एक बिलकुल अलग कहानी – 2

15-10-2020

एक बिलकुल अलग कहानी – 2

दिनेश कुमार माली (अंक: 167, अक्टूबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

 मूल कहानी (अँग्रेज़ी): डॉ. नंदिनी साहू 
अनुवाद: दिनेश कुमार माली 

 

हम हर दिन के हर छोटे-बड़े विवरण का साझा करते थे। एक बार उसने लिखा, “अभी-अभी मैंने एम.ए. अंग्रेज़ी के छात्रों को डोवर बीच पर व्याख्यान दिया। याद आई मुझे उस प्यारी कविता की, जिसमें कोई मेरे लिए अपने प्यार की क़सम खाता है!”

“वह मेरी पसंदीदा कविता है, मीता! जिसमें प्रेम रामबाण औषधि की तरह दिखाया गया है। अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही प्यारी हैं। मैं जीवन में साहित्य देखता हूँ। सच है, साहित्य मुझे हर हारी हुई लड़ाई के बाद उठ खड़े होने की हिम्मत देता है। मेरे जीवन में अधिकांश बार मैं अपने आपसे हारा हूँ।”

मुझसे एकदम विपरीत, मीता बहुत ज़्यादा आत्म-प्रेरित महिला थी। वह कहती थी, अगर उसका मूड हुआ, तो वह हवा के झोंके जैसे मीलों दूर उड़ कर चली जाएगी। नहीं तो, हज़ार घोड़े भी उसे एक इंच तक नहीं खींच पाएँगे। परंतु अपने रचनात्मक कार्यों के दौरान, वह पूरी तरह से अभेद्य गंभीर, चुपचाप अवहेलित रहती थी। एक बार जब मैंने उसे हमारे पाठ्यक्रम की कविता व्याख्या करने के लिए भेजी तो उसने कुछ ही मिनटों में अपना क्रिटिकल कमेंट मुझे मेल कर दिया। सही में, वह बहुत प्यारी थी! 

"ओह ... मीता हमेशा पॉवरफ़ुल। मेरी व्याख्या अद्वितीय है। ”

वह बुरी तरह से बेचैन हो जाती थी, अगर कुछ भूल जाती थी, चाहे किसी पुराने दोस्त का नाम हो या लता मंगेशकर का गीत। याददाश्त खो जाने को भयानक बीमारी मानती थी। मातृत्व से अछूती युवा-लड़की का खिलखिलाता चेहरा था उसका। मीता ख़ुद एक बहती हुई कविता थी, गहरी, सुगन्धित, उसके कानों में फुसफुसाए मेरे प्यार भरे शब्दों से पिघलने वाली।

उसके पति की कभी भी सेक्स में दिलचस्पी नहीं रहती थी और उसके पहली शादी से एक पुत्र संतान हुई थी। जिसे वह बिस्तर पर साथ लेकर हमेशा सोया करती थी, यह आदत तब जाकर ख़त्म हुई, जब तक उसका ललित कला के अध्ययन के लिए किसी छात्रावास में दाख़िला नहीं हो गया। इससे पहले भी, उसके बेटे की रात को 9 बजे तक सोने की आदत थी। मीता को नींद- विकार, अनिद्रा की बीमारी थी। वह मुश्किल से दो घंटे लगातार सो पाती थी। उसका पति प्रेमी कम, दोस्त ज़्यादा था, जो हमेशा अपने कैरियर के प्रति चिंतित रहता था। उसकी आदतों के अनुसार उसने अपने को ढाल दिया था, जल्दी डिनर करना, भोजन करते समय टीवी देखना, और उसके बाद साढ़े नौ बजे घर के सारे दरवाज़े बंद करना। सोते ही वह खर्राटे लेने शुरू कर देता था और मीता बेटे को सुलाने के लिए या तो संस्कृत श्लोक पढ़ती थी या फिर उसे बिस्तर पर कहानी सुनाती थी। वह एक असाधारण माँ थी। वह ख़ुद नैतिकतावादी थी, इसलिए वह अपने बेटे को सर्जनशील तरीक़ों से सकारात्मक मूल्य सिखाना चाहती थी। वह अपनी पसंद के व्यंजन बनाती, उसे धैर्य के साथ पढ़ाती, उसकी दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनकर। उसके बेटे के सोने के बाद, वह अकेली हो जाती थी, उसकी किताबें, स्टडी टेबल, बेड लाइट, मोबाइल, लैपटॉप उसका साथ निभाते थे। वह नींद नहीं आने के कारण करवटें बदलती थी, मगर उसके भीतर दूसरा व्यक्ति जन्म लेता था, जो उसकी गर्दन को सहलाना चाहता था, उसकी त्वचा को छूना चाहता था, प्यार करना चाहता था। रात के बाद रात, वह अपने अकेले बिस्तर पर, अपने प्यारे नाइट सूट, हवा में उड़ते हुए बाल, अपने बेडरूम की खिड़की से पक्षियों, बादलों, सितारों को देखकर, मेरे बारे में सोचते हुए सोने का प्रयास करती थी। एक रात उसने मुझे एक हाइकु भेजा:

“मेरी निद्रा और अनिद्रा 
लुका-छिपी खेलती हैं।
क्या कोई मेरे भीतर जाग रहा है?”

उस समय हमने आधी रात को बात करना शुरू किया था। पार्श्व संगीत या तो एयर कंडीशनर की आवाज़ होती थी या उसके पति के खर्राटों की।

पहले कुछ दिनों तक हम अपनी दिनचर्या, रचनात्मक लेखन, बाल-बच्चों की, हमारे लड़ाई-झगड़े और उनकी सुलह पर बातचीत करते रहे। एक बार मैंने उससे फोन पर गीत गाने की गुज़ारिश की और उसने मुझे अपनी सुरीली आवाज़ में एक गाना सुनाया। आज भी जब वह गाना याद आता है तो मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं।

उसे अपने जीवन में क्या मिल रहा है? वह प्यार से लबालब भरी हुई है, उसका दिल प्यार का महासागर है और वह चाहे तो, उसमें एक साथ हज़ार जहाज़ों को डुबो दे, फिर भी उसे अपनी तलाश के लिए एक फ़ेरी तक नहीं मिल रही है!

उसकी आज़ादी में ऐसी क्या बाधा आ रही है, जिससे उसकी भावनाएँ अवरुद्ध हो रही है? सांस्कृतिक दीवारें पुरुषों और महिलाओं के बीच खुले और प्राकृतिक संबंधों को क्यों रुकावट पैदा कर रही है? रिश्तों में आत्मीयता और उत्तेजना की कमी क्यों है? यहाँ शादी से पहले यौन-प्राथमिकताओं पर बातचीत क्यों नहीं की जाती है?

एक रात उसने लिखा, “नींद नहीं आ रही है। राग हंडोल और राग दूत सुन रही हूँ; कंप्यूटर पर काम करते हुए।”

“बहुत काम कर लिया। अब आराम करो।"  
           
“थोड़ी-सी भी नींद कैसे आएगी? कृपया उसकी तरक़ीब बता दीजिए।”

"क्या यह मेरे लिए छलावा नहीं होगा, जब मुझे सोचना बंद करते ही नींद आ जाती है और नींद के तरीक़े बताने से हृदयाघात? हो सकता है कि आप अपनी पसंद की किताब खोलकर बिस्तर पर सोते-सोते पढ़ने की कोशिश करो ! क्या कभी आपको लगता है कि कोई आपके शरीर पर उँगलियों से खेल रहा है, जब आप सोने की कोशिश में कुछ पढ़ रही होती हो?"

