एक और रोटी

01-04-2019

एक और रोटी

ऋचा इन्दु

बिना किसी भेदभाव के  पेट भरने वाली उस रोटी के लिए फ़र्क तब नज़र आता है जब एक ओर वह कूड़े के ढेर पर पड़ी होती है और दूसरी ओर चूल्हे को भी फ़ाक़ा करना पड़ता हो। सब कुछ भस्म करने को अमादा दावानल सी जठराग्नि की गिरफ़्त में दो दिनों से उन्नीस  साल का चंदू जल रहा था जो अन्य तीन भाई-बहनों के लिए  ज़मीन और आसमान था। आज किसी निरीह पशु के हिस्से से झपटकर लायी गयी एक रोटी को झोपड़ेनुमा आशियाने में पहुँचते ही चार बराबर हिस्सों में बाँट दिया गया। अपने हिस्से का टुकड़ा चंदू मुँह में डालने को ही था कि पड़ोस की कजली भूख से बिलखती अपनी दो साल की बेटी के लिए उस निवाले की आस में उस जर्जर एक कमरे के मकान में दाख़िल हुई। माँगे गये उस रोटी के टुकड़े को चंदू ने भरपूर निगाह डाल कर कजली के हाथों में तो दे दिया मगर उसके ओझल हो जाने तक घूरता ही रहा; मानो देखकर ही पेट भरने का स्वांग रच रहा हो। हालाँकि उसके भाई-बहन अपना-अपना हिस्सा लगभग खा ही चुके थे और जिसका कुछ बचा था वह छिन जाने के भय से फ़ौरन निगल गया। हताश चंदू हाथ में गिलास लिए हुए घड़े की ओर बढ़ा और आज भी मन मसोसकर रोटी के नाम पर दूषित जल से ही पेट भर लिया। 

तारों का आँचल समेटे रात जब सोने चली गयी तो उसकी जगह अंबर पर बादलों की ज़री के काम की ओढ़नी में सुबह आ गयी। मगर चंदू के लिए तो वह सुबह भी हर सुबह की तरह फीकी ही थी और उस ही लहजे में मद्धम क़दमों से वह अपने कर्मक्षेत्र की ओर बढ़ रहा था।  कुछ दस बजे होंगे कि चंदू के रोज़गारदाता (मालिक) अपनी कार्यशैली के अनुरूप गाड़ी से उतरे और आते ही कार्यालय की कुर्सी पर आसीन हो गये। दोनों हाथ जोड़े चंदू अपने मालिक की मेज़ के आगे बैठ फ़रियादी स्वर में बोला, “मालिक! एक रोटी दिलवा दो। तीन दिनों से कुछ नहीं खाया है...भूख से सिर चकरा रहा है...एक रोटी.....।” 

आते ही फ़रियाद सुन उसने नाक-भौंह सिकोड़ी, जिसे देख उसके मुनीम ने चश्मा नाक के कोने से सरकाकर आँखों की तरफ बढ़ाया और कुछ देर रजिस्टर टटोलकर बोला, “अरे! अभी तेरा महीना पूरा नहीं हुआ और तेरी माँ के कफ़न पर जो पैसा दिया था, वह भी तो काटना है...नहीं....नहीं...।”

“छोटे मालिक! पैसे नहीं, बस एक रोटी माँग रहा हूँ। चाहे उसकी क़ीमत पगार से काट लेना...बस एक रोटी....एक दिन की रोटी दे दो...।”

“अच्छा-अच्छा ! अभी वह ईंटे ट्रक में चढ़वा दे। मैं कुछ इंतज़ाम करता हूँ,” मालिक ने आँखें मोबाइल स्क्रीन में गड़ाते हुए कहा। 

