! कहाँ बात डिनर की करने वाला था और कहाँ बैठ गया गड़े मुर्दे उखाड़ने। हर इंसान रह-रह कर अतीत में चला ही जाता है। जवानी में बचपन प्यारा लगता है तो बुढ़ापे में जवानी। अतीत सुखद रहा तो उसके गुणगान नहीं तो ख़ुद की श्रम-साधना और तप-त्याग के बखान। लोग सुन-सुन के थक जाएँ पर बन्दा नहीं थकता। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि हम जैसे मूरख इंसान ने वर्तमान को सही ढंग से जीना ही नहीं सीखा। वह सपने भी अतीत के ही ज़्यादा देखता है। भविष्य के सपने भी कम ही देख पाता है। इसीलिए तो दुनिया में सफल इंसान बहुत कम ही दिखाई देते हैं।

आज का दिन जितना उदास, नीरस, सूखा-सूखा और सूना रहा कल का उतना ही हरा-भरा भी था और भरा-भरा भी। सुबह से दोपहर तक विद्यार्थियों और भारतीय कौंसुलावास के अधिकारियों-कर्मचारियों के अपनापे में भूला रहा। सभी में मन भटका रहा। इन विद्यार्थियों ने विश्व हिंदी दिवस पर अनेक रंगारंग कार्यक्रमों से सभी का मन मोहा। हिंदी काव्य-पाठ, वक्तृता और फिल्मी हिंदी गाने पर नृत्य प्रस्तुत करके इन्होंने भारत और भारतीयता के प्रति अपने अटूट लगाव को दर्शाया था। वहाँ काफ़ी देर तक फोटो सेशन चला। सभी ने अपनों बच्चों की तरह साथ में फोटो खिंचाए। सर पर शैतानी भाव वाली उँगलियों की सींगें भी लगाईं। सब कुछ अपनेपन से भरा हुआ। विदेश में हिन्दी की यह प्रतिष्ठा और अपनापन पा और देखकर मन गौरव से गदगद हो उठा। यहाँ भारत सरकार और यहाँ के भारतीय कोंसुलेट के ईमानदार सरकारी प्रयास ने भी विमोहित किया। इसी ईमानदार प्रयास के चलते विश्व हिंदी दिवस का ऐसा भव्य आयोजन संभव हो सका था। आयोजन की समाप्ति पर सभी ने भारतीय व्यंजनों का लुत्फ़ उठाया। चार बजे जब हम सब जुदा हुए तो मुझे एकाकीपन ने फिर घेरा। लेकिन यह एकाकीपन शाम के डिनर पर एक बार और हरा-भरा हो उठा।

विश्वविद्यालय के हृदयस्थल में स्थित विशालकाय और भव्य भोजनालय में यह डिनर रखा गया था। मैं समय से पहले ही वहाँ पहुँच गया था। यहीं नहीं, प्रायः हर आयोजन और कक्षा तक में समय से पहले पहुँच जाता हूँ। इसका कारण यहाँ मेरी मुस्तैदी कम भारतीयों की समय की पाबंदी के संबंध में बदनामी का होना ज़्यादा है। यहाँ यह मान्यता है कि भारतीय समय के पाबन्द नहीं होते। उसी की भरपाई मैं हर ज़गह समय से पहले पहुँचकर कर रहा हूँ। लगभग पंद्रह मिनट बाद एक परिचित श्रीमान हूरे जी दिखे। उनके दिखते ही जान में जान आई। पहले मैं इस धर्मसंकट में था कहीं ग़लत जगह तो नहीं आ गया।

यहाँ भी भारतीय पार्टियों की तरह आम और ख़ास की अलग-अलग व्यवस्था थी। लेकिन यहाँ यह व्यवस्था अलिखित और अघोषित थी। मात्र इशारों से लोग अलगाए जा रहे थे। एक अत्यंत सभ्य तरीके से आम और खास (वी.वी.आईपीज़) को अलगाने के साथ प्रीति भोज का शुभारंभ हुआ। एशियन भाषा संकाय द्वारा रखी गई इस पार्टी में अलग-अलग विभाग दस-दस के दलों में बैठे थे। एक मेज़ पर मेरे समेत हिन्दी विभाग स्थापित था। नेतृत्त्व दल के सदस्य एक-एक करके सभी मेज़ों पर जाकर चियर्स कर रहे थे। कहीं कोई अहंकार नहीं। कोई गुमान नहीं। मिलते हुए इनमें ख़ास का नहीं आम इंसान का आचरण झलक रहा था। इस पार्टी में संकाय अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत अनेक प्रशासनिक पदाधिकारी थे। यहाँ की वाइस एडमिनिस्ट्रेटिव प्रेसीडेंट कम्युनिस्ट पार्टी की प्रदेश सचिव भी थीं। उनका भी बढ़-चढ़ कर प्रेम दर्शाना बहुत अच्छा लग रहा था। यहीं पता चला कि आने वाली इकतीस जनवरी को चीन का नया साल भी पड़ रहा है। इसलिए यह पार्टी नए साल के आगमन और प्रथम अकादमिक सत्र की समाप्ति की संयुक्त ख़ुशी में रखी गई है। इनके आने पर, हर मेज़ पर सहज ही लोगों का उत्साह कई गुना बढ़ जाता था। इसे देखकर मुझे लगा कि समूची एशियाई संस्कृति में आज भी राजा-रानी गहरे पैठे हुए हैं। अब भी एशियाई लोकतंत्र के अंतर्मन में नेतृत्त्व के भीतर राजसी तत्त्व बड़े आदर-सम्मान के साथ विद्यमान दिखता है। इसी के चलते जहाँ नेतृत्त्व आम आदमी से अपने को अलग करके देखता है, वहीं आम आदमी भी स्वयं को उनसे कमतर करके अपने से अलग आँकता हुआ मिलता है।