नीरवता …

अगली सुबह उसने उत्तर दिया, “टुकड़ों-टुकड़ों में नींद आई। मेरी उँगलियों से खेलने और मुझे सुलाने के लिए धन्यवाद। अभी भी शरीर उनींदा और सुन्न लग रहा है। नींद की ख़ुमारी अभी भी नहीं टूटी।”

मीता मानती थी, प्रेमासक्ति का उसके स्वच्छ, अनुशासित जीवन में कोई स्थान नहीं है। उसके घर में किताबें, डिज़ाइनदार फ़र्नीचर, बड़े-बड़े वार्डरोब और बड़ी-बड़ी कारों की जगह है। नौकर-चाकर है देखभाल करने के लिए, हर सप्ताह के अंत में बच्चों को पार्टी, शुक्रवार की रात को पति द्वारा शराब की पार्टी, बाद में टीवी के कार्यक्रम, क्रिकेट पर बहसबाज़ी, रिश्तेदारों के फोन या बिना किसी नोटिस के उनके यहाँ आ धमकना– कितना कुछ नहीं था उस घर में।

लेकिन घर में सेक्सुयलिटी का कोई स्थान नहीं था। सेक्स पर कोई बात नहीं होती थी। पूरी तरह से विचार-विमर्श का वर्जित क्षेत्र था यह। वह औरत, जिसे सेक्स की ज़रूरत है और वह उसकी माँग करती है, निश्चित रूप से उसे उस घर में फूहड़ औरत कहा जाता है। "औरत...कोई क्या ख़ुद को फूहड़ कहलवाने की हिम्मत करती है!"– उसे कहा गया था। यह उसके पति ने स्पष्ट रूप से उसके कान में डाल दिया था, ज़ोर से कहते हुए, मानो उसने एक अध्यादेश पारित किया हो, अलिखित। उसके पति के पास बहुत काम का दिमाग़ था, वह हर चीज़ में चरम पर था। चरम स्तर पर आत्म-मुग्धता और आत्म-धार्मिकता का क़ैदी था वह। अक़्सर उनके आस-पास के कई परिवारों की बेहूदा विद्रूपताओं से नफ़रत भरे जीवन के उदाहरण देता था वह। क्या उनमें कुछ समझदार, विचारशील लोग नहीं हो सकते हैं! शायद थे भी; इसलिए उसने अपनी पत्नी के प्रति संवेदनाहीनता का तार्किक रास्ता खोज लिया। इसतरह वह  महिला के मूल अधिकारों से वंचित हो गई। वह इस विचार की खिल्ली उड़ाता था कि किसी महिला को लाड़-प्यार की ज़रूरत भी होती है, इसलिए उसे मनाना चाहिए।

जबकि मैं देर रात तक बातचीत के दौरान उसकी प्रशंसा करता था; उसकी छोटी-छोटी बातों में ख़ुशियाँ खोजता था। मैंने उसे समझाया कि मन में सेक्स की इच्छा होना कोई पाप नहीं है। यही तो इस सृष्टि का आधार और प्रमुख प्रवृत्ति है। मेरी तारीफ़ सच्ची थी, वह जानती थी। वह मेरे भीतर डूबी हुई थी, मेरी हल्की-सी आवाज़ भी उसे दूसरी दुनिया में बहा ले जाती थी और वह उन पलों को सहेजने के लिए वह मुझे प्यार करने लगी थी, जब-जब मैं प्रेमासक्ति वाले मेसेज या ई-मेल भेजता था, तब-तब आभासी प्रेम की रात ख़त्म होने के बाद सुबह जब वह उठती थी, तो उसका चेहरा तरोताज़ा, तनावमुक्त, मुस्कुराता हुआ नज़र आता था। उसकी त्वचा के रोमछिद्र खुल जाते थे, इच्छा-पूर्ति होने से आँखें चमक उठती थीं।

उन दिनों, उसने मुझे एक बार कहा था कि वह अच्छा महसूस कर रही है, वह ख़ुश है। वह मेरे हाथों में हल्की,ऊष्म और स्त्रैण अनुभव करती थी। मैं उसके लिए आभासी-वास्तविकता बन चुका था। और उन दिनों वह हमेशा मुस्कुराती रहती थी; मैं उसके होंठों पर रजत-मुस्कान की तरह चिपक गया था। वह मेरी इच्छाओं के पूल में नग्न तैरना चाहती थी। उसने लिखा था, "तुम्हारी विद्वता ने मुझे ऐसी ठंडक पहुँचाई है, एक ऐसी दुनिया बनाई है, जिसमें केवल हम दोनों रहते हैं और मैं झूलती रहती हूँ। तुम्हारे शब्दों ने मुझे ऐसा जोशीला दर्द दिया है कि मुझे मेरी उन बातों का पता लगाना है जिसके बारे में मुझे अभी तक जानकारी नहीं थी।"

एक बार मुझे बताया कि आज भी उसे मेरे शरीर की सुगंध याद है, जब वह एयरपोर्ट जाते समय मेरे बगल में बैठी थी। स्वच्छ, फेनिल गर्म, मूलत: सभ्य आदमी की सुगंध थी वह, उत्तेजक-मादक भी। हे भगवान!! वह शब्दों से जूझना जानती थी। उसके केवल शब्दों ने, हमारे प्रेम को दो दशकों से अधिक समय तक जीवित रखा! बस तीन घंटे की मुलाक़ात ने दोस्ती की लौ जला दी हमेशा के लिए, केवल शब्दों की बदौलत!

दो शहरों, दो ज़िंदगियों में शब्दों की एक सरिता बहती थी और दूसरी सरिता उसके नरम चुंबन, मुस्कान, आँसू, पत्र, मेसेज, ई-मेल और हृदय में ...।

लेकिन यह प्रेम भौतिकता से बहुत परे था। मेरे प्रति प्यार उसके लिए, शुद्ध भक्ति थी मीरा बाई की भक्ति की तरह। 

मेरे लिए, वह बेहद ख़ूबसूरत थी जिस पर मैं कभी हावी नहीं होना चाहता था, फिर भी वह पूरी तरह से जीतना पसंद करती थी, ठीक उसी तरह जैसे वह चाहती थी कि मैं उससे प्यार करूँ। दो हज़ार किलोमीटर दूर सुनसान रातों में, मेरे कानों में, मेरे श्वास-प्रश्वास में, मृदु चुंबन में, वह कहती थी कि उसे संभोग-सुख जैसा आनंद मिल रहा है। कितनी दयनीय बात थी! एक सुंदर, प्रेम-पुजारिन, जिसने कभी कोई पाप नहीं किया था, वह अपने जीवन में संभोग-सुख से वंचित! हालाँकि उसके एक बेटा था, लेकिन उसके जीवन में प्यार नामक कोई चीज़ नहीं थी। शायद पहली शादी के वैवाहिक बलात्कारों से वह गर्भवती हुई होगी। हर समय वह मेरे बारे में ही सोचती थी और मुझसे पूछती थी कि क्या मानसिक कामोत्तेजना वास्तव में शारीरिक कामोत्तेजना से अलग होती हैं? मैं उसकी इस मासूम जिज्ञासा का क्या उत्तर देता, सिवाय दो बूँद आँसू टपकाने के।

