एक और सतिया

03-06-2012

मै उस जनपद का पुलिस अधीक्षक था, जहाँ की पुलिस ने एक मेले मे ब्रजबासिन/ वेश्याओं/ के टेंटों पर छापा मारकर एक माँ-बेटी को पकड़ रखा था। यह कहानी उस अभागिन माँ ने मुझे आपबीती के रूप मे सुनाई थी। यद्यपि कहानी मेरी ओर से लिखी गई है तथापि पात्रों के सम्भाषणों में उनकी अपनी भाषा का प्रयोग किया गया है, जो कहानी की सम्प्रेषणीयता को कुछ कठिन तो अवश्य बनाती हैं परंतु मर्मस्पर्शणीयता को द्विगुणित करती है।

-----महेश चंद्र द्विवेदी

"हाय अम्मा, हाय अम्मा हाय मरी, हाय अम्मा, हाय मरी"

ग्राम माणिकपुर मे एक फूस की झोपड़ी से रहरहकर कमलिया की कराहों की आवाजें आ रहीं थीं जो झोपड़ी के बाहर कुछ दूर तक की वायु को प्रकम्पित कर विलीन हो जाती थी। आवाजे कुछ कुछ अंतराल पर रुकरुककर आतीं थीं और बीच मे पूर्ण शांति छा जाती थी। साँझ का धुँधलका हो चुका था परंतु झोपड़ी मे पूर्ण अंधकार था एवं इन कराहों की ध्वनियों के अतिरिक्त झपड़ी मे जीवन का कोई चिन्ह नहीं प्रतीत होता था। एक टूटी सी बंसखटी पर कमलिया पड़ी हुई थी जो जाग्रति एवं मूर्छा की अवस्था के बीच झूल रही थी। उसके मन मे बीते हुए जीवन के अनेक दुखद एवं सुखद क्षण चलचित्र के समान आ जा रहे थे।

"अम्मा, बराइत आइ गई है। पानी-पत्ता कराय आये हैं।" किवाड़ की आड़ मे खड़ी कमलिया के मन मे मिसरी सी घुलने लगी थी जब छोटे भइया ने हाँफते हुए आकर अम्मा को बताया था। फिर जब आँखें मे बड़ा-बड़ा काजल लगाये और पीला धेाती कुर्ता पहने दूल्हा भांवरों हेतु आया था तो घूँघट की ओट से उसे देखकर कमलिया एकदम मुग्ध हो गई थी। यद्यपि परसराम का यह दूसरा विवाह था परंतु उसकी पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी और वह देखने मे भी एक गबरू नवजवान लगता था। विपन्नता मे पली हुई चमार की लड़की कमलिया के लिये यही क्या कम सौभाग्य था कि वह किसी प्रौढ़ आयु के बाल बच्चों वाले पुरुष के घर बैठा नहीं दी गई थी। उसके विवाह के लिए उसके माँ-बाप को नाकों चने चबाने पड़े थे तब कहीं फूफा की रिश्तेदारी में उनके प्रयत्न से यह लड़का मिल पाया था।

परसराम को भी कमलिया मन ही मन भा गई थी और जब उसके फूफा इस बात पर रूठ गये थे कि कमलिया के पिता ने उनके पैर स्वयं नहीं धोये थे, तो बात का बतंगड़ बनने से रोकने के लिये वह साहस कर बोल पड़ा था,

"फूफा, अब गुस्सा थूक देउ। आदमियई तै भूल होत है।"

उसकी इस बात पर उसके जीजा ने चुटकी ली थी, "हाय, अबै से जू हाल है तौ अंगाऊँ का हुइयै?" इस पर सब लोग हँस पड़े थे और विवाह निर्विघ्न सम्पूर्ण हो गया  था।

"मालिक, हमाये रहिबे के लैं कहूँ ठिकानों कर देउ।"

परसराम ने गाँव के ज़मींदार, जो अपने स्वभाव एवं कार्यों के कारण हल्ला कहलाते थे, से अनुनय की। वह उनके घर पर ही गोबर कूड़ा साफ करने का काम करता था। उसके माँ-बाप नहीं थे और उसके चाचा, जिन्होंने उसे पाला था, ने विवाह के तीन माह के उपरांत उससे अलग प्रबंध करने को कह दिया था क्योंकि उनके घर मे केवल एक ही कमरा था जिसमे जाड़े के दिनो मे दो परिवारों की गुजर नहीं हो सकती थी।

