एक छोटी-सी सोच

27-06-2007

एक छोटी-सी सोच

अभिनव कुमार सौरभ

लहरें ख़बर देती हैं 
समन्दर के तूफ़ान की,
कई बार मन के तूफ़ान की 
बाहर ख़बर तक नहीं होती,
कुछ ज़हन में, कुछ 
डायरी के पन्नों में 
दफ़न हो जाती हैं,
ऐसी ही एक लहर का 
क़िस्सा सुनाता हूँ,
इधर, कुछ दिनों में
जाने कितनी कोशिशें कीं
दिलों के किनारे लफ़्ज़ों
लिफ़ाफ़ों में ठूसने की,
एक माशूका भी हाथ न लगी,
पिछले दो दिनों में 
एक हसीना का साथ नसीब हुआ,
नाम एक नाम है मौत,
एक छोटी-सी सोच, 
मैं यानी आप यानी 
मुसाफिर और मौत पर।

 

हुआ यूँ कि,
दो दिन पहले
मुझे एक मित्र की 
अंतिम यात्रा में 
शामिल होने का मौक़ा मिला,
घाट पर पहुँचा,
और एक घटना घटी,
लाश के बगल में,
ज़िन्दगी से रुस्वा 
एक सनकी बैठा था,
पास बैठे दो बुढ्‍ढे,
अपनी तारीख़ की बाट जोह रहे थे,
और वो,
उजड़े बालों, पीले दाँतों और 
काले मसूड़ों में,
तलवों पर बैठा,
घुटनों में ठुड्‍ढी टिका,
आँखों से ज़िन्दगी की 
आग पी रहा था,
मैं,
दो घंटे जली जवान लाश की लपटों में
उसकी मुस्कुराहटें तोल रहा था,
और कुछ मूक दर्शक,
मौत की गुलामी का 
अहसास कर रहे थे।
पास खड़ी मौत मुझे निहार रही थी,
मुझे तलाश थी एक मशूका की,
और उसे मन के मीत की,
वो मेरे साथ हो लीं
घर ले आया,
ज़िन्दगी के कुछ 
हँसते खेलते लम्हें परोसे,
मौत हँस पड़ी,
मेरे क्यूँ के जवाब में वो बोली -
लम्हा, एक बुलबुला है,
और ज़िन्दगी, धागे का गोला,
एक सिरा,
वक़्त की मुट्ठी का क़ैदी,
दूसरा,
रिश्तों के मेले में अकेला,
बुलबुले-दर-बुलबुले,
लम्हें फूटते हैं,
परिधि सिकुड़ती है,
आख़िर,
गोला चुक जाता है,
बुलबुले ख़त्म हो जाते हैं
मुसाफ़िर को क्या पता
दुनिया के छप्पर में 
मौत का एक सूराख़ भी है,
सिरा, मेले से अकेला
सुराख़ में सरक जाता है,
मुसाफ़िर खड़ा,
बुलबुले और गोले का 
तमाशा देखाता है,
फिर कंधे उचका कर,
रक़ीब के पीछे दौड़ जाता है।

 

आज जब नींद से जागा,
मुझे तन्हा छोड़,
मौत जा चुकी थी,
पर हाथ की लकीरों में 
कुछ लिख गई थी,
वो एक वादा था, शायद,
कि एक दिन आऊँगी और 
तुम्हें साथ ले जाऊँगी।
दिल तड़प उठा,
मुसाफ़िर वादे से डर गया -
कभी पायल उतार के, 
कभी घूँघट गिरा के आती हो,
ज़िन्दगी के तसव्वुर में 
तुम्हीं तो सच दिखती हो,
ऐ मौत! हमें हमीं से 
जुदा कर जाती हो।
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में