अब उसे मेरी जिज्ञासु शक्ति पर भरोसा होना शुरू हो गया था। मैंने उसे अपने आधिपत्य में जकड़ लिया था। वह ऐसे भयभीत थी कि किस अदृश्य शक्ति मुझे उसके साथ जोड़ा था। उसके 'स्व' का बड़ा हिस्सा मेरे साथ था, और दूसरा हिस्सा उसके परिवार के पास। दोनों भाग निश्चित रूप से एक-दूसरे को बाधित करते होंगे। शरीर के धीरे-धीरे कमज़ोर होने से मैंने सोचा कि हमारा दिमाग़ में भी धीरे-धीरे यह लगाव ख़त्म हो जाएगा। और "यह अध्याय" हमेशा के लिए समाप्त। मगर ऐसा नहीं हुआ।

अपनी बंद आँखों से बंद करके मेरे बारे में सोचते हुए, वह महासागरों कि हवा और कच्ची रेत कि सुगंध को सूँघती थी, सुदूर गाँवों से आदिवासियों के नृत्य कि झंकार सुनती थी, भगवा वस्त्र में पुल पार करते हुए बौद्ध भिक्षुओं को देख सकती थी, मंत्र उच्चारण करते हुए, " बुद्धम् शरणम् गच्छामि।" फिर वह धीरे-धीरे, अपने फोन के रिसीवर पर बुदबुदाते हुए कहने लगती "ओह डियर… मैं खो गई हूँ"। उस कमज़ोर क्षण में, मैं मेरा उत्तर होता था, “मीता, आप ऐसा जीवन क्यों जी रही हो जिसमें रोमांस, प्रेम, हमारे किचन रोमांस और मेरी कमी हो? ऐसे उत्तरदायित्व की भावना पर लानत है, जो आप पर प्रहार कर रही हो? अपने आप को ख़त्म क्यों कर रही हो? आप एक ख़ूबसूरत महिला हो, प्यार की देवी हो और आप जैसी महिला का सेलिब्रेशन होना चाहिए, इस तरह से परित्याग नहीं! "

"आप मुझे यहाँ से निकाल क्यों नहीं लेते, अगर कर सकते हो तो? मैं अपने चूल्हा-चौका की  सरल ज़िंदगी जी रही हूँ। यह क़हर ढाने के लिए तुम्हें किसने कहा था? आपने मेरे साथ  ऐसा क्यों किया? क्यों?"

दूसरे छोर पर नीरवता थी, मैं समझ सकता था, बिना आवाज़ किए वह रो रही होगी, उसनेअपना सिर फोन से दूर रखकर था। मुझे बहुत दुख लगा, क्योंकि इससे मेरे सामने प्रकट हुई मीता की आवश्यकता, चिंता, अलगाव की व्यथा, उसकी असहायता और परित्यक्त होने का डर।

फिर तीन दिन तक वह चुप रही, मेरे और मेरे मीता के लिए यातना भरे तीन दिन। जीवन में पहली और आख़िरी बार, मीता से तीन दिनों का पूर्ण अलगाव।

मैंने लिखा, "मैं अच्छा आदमी कैसे हो सकता हूँ अगर मेरे मेसेज आपके चेहरे से चिंता की लकीरें नहीं मिटा सकते है, आपके हृदय को ख़शमिज़ाज नहीं बना सकते हैं, आपके दिमाग़ को शांति प्रदान नहीं कर सकते हैं। मैं अच्छा आदमी नहीं हो सकता हूँ अगर एक लंबा अंतराल आपका दुख कम नहीं कर सकता है और केवल सीने में दर्द पैदा करता है। मैं अच्छा आदमी नहीं हो सकता हूँ अगर मैं आपके कामों और नाटक, कुकरी और संगीत, रेकी और रेड वाइन में सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला सकता हूँ। फिर से अपने ख़ूबसूरत प्यार का मूल्यांकन करें!”

"हम शायद तभी मूल्यांकन कर सकते है, जब हमारे पास कोई अच्छा विकल्प हो। लेकिन मेरे पास कोई भी विकल्प नहीं है। केवल आप ही हो मेरे पास, अच्छे या बुरे। इसलिए कोशिश करो अच्छा बनने थी।”

वह हमेशा से सरल और सीधी थी। मैं उसे 'गोडेस ऑफ़ स्माल थिंग्स’ कहा करता था।

छोटी-छोटी ख़ुशियों से वह बहुत ख़ुश जाती थी, छोटे-छोटे दुख उसे बहुत दुखी करते थे। वह रेड लाइट में भिखारिनों को देखती थी और उन्हें ग़ैर-सरकारी संस्थानों से व्यवस्थित करवाने का प्रयास करती थी और धूप में अपने बच्चों से भीख मँगवाने के लिए उन्हें डाँटती थी। वह सोचती थे कि दुनिया उसके जैसी है। एक दिन भारत के राष्ट्रपति की उसके यूनिवर्सिटी में विज़िट थी, दिहाड़ी मजदूरों को और सड़क के किनारे बैठने वाले विक्रेताओं को काम पर आने से रोक दिया गया था, जिसके कारण उन्हें एक दिन भूखा रहना पड़ा था। उसने लिखा, "मुझे शर्म आती है कि मैं ऐसी जगह नौकरशाह हूँ जहाँ 'मानव अधिकार' केवल और शब्दकोश में शोभा दे रहा है। मैं ज़्यादा शर्मिंदा और असहाय हूँ, क्योंकि मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकी।”

वह केवल कुछ शब्दों से खेलने वाली कवयित्री नहीं थी, वह सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं, अपने मृतक नौकरानी के बच्चों की देखभाल करती थीं, झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों की शिक्षा का वित्तपोषण भी।

एक बार बातचीत के दौरान, उसने मुझे कहा कि वह अपने बेटे का घर-संसार बसाने के बाद अपनी नौकरी छोड़ देगी और बलात्कार और घरेलू हिंसा की शिकार और अलग-थलग पड़ी बच्चियों के उत्थान के लिए कुछ करेगी। उस दिन से मेरे मन में उसके प्रति श्रद्धा के भाव और अधिक बढ़ गए। 

उसने लिखा था, "जब मैं इन औरतों को, विशेष रूप से बच्चियों को देखती हूँ, तो मुझे बेचैनी होने लगती है, उन्हें यह भी पता नहीं चलता है कि उनका यौन-शोषण भी किया जा रहा है! मेरा घर, मेरी कारें, मेरी किताबें जो मुझे प्रसिद्धि दिलाती हैं, और विलासिता के सारे सामान जो मेरे पास उपलब्ध है– मुझे सब व्यर्थ लगते हैं जब मैं इन महिलाओं को गली के आवारों का शिकार होते हुए देखती हूँ। जब मैं दो-तीन साल के बच्चों को पीवीआर सिनेमा या साकेत सिटी वॉक मॉल के बाहर पड़े हुए या गुलदस्ता बेचते हुए देखती हूँ, मुझे व्यवस्था से नफ़रत होने लगती है। उनके ऊपर इतना अत्याचार होना क्या ठीक है? किसी को उन्हें अपने अधिकार समझाने चाहिए! किसी को उनके लिए लड़ना चाहिए। बाबू, ऐसा लगता है जैसे मैं कुछ बड़ा कार्य करने के लिए अपने आपको तैयार कर रही हूँ। जीवन के किसी बिंदु पर, मैं सब-कुछ छोड़कर गलियों-सड़कों पर चली जाऊँगी और ज़रूरतमंदों के लिए आश्रय गृह, सार्वजनिक पुस्तकालय बनाऊँगी, क्योंकि केवल शिक्षा ही उन्हें प्रबुद्ध बना सकती है। और उसके बाद, मैं नवोदित प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए एक प्रकाशन-गृह भी खोलूँगी। इन सारे कामों में मुझे तुम्हारी सहायता की ज़रूरत है।”

वास्तव में बहुत महत्वाकांक्षी थी वह!

हर चीज़ में वह महत्वाकांक्षी वह महिला थी, अपने घर में किसी भी अतिथि के लिए अपने विस्तृत मेनू से लेकर ज़रूरतमंदों की मदद करने और जन-समुदाय के लिए सार्वजनिक पुस्तकालय बनाने तक। उसके लेखन में भी ऐसे यथार्थ-मुद्दे सामने आते हैं, जिसमें जीवन की महक है। हाशिये पर रह रहे लोगों के अस्तित्वगत मुद्दे बनकर।

वह मुझे 'बाबू' कहकर बुलाती थी, यह उसका लाड़ प्रकट करने का तरीक़ा था। केवल मैं पेगासस को समझा सकता था कुछ करने के लिए, उसके नाम का बचत-खाता खोलने से लेकर उसकी चिकित्सकीय जाँच कराने तक। अन्यथा वह सबसे ज़्यादा अवज्ञाकारी थी, जब कोई मसला उसका अपना होता था।

एक रात सोते समय बातचीत के दौरान, उसने मुझे एक मेसेज भेजा, कविता के रूप में:

रात बहुत ढल चुकी है
ताज़ा बाँध बनकर मेरे लिए
जिसने मेरी आँखों की नींद उड़ा दी
खोखले रुदन को बाँधकर 
फिर वह कहने लगी,
"आप मुक्त हो आज से 
अपने सभी अपराधों से, 
अनंत काल तक।
जाओ कहीं भी अपनी मर्जी से
श्रद्धा के प्रवेश द्वार पर
लगा दिया है मैंने ताला।”
 
मैं दुखी हुआ था, बहुत दुखी। मैंने उसे लिखा:

"रेखा चित्र अभी तक दीप्तिहीन, ओह मीता!
भ्रम का साम्राज्य शांत और सौम्य 
असफलता और मोहभंग के अलाव से
चलो, नई पाली की किंवदंतियों को
अनभिव्यक्त रहने दो।”

तभी फोन लगाकर, रुँधी हुई आवाज़ में वह सिसकते हुए पूछने लगी, "अनभिव्यक्त क्यों? क्या आप खुलकर मुझसे बात नहीं कर सकते हो? आप सरल क्यों नहीं बन सकते, लड़के क्यों नहीं बन सकते हो, मौलिक बनो? आप हर समय अपना दर्शन क्यों झाड़ते रहते हो? क्या मैं तुम्हारा केवल निरासक्त 'कर्तव्य' हूँ?"

"जहाँ मेरी कोई आसक्ति नहीं होती है, मैं पीछे मुड़कर नहीं देखता। कभी ऐसा काम न करें, जिसमे केवल कर्तव्य नज़र आता हो। आपने कभी मेरे पर कोई कर्तव्य नहीं थोपा। मैं आभारी, अगर आप यह मानती हो कि मेरे घाव मेरे अपने हैं और मुझे सख़्त ज़मीन से खड़े होने के लिए थोड़ा समय देने की दया करोगी। आपके बिना मैं टुकड़ा मात्र हूँ। आप मेरी आँखों, हाथों और शरीर के सभी अंगों से या उस व्यक्ति से प्रतिबद्धता चाहती हो, जिसे आप जानती हो कि वह तुम्हारी परवाह करता है और ऐसा करने की इच्छा रखता है?”

लेकिन फिर भी वह चाहती थी हमारे रिश्ते की एक अलग परिभाषा।

“एक युवा माधवी जब शादी के बाद पति के साथ रहती थी तभी भी, उसने सवाल नहीं उठाए। वयस्क माधवी ऐसे शख़्स से सवाल करती रही, जो उसके लिए अच्छे की कामना करता था, वह क़ुबूल करता था, वह जीवन के किसी भी मोड़ में झुकना चाहता था। परिपक्व माधवी को शायद इस चीज़ का अहसास होगा कि प्यार और प्रतिबद्धता के कई रूप सामने आते हैं, आत्मसात करने पर। आख़िर सत्य की जीत होगी।”

उस रात वह अपने आप क़ाबू में नहीं था। जब कभी भी हम एक घंटे से अधिक बातचीत करते थे, तो यह निश्चित था वह न किसी बात पर रोएगी। फिर मैं उसे सांत्वना देता था, और अत्यंत समर्पण के साथ प्यार करता था। हाँ, मैं उसका समर्पित प्रेमी बन गया था, भले ही और कुछ नहीं बन पाया। वह मुझे अपने संवादों से धाराशायी देती थी। उसके आँसू मेरी आँखों में भी आँसू ले आते थी। मुझे यह कहते हुए शर्म नहीं लग रही है कि आदमी होने के बाद भी कई बार मुझे उसकी बातों पर रोना आ जाता था। भले ही आदमी रोते नहीं है, मगर भीतर ही भीतर उनका खून जलता रहता है। 

जैसे, दूसरे दिन उसने मुझसे पूछा, “बाबू, क्या आपने वर्जीनिया वुल्फ़ की किताब ‘ए रूम ऑफ वन’स आउन’ पढ़ी है? मैं दूसरी किताब लिखने जा रही हूँ,'ए टेबल ऑफ वन’स आउन'।"

"क्यों बेबी?"

"आप जानते हो न कि मेरा बहुत बड़ा परिवार है। हमारे घर पर दो टेबल थे, उन पर मेरे सबसे बड़े और सबसे छोटे भाइयों का अधिकार था। खाने की मेज़ बाबा के लिए थी। इसलिए मैं बचपन और जवानी के दिनों में, मेज़ के लिए तरसती रहती थी, मगर कभी मुझे नहीं मिला। मैं फ़र्श पर पेट के बल पर लेटकर लिखती थी, या मेरी गोद में प्लाईवुड रखकर। अब मेरे घर में बहुत सारे टेबल हैं, एक मेरे बेटे के लिए और दो मेरे पति के लिए, एक पर अपना लैपटॉप और दूसरे पर फ़ाइलों का ढेर, यहाँ तक कि मेरी नौकरानी के लिए भी एक किचन टेबल है, फिर भी मेरे लिए एक भी नहीं है। मैंने ख़ासकर अपने लिए एक टेबल ख़रीदा, मगर उस पर भी उन दोनों ने कब्ज़ा जमा लिया। हेहे।”

पहचान की राजनीति के इस मुद्दे पर वह कैसे हँस सकती है? अस्तित्व की समस्या को इतने हल्के से ले रही है वह!!