हल्ला कुछ देर तक आराम कुर्सी पर पलकें झपकाये ऐसे पसरे रहे थे जैसे उन्होने कुछ सुना ही न हो। फिर परसराम द्वारा अपनी अनुनय दुहराये जाने पर वह धीर-गम्भीर स्वर मे बोले थे,

"ठीक है तुम मेरी कोठी की उत्तर बाली खाली पड़ी जमीन पै अपईं मडैइया डार लेउ। पुखरिया सै माटी लै लीजौ और मेरे खेत के लाहा सै फूस लैकें छपरिया डार लीजौ।"

परसराम हल्ला का मुँह देखता रह गया था, पर वह उनकी मूँछों मे एक हल्की सी स्मितरेखा के अतिरिक्त अन्य कोई वंग्य नहीं ढूँढ पा रहा था। परतु वह आश्वस्त भी नहीं हो पा रहा था कि वह एक अछूत को ब्राह्मणों के बीच में अपनी कोठी के बगल में रहने की अनुमति कैसे दे सकते है। तभी हल्ला फिर बोल पड़े थे,

"अब मुँह का देखत हौ? बाँस बल्ली के लैं पैसा चहियें?" और यह कहते हुए उन्होंने अपनी फतुंईं से पाँच रुपये निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिये थे। कृतज्ञता से परसराम की खीसें निपुर गईं थी।
परसराम ने दो महीने मे ही झोंपड़ी तैयार कर ली थी और वह कमलिया को लेकर उसमे रहने लगा था।

होली के दिन सबेरे से गाँव भर मे रंग, गोबर, कीचड़ और पानी का खेल चल रहा था। शाम को फाग गाने वालों ने हल्ला के घर पर खूब जमकर भांग पी और जमकर फाग गाया। परसराम ने भी भरभूख भांग पी। फिर देर रात तक उनके घर मिलने वालों का सिलसिला चलता रहा।

होली के दिन सभी कमीनों के घर की स्त्रियों को ज़मींदार के घर अनिवार्यतः जाने की प्रथा थी। कमलिया का उनके यहाँ जाने का प्रथम अवसर था और वह सकुचाहट के कारण अन्य लोगों के चले जाने के पश्चात गई। वह बैठक के सामने से तेजी से गुजरते हुए घर के बाहरी बराम्दे की दहलीज पर जाकर खड़ी हो गई। बैठक के अंदर से हल्ला की गिद्धदृष्टि ने उसे देख लिया था और वापसी मे जब वह तेजी से निकल रही थी तो उसे उनकी भारी भरकम आवाज सुनाई दी,

"कमलिया कैसी है?  होरी को इनाम तौ लयें जाउ।" यह कहकर उन्होंने दो रुपये का एक नोट जेब से निकालकर उसकी ओर बढा दिया।

कमलिया सकुचाई खड़ी थी कि अछूत होकर वह बैठक मे कैसे प्रवेश करे, कि मुस्कराते हुए हल्ला बोल पड़े,

"अरे आज होरी कौं कौन छूत और कौन अछूत? भीतर आइ जाउ।"

अब कमलिया के पास बैठक के अंदर न जाने का न तो कोई बहाना था और न अवज्ञा का साहस। वह जैसे ही अंदर घुसी, हल्ला उठकर दरवाजा बंद करने लगे, जिसे देखकर उसकी घिग्घी ऐसे बंध गई जैसे शेर को देखकर मेमने की बंध जाती है। हल्ला ने उसकी इस दशा को देखा तो उनकी कामवासना और उद्दाम हो गई, जिसे उन्होंने उसके बदन कों नोच-खचोट कर शांत किया, और फिर उसकी अंगिया मे दो रुपये का नोट ड़ालकर बोले,

"अगर काउू कौं कानोंकान खबर भई तौ पस्सराम की लास पुखरिया मै परी मिलयै।"

कमलिया अपने आँसू और अपने मन मे उबलते झँझावात को मन ही मन पी गई, क्योंकि वह जानती थी कि हल्ला की धमकी खेाखली नहीं है और किसी से शिकायत करने पर भी किसकी हिम्मत थी कि हल्ला के विरुद्ध मुँह खेाल सके। वरन् बात खुल जाने पर उसे ही सबके तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा; और पता नहीं स्वयं परसराम की क्या प्रतिक्रिया हो।

फिर हल्ला परसराम को प्रायः शहर मे फसल बेचने, खाद लाने आदि के बहाने भेजने लगे और कमलिया का भयादोहन करते रहे।

इसी बीच एक दिन खाना खाते खाते कमलिया को उबकाई आने लगी। परसराम समझ गया कि उसके पैर भारी हैं और उसने उसे बाहों मे भरकर कहा, "बता कमलिया लड़का हुइयै या लड़किनी?"