भोजनालय की शाम अत्यंत रंगीन थी। कांच की श्वेत-धवल मेज़ें। मेज़ों पर झक्क दूधिया वस्त्र। इन मेज़ों पर नाचती कांच की केतलियाँ । इसके बावज़ूद अलग से पैमाने लबालब करती साकी बालाएँ। नाचती केतलियाँ देखकर कभी सुना हुआ जुमला याद आता, 'नशा गर शराब में होता तो नाचती बोतल।' यहाँ वह जुमला गलत सिद्ध हो रहा था। बोतलें नाच रही थीं। पूरे माहौल को देखते हुए यह पक्के तौर पर कहा जा सकता था कि रिंद से पहले पैमाने को नशा आ गया था।

पेय के बाद खाने में सबसे पहले सूप आया। यह वस्तुतः शूकर माद्दव था। इसके बारे में जानकारी प्राप्त की तो बुद्ध बहुत याद आए। इसे पीकर ही वे बीमार पड़े थे। इस सूप को मैं और मेरी बगल में बैठे मिश्र के प्रोफ़ेसर साहब को छोड़कर सभी ने ग्रहण किया। वे इस्लाम के कारण उससे दूर रहे और मैं शाकाहार के चलते। इसके बाद गोमांस आने पर उनकी बाँछें खिल गईं तो मेरी भृकुटि तन गई। उनका यह धर्म था तो मेरा अपद्धर्म। इसके बाद तो तरह-तरह की मछलियों और अनेक पशु-पक्षियों के मांस का सभी ने लुत्फ़ उठाया। मैं अब भी अलग स्थिति में बने रहने के कारण 'न शोभते सभा मध्ये,' वाली स्थिति में था। काफी देर बाद कुछ साग-भाजी आई। उसे देखते ही मुझे श्रीमान हूरे जी और श्रीयुत वांग साहब ने जागृत किया। अतः उसपर मैं सबसे पहले टूट पड़ा। यदि ऐसा नहीं करता तो उसी चोपस्टिक से लोग उसे उठाते जिससे मांस और मच्छी उठा रहे थे।

मेरी नज़र में जहाँ भारत का कोई भी प्रीति भोज अपने आइटमों की संख्या और गुणवत्ता के कारण जाना जाता है, वहीं यह एक अलग कारण से जाना जाना चाहिए। वह है अनाज की अनुपस्थिति। भारत की किसी भी पार्टी में अनाज की उपस्थिति अनिवार्य होती है। वह अनिवार्यता यहाँ नहीं होती। यहाँ ज़्यादातर पार्टियों में अन्न देवता अनुपस्थित ही रहते हैं। इस तरह जीवन में एक डिनर ऐसा भी करने को मिला, जिसमें प्राकृतिक जीवन की तरह केवल मांस या घास-फूस का ही सेवन था। इसमें मैं अलग से कुछ कह या कर भी नहीं सकता था। वैसे भी तो मैं अपने को सदा शाकाहारी ही घोषित करता रहा हूँ, अन्नाहारी नहीं। यह सच में शाकाहार था। पूरा शत-प्रतिशत विशुद्ध शाकाहार।

इस पार्टी में भी सब कुछ था किन्तु बड़े इंतज़ार के बावज़ूद अंत तक अनाज का एक भी दाना देखने में नहीं आया। अपनी जठराग्नि को असह्य रूप से प्रबल होते देखकर अन्ततः मैंने अपनी ठीक बगल में बैठे हूरे जी से (भूख मिटाने के वास्ते परंतु लाज बचाए रखने के लिहाज़ से) औरों से नितांत अपरिचित भाषा हिंदी में पूछ ही लिया, 'चावल नहीं आएगा क्या?' चावल की इस बात पर हूरे जी ने ठहाका लगाया और उछल पड़े। इस पर सभी का ध्यान खिंचा लेकिन चलाचली की वेला में इसे हवा में उड़ा दिया गया और मैं भी अपनी जठराग्नि को पानी पी-पी कर कोसते-बुझाते हुए घर आ गया।

- डॉ. गुणशेखर
प्रोफ़ेसर (हिंदी),
गुआंगदोंग विदेशी भाषा अध्ययन विश्वविद्यालय,
ग्वान्ग्ज़ाऊ, चीन

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें