एक बेटी की उम्मीद

01-04-2021

एक बेटी की उम्मीद

भारती परिमल (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

पूरे नौ माह का सफ़र तय कर
तेरी गोद की मंज़िल पाई है।
सोचा था पाकर मुझे,
होठों पर तेरे मुस्कान खिलेगी,
पर देख मुझे आँख तेरी भर आई है!
 
क्यों अरमान सारे मुरझाए हैं?
ख़ुशबू के साये सिमट आए हैं?
प्रतिरूप हूँ मैं तेरा ही, फिर क्यों
ख़ुशियों के फूल न खिल पाए हैं?
 
बेटा बन आ न सकी जो तेरे आँगन में,
तो बोझ समझ त्याग दिया जग कानन में!
ये तो सोचो, इस बेरूख़ी से,
कैसे बहार आएगी मेरे सूने जीवन में?
 
पतझर बन बिखर जाऊँगी मैं,
गोद में तेरी सँवर जाऊँगी मैं।
स्पर्श तेरा पाकर ही खिलखिलाऊँगी मैं,
बिना तेरे घुटन से भरी तिलमिलाऊँगी मैं।

देर न हुई, अँधेर न हुई,
अब भी समय है,
इस क्षण शक्ति बन जा मेरी
यक़ीन कर, हाँ पूरा यक़ीन कर
कल शक्ति बनूँगी मैं तेरी,
एक-दूजे में समाहित होकर
एक बन जाएँगे हम
तू जो साथ दे, तो
एक नया जहाँ बनाएँगे हम।
माँ . . . ओ मेरी प्यारी माँ . . .
एक नया सवेरा लाएँगे हम!

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