उसका प्रश्न सुनकर कमलिया के मुख पर एक क्षण को मुस्कान उभरी जो यह विचार आते ही तुरंत ही विलीन हो गई कि पता नही उसके पेट में अंकुरित बच्चा परसराम के प्रेम की देन है अथवा हल्ला की बर्बरता की।

"कमलिया इत्ती रात मै कहाँ गई हती?" कमलिया के झोपड़ी मे घुसते ही परसराम ने आग्नेय नैत्रों से उसे देखते हुए कहा था और कमलिया धरती के फट जाने की प्रतीक्षा करती हुई सी थम गई थी, जिससे वह उसमे समा सके। उस दिन परसराम शहर से जल्दी लौट आया था और कमलिया को झोपड़ी मे न पाकर आशंका एवं क्रोध से भरा बैठा था। कमलिया के अस्तव्यस्त बालों और वस्त्रों को देखकर वह सबकुछ समझ गया था। कमलिया की चुप्पी पर वह आपे से बाहर हो गया और उसने उठकर उसके गले को अपने हाथों मे जकड़ लिया। जब कमलिया की साँस रुकने लगी, तब उसके गले से एक चीत्कार निकला, जिसे सुनकर हल्ला ने झोपड़ी के दरवाजे पर आकर पुकारा,

"पस्सराम, का बात है? जल्दी कैसे लौट आये? का आलू गोदाम मै नाई धरो गओ?"

हल्ला की आवाज सुनकर परसराम की पकड़ एकदम ढीली पड़ गई और वह पायलागन कहकर शीघ्र लौट आने का कारण बताने लगा। उसे सुनकर हल्ला उसके नेत्रों मे अर्थपूर्ण ढंग से देखते हुए बोले,

"ठीक है। अब ुपां सोय जाउ। कल्ल आलू धर अयौ।"

परसराम की समझ में मालिक का इतनी रात उसके घर आने का अर्थ भलीभाँति आ गया।

इस संसार मे सभी कुछ सापेक्ष है- गरीब की सामाजिक स्थिति की तरह उसके पुरुषत्व का अभिमान भी छोटा होता है। हल्ला को देखकर परसराम का क्रोध बेबसी के आँसुओं के रूप में बहने लगा, और उसके मन ने समझौता कर लिया कि कमलिया को मारने पीटने या हंगामा करने से बदनामी, जेल अथवा मृत्यु ही प्राप्त हो सकती है; उसके अपमान का प्रतिकार सम्भव नहीं है।

फिर उन दोनों का जीवन पूर्ववत चल पड़ा था- बस जब वह कमलिया को अपने अंक में भरता तो कभी कभी उसकी पकड़ ढीली हो जाती और वह बुदबुदा उठता, "कोई हमै इत्तो बताय देय कि तुम्हाये पेट मै जू बच्चा हमाओई है कि नाईं।"

काम से लौटकर परसराम ने कमलिया को अकेले झोपड़ी मे कराहते हुए पाया और वह दौड़कर चन्नी अइया को बुला लाया, जिन्होंने अपने दक्ष हाथों से एक नन्हीं सुंदर सी बालिका को जन्म दिलाया। जैसे ही इस नवजात बच्ची को नहला धुलाकर कमलिया के बगल मे लिटाया गया, उसे देखकर कमलिया के मुख से अनायास निकल गया, "मेरी सतिया।"

सतिया नाम अचानक आ जाने के पीछे उसके मन मे छिपी वह कामना थी कि चाहते हुए भी वह सती सावित्री न रह सकी, तो कम से कम उसकी संतान का सतीत्व तो अक्षुण्ण रह सके।

आगे की कहानी संक्षिप्त हैं -हल्ला का मानना था कि जब घोड़ी पर चढ़े हैं तो बछेड़ी पर भी चढ़ेंगे और सतिया के तेरह वर्ष की होते-होते उन्होंने एक रात नशे मे धुत्त होने पर उसे अपनी बैठक में बुलवाया था। उस दिन परसराम को उन्होंने पहले से ही काम बताकर शहर भेज दिया था। भयवश माँ और बेटी रातोंरात अपनी झोपड़ी से शहर भाग लिये थे। वहाँ वे परसराम को तो नहीं ढूँढ पाये थे वरन् एक दलाल ने उन्हें बहला फुसलाकर मेले मे ब्रजबासिनों /पेशे से वेश्या/ को बेच दिया था।

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