अपने दर्द और मुस्कान को छिपाकर हर समय हँसने की उसमें ज़बरदस्त क्षमता थी। उसके वास्तव में दो व्यक्तित्व थे। एक जिसे दुनिया जानती थी, गंभीर शिक्षक, सर्जनशील लेखिका, ग्लैमरस, व्यावहारिक, ज़िद्दी, दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक करने वाली, सहयोगी और देखभाल करने वाली प्रोफ़ेसर माधवी। दूसरा व्यक्तित्व था- मौलिक, रोमांटिक, भावुक, प्रेम की पुजारिन, दिल की सच्ची, ईमानदार, जल्दी से किसी का विश्वास करने वाली, मेरी मीता। मैं जानता हूँ कि दूसरा व्यक्तित्व विशेष रूप से मेरे लिए था, लेकिन मैं हमेशा सोचता रहता था, कि वह दो व्यक्तित्वों को कैसे मेनेज करती होगी? ख़ासकर पहला, जो उसका असली चरित्र नहीं था?

वह दूसरी हो जाती थी, जब वह नशा करती थी। मुझे उस समय उसे सुनना बहुत अच्छा लगता था। उसे रेड वाइन बहुत पसंद थी। वह दूसरे पेग के बाद खिसिया कर हँसने लगती थी। फिर मुझे फोन पर बेतुकी बातें करने लगती थी। जोश और हास्य उसके स्वभाव में पूरी तरह से घुलमिले थे। मुझे उसके खिसियाने और बेतुकी बातों में उसकी अनवरत पीड़ा का अनुभव होता था।
एक बार मैंने उससे पूछा, जब वह नशे में थी, “आज आप क्या पढ़ रही हो? मेरा मतलब, क्या शैक्षणिक कार्य कर रही हो?"

“हे भगवान! आप हमेशा चाहते हो कि मैं कुछ करती रहूँ? किसी का होने के लिए? क्यों? मुझे बताओ, क्यों?? मैं कुछ भी नहीं हूँ, मैं कुछ भी नहीं होना चाहती हूँ, बस कुछ नहीं! क्या समझे?"

"हाँ बेबी, कृपया कुछ भी नहीं होओ।"

"नो नथींग, है ना? जस्ट नो नथींग।"

मैंने हमेशा उसे अपने मन की बात कहने का स्थान दिया, ताकि वह खुल जाए। और वह अनिवार्य रूप से अंत में सिसकियाँ भरेगी, अपने आँसू बहाएगी, अपना नाक साफ़ करेगी, (कहने लगी, वह मेरी शर्ट पर अपनी नाक पोंछना चाहती थी!!) और हेमा मालिनी की तरह बात करेगी "हेमा मालिनी एक दक्ष अभिनेत्री है, देखते हो न, बेशक वह ख़ूबसूरत है और एक बेहतरीन डांसर भी। जब भी मैं रोती हूँ, तो उसके जैसी आवाज़ निकलती है, दयनीय ... भावुक नाटकीय। हेहे।" लेकिन मैंने सोच रहा था, जब वह उदास होती थी, तो उसका लहज़ा ‘साहेब, बीवी और गुलाम’ फ़िल्म की त्रासदी नायिका मीना कुमारी जैसा हो जाता था। कभी-कभी वह मधुबाला की तरह लगने लगती थी, जब वह ज़्यादा शराब पी लेती थी। 

शराबी मीता।

“आप जानते हो बाबू, आज क्या हुआ, कोई लगातार मुझे बाज़ार में घूरता रहा। मैं वहाँ से दूर चली गई, फिर भी वह मुझे घूरता रहा; हर कोई मेरी तरफ़ देख रहा था। तो मैंने क्या किया, दोनों हाथों से अपना चेहरा ढँक लिया, और फिर उसके सामने जाकर अपनी हथेलियाँ खोलकर उसके मुँह पर जाकर कहा, ‘पिकाबू’! लोग हँसने लगे, और घूरने वाले चाचा भाग गए।”

यह मेरी मीता थी, पगली मीता।

लेकिन वह मानती थी कि यह महिला पर निर्भर करता है, पुरुष उसके साथ कैसे व्यवहार करें? वह अपना आत्म-सम्मान बनाए रखती थी।

उसे 'चाचा' और 'चाची' जैसे शब्दों से नफ़रत थी। ऐसा लगता है, दिल्ली में हर कोई आपको चाची कहकर बुलाएगा, भले ही, आपकी उम्र, रूप, वज़न और ऊँचाई उसके अनुरूप न हो।

“यदि आपके साथ कोई बच्चा है, तो आप निश्चित रूप से चाची हैं, यक़ीन मानिए। दूसरा व्यक्ति आपसे बड़ा हो सकता है! लेकिन अगर आप अकेले घूम रहे हैं, तो आप दिल्ली के पुरुषों के लिए एक आइटम हैं; भले ही आप दो की माँ क्यों न हो?"

"ठीक है बेबी, आप एक सेक्सी-चाची हो।"

"चुप रहो चाचा!"   

कभी-कभी रात में वह अपनी सारी खिड़कियाँ बंद कर देती थी और मेरे किसी भी मेसेज का जवाब नहीं देती थी। यह मेरे लिए चिंता का विषय होता था। मुझे पता था कि वह रात में काम करने वाली महिला थी, और उसका अधिकांश लेखन देर रात को ही होता था।

फिर मैं एक बजे के आस-पास अंतिम प्रयास करता था, “यदि आप काम कर रही हो, तो मुझे लगता है सब ठीक-ठाक होगा। अगर आप अपने पति से बातचीत कर रही हो, तो मुझे आशा है कि आप मेरा जवाब दोगी, कोई ज़रूरी नहीं तत्काल ही दो। अगर आप सो गई हो, तो मुझे अपनी बेबी पर सबसे ज़्यादा ख़ुशी होगी और अगर आप उदास हो, तो मुझे बहुत दुख होगा, अपर्याप्तता की भावना से ग्रस्त होने के कारण।”

"नहीं ... कुछ ख़ास नहीं कर रही हूँ। आपकी याद आ रही है।"

"फिर तीन मिनट के बाद फोन करो और सात मिनट तक बात करते हैं।"

“ अजीब टाइमिंग! ... सिर्फ़ पागल हो।”

"आप मेरे समय के बारे में कैसे जानते हो?"

उसके बाद वह लजाकर कुछ समय के लिए शांत रहती, फिर प्रतिक्रिया-स्वरूप सिर्फ़ तीन डॉट्स भेजती, और बदले में मैं कुछ मेसेज भेजता, उसे खोलने के लिए।

"मीता, अच्छा हुआ आपका दिमाग़ खुल गया, बिना इस्स और उफ़्फ़ के। आपको जानना चाहिए आपके शरीर का हर एक रोमकूप कितना प्यारा है।”

हमारा अपना एक ई-मेल खाता था, जिसे हम दोनों लेटर या चैट के लिए काम में लाते थे। उसका पति तकनीकी- प्रेमी व्यक्ति था। एक बार उसने उस खाते का पासवर्ड हैक किया और हमारे बीच हुए वार्तालाप को पूरा पढ़ लिया, और उसके बाद उसका जीवन नरक बन गया। हम समझ नहीं पाए, उसका हमने ऐसा क्या किया था? मैंने उसका क्या छीन लिया है? उसकी प्रतिबद्धता? नहीं, हम प्रतिबद्ध नहीं थे; बल्कि हमने जीवन में कभी नहीं मिलने का फ़ैसला किया था। सेक्स? नहीं, कभी नहीं, न ही हम एक-दूसरे की तरफ़ यौन-आकर्षित हुए थे। वे जीवन में कभी भी एक बिस्तर पर नहीं सोए थे। हमने साहित्य, जीवन, प्रेम, सेक्स, दर्शनशास्त्र पर बातें अवश्य की थी, जो उसकी समझ से परे थी। इसलिए शायद ही हमें उसकी असुरक्षा के पीछे का कोई कारण नज़र आ रहा था। शायद वह उस विशुद्धिवादी पुरानी दुनिया में जी रहा था, जहाँ केवल औरतों से ही पवित्रता, शुद्धता और वफ़ादारी की माँग की जाती है। पवित्रता-प्रदूषण की बहस, उम्र-भर, उसके दिमाग़ में घुसी हुई थी। वह उसके जीवन में पुरुष होने का 'कर्तव्य' निभाए बिना उससे प्रतिबद्धता, शुद्धता और पवित्रता की माँग कर रहा था।

वह घर से बाहर निकलती थी, अपने आँसू छुपाकर चेहरे पर कृत्रिम मुस्कान लिए। उसके लिए, उसके पति का कोई अस्तित्व नहीं था। मानो वह पिछले जन्म का संबंधी हो। उनका तालमेल अस्थिर और मायावी हो गया था, जैसे कोई टैग लगा हो, 'स्विच विद कॉशन!' उनके लिए पुराने दिन, जब वे मिले थे, अलग-अलग प्रांत के रहने वाले थे। उसका पति उसे प्यार देने के बजाय नैतिकता में अधिक रुचि रखता था, जिस प्यार की वह हक़दार थी। मीता अपने जीवन के सबसे अच्छे हिस्से को न्यायोचित ठहराती थी,कि उसने मुझसे प्यार कर कोई ग़लती नहीं की है, क्योंकि उसका अपने पति के साथ कोई भावनात्मक संबंध या शारीरिक निकटता कभी नहीं बनी और वह पागलों जैसा व्यवहार कर रहा था; उसे अपनी पत्नी पर संदेह कर एक अच्छे रिश्ते को बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि मैं उससे कुछ भी नहीं छीन रहा था।

उस रात उसने हमारा व्यक्तिगत ई-मेल खाता खोलकर एक लंबा मेल लिखा - कि कोई भी कभी भी हमारी ख़ूबसूरत यादों को नहीं छीन सकता है, भले ही, वह उस मेल का उपयोग आगे नहीं करेगी। उसने वास्तव में ऐसा किया भी; उस ई-मेल खाते का कभी प्रयोग नहीं किया।

ज़िद्दी मीता।

बाद में, उसने कई बार शिकायत की कि उसे मेरे लंबे ई-मेल्स याद आ रहे हैं, हमारी वार्तालाप के शब्द-संयोजन याद आ रहे हैं, उसे मेरे लंबे पत्र पसंद आते थे।

“कृपया मुझे लंबे मेल भेजें, बाबू!" वह मुझे एसएमएस करती थी।

मेरे पत्र जटिल होते थे, और उसके सरल। उसे मेरे क्रिटिकल विचार और दृष्टिकोण से प्यार था। वह हमेशा मुझसे कहती थी, “बाबू, भले ही, मुझे आपसे कहीं अधिक हासिल हुआ है, लेकिन अकादमिक रूप से आप ज़्यादा उत्कृष्ट हो। आप मुझसे बहुत बेहतर हो। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, तुम्हें इस चीज़ का कभी एहसास नहीं हुआ। ”

"ओह, अब छोड़िए भी! तुलना मत करो।"

“नहीं, मैं तुलना नहीं कर रही हूँ। लेकिन हम एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। जैसा कि अक़्सर आप कहते हो, हम ' टीम-मीता' के सदस्य हैं- सिर्फ़ दो लोगों के साथ ही हमारी सदस्यता बंद!"

जीवन सुचारु रूप से चल रहा था; कोई हमें संवाद करने से नहीं रोक सकता था। आँख बंद करके प्यार करने से, भावपूर्ण, अथक रूप से। आख़िरकार, हमने स्वीकार किया कि भले ही, कठिन समय हमें सोचने पर विवश कर दे, मगर वह हमारे अंदर आवश्यक मज़बूत आत्मबल भी पैदा करता है- लचीला, इच्छा-शक्ति से प्रेरित और अदम्य। वह यह भी दिखाता है कि जीवन कोई परियों की कहानी नहीं है, फिर भी जीने के लिए ख़ुद को साबित करना पड़ता है। मीता दृढ़तापूर्वक मानती थी कि हमारे देवता हमारे स्वयं की उपज हैं। उनका नाम लेना, बस हमारी सहज संकल्पशीलता को मूर्त रूप देना है। उसका शिक्षण, अनुसंधान, शब्दों के साथ उसका अनुराग उसे व्यस्त बनाए रखता था। हर दिन वह शिखर से और ऊँचे शिखर तक चढ़ती जा रही थी, अभिमान की चोटियों को छूती हुई।

हम झगड़ते भी रहते थे। अगर कभी मैं उसे एक घंटे तक मेसेज नहीं भेज पाता था, तो वह शिकायत करने लगती थी। कई बार ऐसा भी होता था कि मैं उसे अपने हर दिन की जानकारी देना भूल जाता था। वह नाराज़ हो जाती थी, “आप क्या जानते नहीं हो, मुझे हर घंटे कम से कम एक ख़ाली एसएमएस भेज दो, ताकि मुझे यह पता चलता रहे कि आप मुझे याद कर रहे हो।"
मैं उसे चिढ़ाता था, यह कहकर कि वह IRDD (इंकयोरेबली रोमांटिक डिस्पोजल डिसऑर्डर) से पीड़ित है!

"आप अच्छी तरह जानती हो, मीता, मेरा जीवन कैसा है। हमारी जीवन-शैली पूरी तरह अलग हैं। तुम्हें सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना नहीं पड़ता है, मगर मुझे? तुम्हारे पास छुट्टियाँ हैं, वेकेशन है, मगर मेरे पास?”

फिर बहस छिड़ जाती थी और उसकी आँखें आँसुओं से भर जाती थी। मैं हमेशा अपराध-बोध महसूस करता था कि मैंने उसे बहुत रुलाया। मैं कभी नहीं चाहता था कि वह आँसू बहाए, लेकिन फिर भी वह हमेशा रोती रहती थी।

क्या मैं उसके दिल की धड़कनें बहुत बढ़ा रहा था?

“मैं तुम्हें अभिशाप देती हूँ, बाबू, कि अगर किसी दिन मैं मर जाऊँगी, तो कोई भी तुम्हें सूचित नहीं करेगा। कौन जानता है कि मैं आपसे प्यार करती हूँ? कोई नहीं। मेरी मृत्यु के कम से कम दस दिन बाद तुम्हें पता चलेगा।"

"कृपया ऐसी बात मत करो। आप इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?” फिर मुझे उसे सामान्य स्थिति में लाने में एक घंटा लगा।

मुझे कभी-कभी अपना दर्दनाक अतीत याद आता था, जिससे उसका मूड ख़राब हो जाता था। वह कभी नहीं चाहती थी कि मैं अतीत की बात करूँ और वह मुझे कहती थी कि अतीत का बोझ हर समय ढोना 'उबाऊ' होता है। मैं उत्तर देता था, "वह उबाऊ कठोर होता है। मुझे पता है कि आप टाल दोगी, लेकिन केवल इसलिए कि अतीत वर्तमान नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह कभी भी अस्तित्व में नहीं था। बहुत सारी यादें है, यादों में लोग है और लिए-दिए दर्द हैं। आज मुझे स्वीकार करो और फिर उसे स्वीकार करो, जो तुम्हारा कल था आज बनाने के लिए। इससे पहले कि वे फिर से स्मृति में आए– कुछ समय तो लगेगा। तुम्हारा फोन आ रहा है– प्रो.माधवी या मीता?” लेकिन फिर, वह परेशान होकर चुप हो गई थी, और मुझे उसे बूस्ट अप करना पड़ा था। मैंने लिखा, "मैं तुम्हारी तरह कोई बच्चा नहीं हूँ, जो हर छोटी-बड़ी बातों को याद रखता रहूँ। एक बुनियादी कारण यह भी है कि मैं आपका सम्मान करता हूँ, आपकी अदम्य भावना के कारण। मैंने पहले भी आपकी आलतू-फालतू चीजें याद नहीं रखी। सिवाय अकेले पढ़ने-लिखने के और कोई मेरा शौक नहीं है। अति-संवेदनशीलता मेरे लिए प्रतिबंधित है।”

हर लड़ाई के बाद, वह मुझसे बात करती थी। मैं सोच रहा था, मेरे अस्तित्व की तंग सीमाओं से किसी दिन वह मुझसे नाराज़ होगी, क्योंकि मैंने उसके सबसे अच्छे वर्षों पर पानी फेर दिया था। क्या कभी वह मुझसे आज़ाद होना चाहती थी? नहीं, कभी नहीं। मैं हमेशा ग़लत सोचता था।

और मैं लिखता था, "मीता, ज़िंदगी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया हैं। धर्म कुछ नहीं होता है, बल्कि अंतरात्मा की आवाज़ होती है। छोटी अवधि के परिणामों को नज़र-अंदाज़ करते हुए सही काम करो। ग़लत काम करने वालों को माफ़ कर दो, लेकिन किए गए ग़लत कार्यों से सबक़ अवश्य लेना चाहिए; बार-बार ग़लत काम करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। उन चीज़ों को पोषित करो, भले ही, भौतिक शर्तों में उनकी पारस्परिकता संभव नहीं है। अंत में, हर कोई एक अकेला ग्रह है। मैं इन चीज़ों को जीवन पर लागू करता हूँ, जीवन में आकस्मिक जुड़ाव जैसा कोई अर्थ नहीं है। ”

“हे भगवान बाबू! मुझे सात जन्म लगेंगे आपकी तरह ज्ञानी बनने में!!"

सही बात यह थी कि हम एक-दूसरे से प्यार करते थे, उस वज़ह से ज़िंदा थे। उनचालीस साल से उनपचास साल में हमने प्रवेश किया, इस प्रकार और हम बुज़ुर्ग होते चले गए। वह साँस थामकर मेरा नाम बड़बड़ाती थी, और उसे विश्वास था उसकी प्रतिध्वनि कभी-न-कभी सुनाई देगी। हम अच्छी तरह समझ गए थे कि एक-दूसरे के लिए हमारा एलियंस बनना निंदनीय है, हमेशा के लिए अलग-थलग कांच के बर्तन में फँसे रहना, जिसे हम 'सेल्फ़' कहते हैं। फिर भी, मेरे और मीता के 'सेल्फ़' कभी एक-दूसरे के प्रतिकूल नहीं थे। उसने मुझे अपने जीवन, अपने परिवार और दोस्तों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों के बारे में सब-कुछ बताया था, जैसे मैं उसे बचपन से ही जानता था मानो हम दोनों एक साथ बड़े हो रहे थे, परिवार की छुट्टियों और समर कैंप में समुद्र के किनारे जाकर रेत के घर बनाए थे, गीली रेत के नीचे एक-दूसरे की उँगलियों को छूते हुए।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, मैंने उसके लेखन पर इन वर्षों के दौरान हमेशा टिप्पणी की। मैंने मेल की हुई लड़कियों की उन सभी तस्वीरों में से सबसे अच्छी तस्वीर का चयन किया था, जो उसने अपने बेटे की शादी के लिए चुनी थी। उसका बेटा चाहता था कि वह अपनी शादी के लिए लड़की का चयन करे, और वह चाहती थी कि यह काम मैं करूँ। आख़िरकार सिद्धार्थ ने उसी से शादी की! मैं उसकी किताबों के कवर पेज चुनता था, उसके लिखे एक-एक इंटरव्यू को पढ़ता था, उसके घर की इंटीरियर डिज़ाइन और उसकी साड़ियों के रंगों का भी सुझाव देता था।
मैं उसकी ज़िंदगी में अनवरत बना रहा, उसके सुख-दुख में शरीक होते हुए। उम्र के साथ-साथ उसके चेहरे का लालित्य बढ़ता गया, यद्यपि यह एक आनुवंशिक गुण होता है।

◊◘◊

आज अचानक मेरी दुनिया बिखरती हुई लगने लगी थी; एक अज्ञात भय मन में हिलोरे खाने लगा था। क्योंकि, मीता की तरह, मुझे लिफ़ाफ़े को आगे धकेलेते हुए जीवन जीने की कला में महारत हासिल नहीं हुई थी।

आज मीता का 65वां जन्मदिन है, और वह एक हफ़्ते से न तो मेरे मेल का जवाब दे रही है और न ही मेरा फोन उठा रही है। किससे पूछूँ? क्या वह विदेश गई है? लेकिन वह हमेशा मुझे सूचित करती है; वास्तव में उसकी अधिकांश यात्राओं की योजना भी मैं ही बनाता था।

तो फिर क्यों है लंबी चुप्पी? मुझे समझ में नहीं आ रहा है। न तो मैं क़रीब से उसके घर वालों को जानता हूँ, न ही किसी सहकर्मी को, जिसे मैं फोन करके उसकी ख़बर ले सकूँ। न ही मेरे पास कोई दूसरा नंबर है। वह पूरी तरह से मेरे लिए अगम्य हो गई थी। मैं चिंतित हूँ, परेशान हूँ। 

क्या मेरी मीता अस्वस्थ है और मुझे सूचित करना नहीं चाहती है, पिछली बार की तरह?

