एक पेड़ था कभी हरा भरा

01-10-2021

एक पेड़ था कभी हरा भरा

मंजु आनंद (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

एक पेड़ था कभी हरा भरा,
था उस पर पंछियों का डेरा,
कलरव करते नीड़ बनाते,
पथिक भी थक हारकर,
पेड़ की छाँव तले अपनी थकान मिटाते,
देख यह सब पेड़ बहुत इतराता था,
झुका कर अपनी मज़बूत डालियाँ,
मीठे फल गिराता था,
समय बीता पेड़ बूढ़ा हुआ,
हरे पत्ते हुए पीले,
मज़बूत डालियाँ कमज़ोर हुईं,
डेरा उठ गया पंछियों का,
पथिक भी नहीं आते थे,
तब जा कर अहसास हुआ उस बूढ़े पेड़ को,
नहीं थे वह सब कभी उसके अपने,
बस अपनी ज़रूरत पूरी करने आते थे,
पेड़ तो यूँ ही इतराता रहा,
हो कर ग़लतफ़हमी का शिकार,
समझ अपना सबको,
काम सबके आता रहा,
एक पेड़ था कभी हरा भरा!

1 टिप्पणियाँ

  • 24 Sep, 2021 12:45 PM

    जीवन का कठोर सच । बूढ़ा शरीर अस्वीकृत बन जाता है हर एक के लिए । स्वयं के लिए भी और अपनों के लिए भी। और मोह ममता में डूबे मनुष्य को पता ही नहीं चलता कब उम्र बीत गई और कब वह अनावश्यक वस्तु में तब्दील हो गया । ।सब मिथ्या माया का खेल । कौन बच पाया है ?किसने पार पाया है? लेकिन फिर भी जीवन चलता रहता है । निरंतर !अबाध गति से । क्योंकि रुकना उसकी प्रकृति नहीं । बहुत सुंदर । बहुत बधाई

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