ख़ैर चंदू भी अपने मालिक के आश्वासन पर भरोसा कर ट्रक पर ईंट चढ़वाता रहा और उधर सूरज आसमान पर चढ़ बैठा। इन सब से इतर मालिक अपने दफ़्तर में बैठा कूलर की हवा के साथ-साथ कोल्ड-ड्रिंक के बुलबुलों में डूबा रहा और चंदू की आँखें रोटी पाने की चाह में रह-रहकर अपने बेफ़िक्र मालिक की ओर देखती रहीं।  दूर खड़े हुक़्क़ा पीते कारखाने का हूटर (सायरन) रोज़ाना की ही तरह चिलचिलाती धूप की तपिश में चीखने लगा। लोग मधु-मक्खियों के झुंड की मानिंद वहाँ से निकलकर निकटतम ढाबे, दुकान या छायादार स्थान की तलाश में भटकने लगे। आख़िरकार पास ही के एक ढाबे से सबसे सस्ती थाली ख़रीदकर चंदू को भी दिलवा ही दी गयी। तीस रुपये क़ीमत वाली उस थाली में सजी चार रोटियाँ, एक कटोरी दाल और एक टुकड़ा अचार देख बेजान चंदू का चेहरा ऐसे खिल गया मानो धूप में मुरझायी किसी कली पर मेघों ने छाया कर दी हो। चंदू ने फ़ौरन तीन रोटियों के बीच आचार की फाँक रखकर उसे अपनी थाली के एक कोने पर रख दिया और शेष रोटी और एक कटोरी दाल या महज़ दाल का पानी बड़े चाव से हर निवाले के साथ अपने मालिक की दरियादिली का आभार चेहरे के हाव-भाव से टपकाता रहा। सूर्य की दिनचर्या पूरी होने के साथ ही सब के घर लौटने का समय हो चला। चंदू ने मालिक के टिफ़िन से निकालकर फेंके गए अख़बार के टुकड़े पर लगी मिट्टी झाड़कर उसमें बचायी हुई रोटियाँ लपेटकर अपनी अधफटी, पैबंदशुदा पतलून की ज़ेब में छिपायी और संतुष्टि से ओत-प्रोत तेज़ क़दमों से घर की ओर बढ़ ही रहा था कि तभी कजली के पति ने उसके समक्ष एक प्रस्ताव रखा, “तुझे आज बहुत रोटियाँ मिली हैं। एक-दो मुझे दे-दे, कल तक लौटा दूँगा।”

जेब में रखी रोटियों पर पकड़ मज़बूत करते हुए चंदू बोला, “मैं नहीं दूँगा… तेरे पास पैसे थे तो दारू पर क्यों उड़ाये?”

“वो मेरे पैसे थे, जो चाहे करूँ।”

“यह भी मेरी रोटी है....नहीं दूँगा...।”

और देखते ही देखते ज़ुबानी जंग हाथपाई में तब्दील हो गयी। चोटिल होना और बाल नुचवा लेना चंदू को ज़्यादा मुनासिब लगा बनिस्बत रोटी से दूर होने के। रोटी की इस लड़ाई में बीच-बचाव करते हुए कजली और अन्य कामगारों ने उन्हे एक दूसरे की पकड़ से छुड़वाकर अपने-अपने घरों की ओर रवाना किया।  

नयी सुबह चंदू की खाल से झाँकती हड्डियों में एक ठंड का प्रवाह लायी। भूख से जूझते शरीर पर बटन-सी लटकी आँखें आज सुर्ख़ थीं जो रह-रहकर पानी टपका रही थीं। साथी कामगारों को लगा, कहीं यह भी मर न जाए इसीलिए तरस खाकर कुछ ने अपने-अपने हिस्से का एक-एक कौर उससे बाँट लिया मगर पगार मिलने में अभी भी चार दिन शेष थे। इतनी लहरियाँ रेत की नहीं बन पातीं जितनी लकीरें रोटी जुटाने की चिन्ता में चंदू के मुरझाये भोले चेहरे पर उभर चुकी थीं। ढलते सूरज की बुझती रोशनी में उदास मन से चंदू आशियाने के टूटे दरवाज़े के छेद को ढकने के लिए कुछ लकड़ियाँ बीन रहा था कि सहसा उसकी नज़र किसी के घर की बासी रोटियों पर पड़ी जो गली के एक कोने में मुरीदों की बाट जोह रही थी। वह उन रोटियों पर झपटा और किसी क़ीमती वस्तु की भाँति पत्तों की तह में लपेटकर ज़ेब के सुपुर्द कर दिया। "पैसे नहीं है और सिर से माँ-बाप का साया भी तो आये दिन इस रोटी के बन्दोबस्त की वजह से छिन गया है..।" इस ही उधेड़-बुन में उलझा जब वह घर पहुँचा तो सभी भाई-बहनों को इत्मीनान से सोते देख अवाक् रह गया। भेद खुला तो मालूम हुआ कि पास ही के एक मंदिर में कुछ धनवान पुण्यार्जन करने आये थे। ख़ैर अपना हिस्सा खाकर उसने बाक़ी बची हुई रोटियाँ कपड़े में लपेटकर छुपा दीं और हारकर फ़ैसला ले लिया कि अपनी दस साल की बहन ‘कल्लो’ को भी कहीं मेहनत मजदूरी पर लगवायेगा।

मगर एक रोटी की इस जंग में अगले रोज़ क़िस्मत दगा दे गयी। ज्वर से टूटते शरीर को धकेलता हुआ चंदू, कल की छिपायी हुई रोटियों की तलाश करने लगा कि तीन साल के सबसे छोटा भाई एक हाथ मुँह में और दूसरा पेट पर फिराते हुए बोला, “लो....लोटी मैं खा गया।” घर में दंगल छिड़ गया। कजली के हस्तक्षेप से युद्धविराम हुआ और यह रात भी भूखे ही गुज़र गयी। 

अगले दिन अन्य कामगारों में से कुछ घरों से लायी रोटी खा रहे थे, कुछ चाय के पैसे ही जुटा पाये थे और कुछ दूसरों को खाते देख अपनी भूख मिटा रहे थे। इन सब के बीच चंदू पिता की फटी-पुरानी स्वेटर पहने जून की तपती दोपहर में ढाबे की दीवार से सटा ठिठुर रहा था और उसकी इस दयनीय स्थिति को देख वह अपने-अपने निष्कर्ष निकाल रहे थे मगर मदद के नाम पर सबको एक-सी बेबसी घेरे थी। शाम हो चली थी, सूर्य अपनी चमक समेट रहा था और ढाबा मालिक परमजीत, अपने नौकर को बर्तन धोने का आदेश दे ही रहा था कि यकायक उसकी दृष्टि दीवार के पास बेसुध पड़े चंदू पर पड़ी जो तंद्रावस्था में "रोटी.....एक और रोटी...एक और ....”, बड़बड़ा रहा था। उसने चंदू के मालिक को सूचित करवाया किन्तु जब काफ़ी देर तक भी कोई नहीं आया तो वह कार्यस्थल की ओर गया जहाँ केवल मशीनें और कुछ ट्रक खड़े उगते चाँद और चमकते तारों को निहार रहे थे।

“लोग हैं या मिट्टी के पुतले! अपने साथी तक को बेसहारा मरने के लिए छोड़ गये?” परमजीत ने ग़ुस्से में कहा। 