हम दोनों के बीच की शांति हमारे बंधन के चरमराने की तरह लग रहा था। हम पौधे की उन दो पत्तियों की तरह थे, जो तेज़ हवा के झोंके से एक-दूसरे से मीलों दूर उड़ते जा रहे थे, फिर भी पौधे के उद्गम के प्रति आश्वस्त थे, जहाँ से हम दोनों नीचे गिरे थे।

◊◘◊

मेरे विभाग में कोई दिल्ली की पुरानी ख़बर पढ़ रहा था, एक हफ़्ते बाद मेरे शहर के एक अख़बार में छपी हुई।

"गणमान्य कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता, स्वर्गीय प्रो. माधवी श्रीवास्तव ने अपनी वसीयत में इच्छा ज़ाहिर की है कि उनका घर दिव्यांग लोगों के लिए दान कर दिया जाए। उन्होंने अपना निजी पुस्तकालय और प्रकाशन-गृह को आम जनता के लिए समर्पित कर दिया है, जिसका संचालन फिलहाल उनके पुत्र श्री सिद्धार्थ श्रीवास्तव कर रहे हैं। मूलचंद अस्पताल में इलाज के बाद प्रो. माधवी का हृदयघात से इस महीने की 17 तारीख़ को निधन हो गया। हम दिवंगत आत्मा को अश्रुल श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।"

मैं बर्बाद हो गया। मेरे सिर में तेज़ दर्द होने लगा। मैं सिर्फ़ स्टाफ़ रूम से बाहर जाने ही वाला था कि कार्यालय के चपरासी ने एक बड़ा पैकेट थमा दिया।

मैं घर चला गया, चुपचाप।

उसमें बहुत सारी कविताएँ लिखी हुई थीं और साथ में एक पत्र भी, साफ़-सुथरे अक्षरों में, शायद इस पैकेट को उसने पोस्ट करने के लिए सिद्धार्थ को दिया होगा, पहली बार कोई तीसरा व्यक्ति हमारे बीच आ रहा था। मैं एक कविता पढ़ने लगा:

“मैं एक कली हूँ, 
 शाखा से टूटी हुई
मेरा कहाँ होगा उद्धार?
मैं मीरा हूँ।
हे कृष्ण! आप कहीं और हो
मुख्य रास्ते में
तुम्हारे रथ में
मेरे पैर हिल रहे है एक नाली में
अकाव्यात्मक
मगर प्रत्येक धड़कन की आवाज़
मेरे अस्तित्व की डोर
धमनी के अस्थि-पंजर के
पंक में लाचार है।
मुझे ठीक कर दो
चूने के पत्थर की मूर्ति की तरह
मुझे अपने परिचित शहर में रखकर।"
 
 मैं थोड़ी देर तक चुपचाप बैठा रहा, मेरे चारों ओर की हवा बेचैनी से घनीभूत होती जा रही थी और उस समय मेरी सजगता भंग होने लगी, सभी संभावनाएँ समाप्त होती नज़र आ रही थीं।

और फिर यह पत्र…। मेरी आँखें आँसुओं से भर उठी थीं।

 

“बाबू, मेरे सबसे प्रिय, जब मैंने तुम्हें अभिशाप दिया था कि मेरी मृत्यु के दस दिनों बाद तुम्हें पता चलेगा, मेरा यह मतलब कभी नहीं था कि मैं मर रही हूँ। मैं तुम्हें अभी फोन लगती हूँ, मैं सिद्धार्थ को तुम्हें कॉल करने के लिए कहती हूँ। लेकिन यह प्यार अभी भी पर्दे में रहने देना। आपने मुझे सुंदर जीवन दिया था। वर्षों पहले मैं आपसे अपनी आँखों में सूनापन लिए हुए मिली थी, और आपने उसे अपने प्यार से भर दिया। समय उड़ रहा है, मेरी साँसें छीन रहा है। मैं नदी के पानी की तरह, पहाड़ की चोटी की तरह आगे बढ़ती हुई जा रही हूँ। मैं जलाच्छादित बादलों की तरह वापस जा रही हूँ। अब मुझे कोई नहीं बचा सकता है। पता नहीं क्यों, मुझे अपने भावुक प्रेमी की याद आ रही है, जबकि मैं हर इच्छा से मुक्त हूँ? शुक्रिया, मुझे ऐसी सुंदर ज़िंदगी देने के लिए। आप मेरे लिए हो - मेरा जीवन, प्यार, ख़ुशी। क्या आप मुझे अपनी बाँहों में ले पाओगे, कम से कम अब तो सही?

मुझे खेद है, तुम्हें अभी मेरी ज़्यादा आवश्यकता थी, क्योंकि आप इस वर्ष सेवानिवृत्त होने जा रहे हो। अपने को अकेला न समझें। अच्छा जीवन जिएँ। मैं अपने कुछ आधे-अधूरे शोध-पत्र भेज रही हूँ; पहले की तरह उन्हें पूरा करें। विगत कुछ महीनों में मैंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं। वे कविताएँ तुम्हें समर्पित कर रही हूँ। आप इन सभी का संकलन कर मेरे मरणोपरांत मेरा पंद्रहवां कविता-संग्रह प्रकाशित करवा सकते हो। अब मैं जा रही हूँ, आप मेरे शहर आकर मेरा घर देख सकते हो, जिसका डिज़ाइन आपने ही बनाया था, मेरा प्रकाशन-गृह भी देखिएगा, जिसे मैंने आपके मार्गदर्शन में ही बनाया था। उन ग़रीब बच्चों को देखना, जो मेरे घर में ख़ुशी से रह रहे होंगे और हमारे पुस्तकालय का प्रयोग कर रहे होंगे। मेरी अलमारी को छूना, मेरी सारी साड़ियाँ आपकी परिचित हैं, क्या नहीं हैं? उन्हें ज़रूरतमंदों को बाँट देना। मैं मेरा पसंदीदा फ्लोरल येलो-ब्लू सूट भेज रही हूँ, आपके लिए। मैंने इसे एक-दो बार पहनने के बाद भी नहीं धोया है, जैसा आप चाहते थे मेरी शरीर की चमेली जैसी सुगंध बरकरार रहे। और फिर मेरी, ग्रे चप्पल, जो मैं पैंतीस सालों से पहन रही हूँ; आपको पता है, आपसे मुलाक़ात होने से भी पहले! ये दोनों चीज़ें आपकी हैं।
 
मैं पूरी तरह से न तो माधवी बन पाई और न ही मीता। मैंने जीवन भर मेरी पहचान के बारे में सोचती रही; लेकिन किसी तरह से मैंने इस जीवन को व्यवस्थित रूप से जीना सीख लिया था। मगर मैं कहना चाहती हूँ, जबसे आपसे मेरी मुलाक़ात हुई थी, 'मीता' की संवेदनाएँ मेरी पहचान और व्यक्तित्व में ढल गई। मैं 'माधवी' या 'मीता' के बारे में एक-दूसरे की पहचान खो जाने के डर से कभी भी पागल नहीं हुई, क्योंकि आपने ऐसा कभी होने भी नहीं दिया।

आज मैं दिग्वलय की ओर देख रही हूँ, मेरी आँखों के सामने दिखाई दे रही है नीले रंग वाली सुनहरी धुंध। मैं अभी फिर से पिघले हुए सोने के आकाश से तुम्हारे पास पहुँच रही हूँ।

तुम्हारी हमेशा के लिए, 
मीता 
 

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