“बच्चे! तू फ़िक्र ना कर, मैं हूँ न,”- यह कहते हुए वह चंदू को पास के प्राइवेट क्लीनिक पर ले गया क्योंकि सरकार द्वारा आवंटित स्वास्थ्य केन्द्र में तो डॉक्टर साहब के दर्शन पाना भी अति दुर्लभ था। उधर चंदू के घर पर कोहराम मचा था। सभी भाई-बहन टकटकी लगाए टूटे हुए दरवाज़े को देख रहे थे और गहराती रात के हर गुज़रते पहर के साथ चंदू के लिए उनकी फ़िक्र भी गहन होती जा रही थी। कल्लो, आस-पड़ोस के हर घर में चंदू के बारे में पूछ रही थी लेकिन जवाब लगभग एक-सा ही था, “नहीं देखा! पड़ा होगा कहीं। ख़ुद ही जाकर क्यूँ नहीं देख लेती?” उसकी हालत पर तरस खाकर कजली ने एक रोटी के अलावा ढांढस बँधाते हुए उसे घर लौट जाने के लिए कहा। वह चुपचाप सिर झुकाये लौट तो गयी लेकिन निगाहें अभी भी प्रतीक्षा में थीं जो हर छोटी-से-छोटी आहट और हवा के झोंके के साथ समस्त परिवार में एक तरंग दौड़ा दिया करती कि उनका सहारा लौट आया है।      

सुबह सूर्य की चटक किरणों ने ज्यों ही चंदू की गाल को छुआ वह ऐसे बिलबिलाकर उठा जैसे किसी ने चाँटा मारकर उठाया हो। वह हड़बड़ाते हुए बोला, “मेरा घर...भाई-बहन...कल्लो!!!” कि तभी परमजीत पगड़ी लपटते हुए आया, “की हाल है पुत्तर?”

चंदू ने नज़रें उठाकर देखा, “आप तो ढाबे वाले सरदार जी हैं न! मैं यहाँ?”

“हाँ! तुझे बुखार से बेहोश देख मैं यहाँ ले आया था। यह ले रोटी खा ले…,” यह कहते हुए परमजीत खाने से भरी एक थाली चंदू को दे दी। घी से चुपड़ी हुई रोटियाँ और एक गिलास लस्सी, उसके लिए तो पंचामृत समान थे। वह जेब टटोलने लगा।

“क्या ढूँढ़ रहा है?......” 

“कागज़...कागज़ का वो टुकड़ा जिसमें कुछ काला-सफ़ेद छपा होता है फोटू के साथ....”

“अख़बार...अख़बार का तू क्या करेगा? ”

ख़ैर परमजीत ने उसे अख़बार पकड़ा दिया। एक रोटी छोड़ चंदू ने अख़बार का बड़ा हिस्सा फाड़कर उसमें बाक़ी सभी रोटियाँ लपेटकर अपनी ज़ेब में रख लीं।

“यह क्या किया?” परमजीत ने आश्चर्य से पूछा। 

“मेरे छोटे भाई-बहन घर पर भूखे होंगे। उनके लिए...”

परमजीत आँखों की नमी छिपाये, नि:शब्द खड़ा उसे खाते देखता रहा। भोजन के पश्चात चंदू ने कपड़ों पर हाथ पोंछे और परमजीत के पैर छूकर बोला, “सरदार जी! थन कू.....” परमजीत अपनी अवचेतन अवस्था से चौंकर जगा तो चंदू ओझल होने को था लेकिन उसके शब्द अभी भी गूँज रहे थे, “आपने मेरी दवा-दारू की, मुझे रोटी दी......मगर मेरे पास आपको देने के लिए धन्यवाद के अलावा कुछ भी नहीं है। मुझे पगार मिलने में दो दिन बाकी हैं।” 

प्रभातकालीन सूर्यप्रभा में परमजीत के गालों पर सुनहरी बूँदें झिलमिला उठी थीं। 
 

3 टिप्पणियाँ

  • 15 Apr, 2019 01:44 AM

    बहुत मार्मिक कहानी है, भाव के साथ - साथ भाषा पर भी अच्छा अधिकार है आपका! बधाई!

  • 3 Apr, 2019 11:57 AM

    शब्द चयन अच्छा है।

  • 1 Apr, 2019 01:22 PM

    बहुत मार्मिक कहानी।

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